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38 : श्रमण; वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 अर्थक्रिया स्थिति, ज्ञानान्तर से अध्यवसेय नहीं होती, तथापि वह प्रमाण ही है। अभ्यास दशापन्न-ज्ञानशब्द से ऐसे विषय का ज्ञान विवक्षित है, जिस विषय को बारबार देखने के कारण संदेह कभी नहीं होता। जो वस्तु जिस रूप में है, उसको उसी ज्ञान में अवगाहन करने वाला ज्ञान प्रमाण होता है। अनभ्यासदशापन्न ज्ञान में वस्तु की तद्रूपता का निश्चय ज्ञानान्तर संवाद से ही होता है; किन्तु अभ्यासदशापन्न ज्ञान में ज्ञानान्तर संवाद भी आवश्यक नहीं होता। अत: जहाँ अर्थक्रिया-स्थिति ज्ञानान्तर से ज्ञात होती है उसे यदि प्रमाण माना जाता है तो स्थल विशेष में स्वतः अर्थक्रिया के अनुभव होने पर उसे प्रमाण न मानने का कारण नहीं है। यही कारण है कि विसंवादाभाव चाहे अन्य साधन से गृहीत हो अथवा स्वत: गृहीत हो, उसके साधन
को विवक्षित किया गया है। अतएव “संवादानुभवः प्रमा' न कहकर संवादविरुद्ध विसंवाद के अभाव की ही लक्षण में विवक्षा करके विरुद्धार्थक विनम्र के प्रवेश रूप गौरव को फलमुख होने से स्वीकार किया गया है। "संवादानुभवः प्रमाणम्' प्रमा का यह लक्षण स्वीकार करने पर ज्ञानान्तर संवाद की नियमत: अपेक्षा होगी। फलत: अभ्यासदशापन्न ज्ञान जहाँ संवाद की अपेक्षा नहीं होती, प्रमाण नहीं होगा। यही कारण है कि विसंवाद भाव की विवक्षा के गुरू प्रयास को भी मान्यता प्रदान की गई। यहाँ यह अवश्य ध्यातव्य है कि विसंवादाभाव का प्रतियोगी विसंवाद जहाँ उपस्थिति होगा वहीं उसके अभाव ज्ञान के लिए ज्ञानान्तर संवाद की अपेक्षा होगी। अभ्यासदशापन्न ज्ञान में विसंवाद की उपस्थिति न होने से, उसके अभाव के सत्यापन के लिए ज्ञानान्तर की अपेक्षा नहीं होती। फलतः सम्पूर्ण व्यवस्था उत्पन्न हो जाती है। दाहपाकादि की स्थिति केवल अग्नि आदि द्रव्यात्मक पदार्थों में ही संभव है, शब्दादि में तो ऐसा कोई धर्म नहीं होता। इसके विपरीत आकांक्षा, योग्यता आदि के बल पर शब्द जिस ज्ञान को उत्पन्न करता है, वह उसका विषय नहीं होता, अत: अर्थक्रिया स्थिति शब्द से उस स्थल में क्या गृहीत होगा? इस समस्या के समाधान में धर्मकीर्ति कहते हैं, 'अविसंवाद शब्दऽप्येभिप्राय निवेदनम्' अर्थात् अविसंवादन का तात्पर्य, वक्ता जिस अर्थ के बोधन के अभिप्राय से शब्द का प्रयोग करता है, उस अभिप्राय को बुद्धिस्थ कर देना है। लेकिन यहाँ धर्मकीर्ति के ऊपर यह आक्षेप किया जाता है कि उन्हें "अविसंवादिज्ञान प्रमाणम्" यह प्रमा सामान्य का लक्षण न करके "अबाधितो बोधः प्रमाणम्' यह सर्वप्रमानुग्राहक प्रमा लक्षण करना चाहिए। किन्तु यह आक्षेप धर्मकीर्ति के आशय को न समझने के कारण उत्पन्न हुआ है; क्योंकि शब्दज्ञान में (जिसमें अव्याप्ति की संभावना से प्र.त आक्षेप किया गया है) "अविसंवादन" का तात्पर्य अभिपाय निवेदन से है। अतः शब्द विषय ज्ञान अभिप्राय निवेदन से ही प्रमाण माना जाता है।