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36 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 2 अप्रैल-जून, 2015
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सर्वप्रथम बौद्ध दार्शनिक ज्ञान को प्रमाण और अप्रमाण भेद से द्विधा विभक्त स्वीकार करते हैं। यहाँ 'प्रमाणं' शब्द 'प्रमा' का ही अपर पर्याय है। बौद्ध दार्शनिक धर्मोत्तर ने वैध ज्ञान अर्थात्, प्रेमा को अनधिगत, अविसंवादी और अर्थक्रिया समर्थ कहा है। धर्मोत्तर के अनुसार प्रमा का महत्त्व उस वस्तु को प्राप्त करने वाली क्रिया में सहयोग देने में है। जिसका ज्ञान प्राप्त किया जा रहा है। अर्थात् किसी वस्तु 'क' के ज्ञान से यदि हम 'क' को पा ले रहे हैं तो 'क' का ज्ञान वैध है। धर्मोत्तर का मानना है कि अधिगत ज्ञान से इस प्रकार के लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती अर्थात् जब प्रथमतया हमें उस विषय का ज्ञान होता है तभी हम वस्तु की ओर आगे बढ़ते हैं। दुबारा प्राप्त ज्ञान आगे बढ़ने में हमारी सहायता प्रेरक रूप में करता है । अतः इस प्रकार का ज्ञान अनधिगत नहीं है, प्रमा नहीं है । बौद्ध दर्शन की इस दृष्टि से स्मृति प्रमा नहीं है। संशय और भ्रम भी प्रमा नहीं है क्योंकि इससे भी किसी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती । भ्रामक ज्ञान लक्ष्य प्राप्ति में साधक न होने के कारण प्रमा के अन्तर्गत नहीं आता । संशय में एक ही वस्तु विषयक ज्ञान एक ही समय में विभिन्न कोटिक ज्ञान उद्भासित करता है। ऐसा किसी भी वस्तु स्वरूप के लिए संभव नहीं है और संशय भी लक्ष्य की प्राप्ति में साधक नहीं होता है। इसी कारण बौद्ध मत तो स्पष्ट रूप से इस विषय पर आग्रह करता है कि अनधिगतता प्रमा का आवश्यक लक्षण है। इसके अनुसार अधिगत (ज्ञात) ज्ञान प्रमा की श्रेणी में नहीं आता। अतः बौद्ध दर्शन का मत है कि किसी भी ज्ञान में जब तक निश्चितता या संशयरहितता तथा अनधिगतता की अनुभूति न हो, वह प्रमा नहीं होता ।
बौद्ध अविसंवादकता को भी प्रमा का अनिवार्य लक्षण या निर्धारक तत्त्व मानते हैं। बौद्धों द्वारा दिया गया 'अविसंवादी' का अर्थ भाट्ट मीमांसकों के 'अविसंवादी' के अर्थ से भिन्न है। बौद्धों के अनुसार ज्ञान की वस्तु अगर उस ज्ञान के माध्यम से प्राप्त की जा सके तो ज्ञान अविसंवादी है और वह प्रमा की कोटि में आ सकती है। जैसे पर्वत पर धूम को देखकर हमें अग्नि का ज्ञान हो रहा है। अग्नि के इस ज्ञान से उस स्थान पर जाकर यथार्थतः अग्नि प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार बौद्ध प्रमा की व्यवहारवादी परिभाषा देते हैं। उनके अनुसार प्रमा का चरम उद्देश्य अर्थ सिद्धि है इसलिए वे अविसंवादिता को प्रमा का प्रमुख निर्धारक तत्त्व मानते हैं। बौद्धों के द्वारा बतलाये गये प्रमा के इस अविसंवादिता के लक्षण का और अधिक स्पष्ट रूप डॉ० अम्बिका दत्त शर्मा अपनी पुस्तक में वर्णित करते हैं कि अविसंवाद भी दो प्रकार से देखा गया है- व्यवहार अविसंवाद तथा ज्ञान अविसंवाद, जिसे दूसरे शब्दों में अबाधिता भी कह सकते हैं। वास्तव में यह दोनों प्रकार के अविसंवाद परस्पर अत्यधिक घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं। ज्ञान की अबाधिता भी प्रायः व्यवहार के