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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्त्व : 41 भांति ही हमारे ज्ञान को साधारणता तथा निरपेक्षता प्रदान करती है, क्योंकि यह सभी मनुष्यों में समान है, किन्तु ऐसी अवस्था में यह मत अद्वैत वेदान्त के बिल्कुल समीप प्रतीत होने लगता है। बौद्धों द्वारा दी गई प्रमा की परिभाषा तथा प्रमा के अनिवार्य लक्षण 'अविसंवादी' के अर्थ की अलग ढ़ंग से आलोचना करते हुए भाट्ट दार्शनिकों ने भी लिखा है कि 'अगर ज्ञान का उद्देश्य वस्तु को प्राप्त कर लेना ही है और वस्तु की प्राप्ति के पश्चात् ही वह सिद्ध होता है तो बिजली चमकने से जिस ज्ञान की प्राप्ति होती है वह सदैव असिद्ध रहेगा क्योंकि बिजली की चमक को हम प्राप्त नहीं कर सकते । ९ परन्तु इस प्रकार के आक्षेप लगाना वास्तव में बौद्ध प्रमाण मीमांसा को पूर्णतया समझ न पाने के कारण है। इस प्रकार के आक्षेप एक प्रकार के भ्रम पर आधारित हैं। यह भ्रम अर्थक्रिया समर्थ वस्तु प्रदर्शकम् का अर्थ नहीं समझने के कारण हुआ है। 'अर्थक्रिया समर्थ' का अर्थ वैसा ज्ञान नहीं है जो अर्थ प्राप्ति में तत्काल साधक हो या यर्थाथतः साधक हो ही। अर्थक्रिया समर्थ का अर्थ यह है कि अगर उस ज्ञान पर विश्वास करके हम उस वस्तु की प्राप्ति की चेष्टा करें तो वह वस्तु प्राप्त की जा सकेगी। जैसे जल का ज्ञान मुझे हो रहा है और यह प्रमा रूप तभी होगा जबकि प्यास लगने पर यह जल मेरी तृष्णा को शांत कर सके। इसी प्रकार बिजली की चमक की प्राप्ति के संदर्भ में प्राप्ति का अर्थ मात्र मुट्ठी में बंद कर लेना नहीं होता। बिजली की चमक की अनुभूति ही उसकी प्राप्ति है। बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप व निर्धारक तत्त्व पर विचार करने के पश्चात् सूक्ष्म अध्ययन हेतु जैन दर्शन में प्रमा का स्वरूप और उसके निर्धारक तत्त्व पर विचार करेंगे। जैन आगमों में प्रकारान्तर से प्रमाण की चर्चा बहुविध हुई है तथापि प्रमाण का प्रामाणिक विश्लेषण तर्कयुग की देन है । प्रामाण्य- अप्रमाण्य का अलग-अलग विचार करने के बजाय ज्ञान के स्वरूप के साथ ही प्रमाण का स्वरूप समझ लेने का संकेत उमास्वाति ने किया था जो आगे चलकर अन्य दार्शनिक परम्पराओं की भाँति प्रमाण के संबंध में यथोचित विवेचन, विश्लेषण का कारण बना। जैन दर्शन में प्रमाण- लक्षण के संदर्भ में बहुत सारी परिभाषायें दी गई हैं। किसी ने 'स्वपरावभासी ज्ञान' को प्रमाण बतलाया है। १० तो किसी ने स्वपरावभासी बाध रहित ज्ञान ११ को प्रमाण कहा है। किसी की दृष्टि में 'स्वपरावभासी व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण १२ है तो कोई अनधिगतार्थक अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण कहता है । ३ कहीं सम्यक्ं ज्ञान को प्रमाण बतलाकर स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान को सम्यक् ज्ञान कहा है। १४ एक स्थल पर स्व और अपूर्व अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान को भी प्रमाण कहा गया है यद्यपि यह ध्यातव्य है कि इन लक्षणों में कोई विशेष अंतर नहीं है। जो मतभेद प्रत्यक्ष भी हो रहे हैं तो वे शब्दों के कारण हुए हैं।
उपरोक्त वर्णन से यह तो स्पष्ट है कि जैन दर्शन में ज्ञान को ही प्रमाण का कारण माना गया है। यह प्रमाण ज्ञान सम्पूर्ण वस्तु को ग्रहण करता है और उसमें सामान्य