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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्त्व
डॉ० ज्योति सिंह श्रमण परम्परा की धारा में बौद्ध और जैन दर्शन प्रमुख प्रवाह हैं। अन्य दर्शनों की भाँति इन दर्शनों में भी सत्य और असत्य ज्ञान के निर्धारण के विषय में सत्य ज्ञान को 'प्रमा' और असत्य ज्ञान को 'अप्रमा' कहा गया है। ज्ञान यावत् व्यवहार का असाधारण कारण है। प्रत्येक वस्तु ज्ञान के द्वारा ही ज्ञात हो सकती है। वस्तु के ज्ञान के पश्चात् उससे स्वार्थ की सिद्धि की आशा होने पर उसे पाने की, स्वार्थ-विधात की आशंका होने पर उसे हटाने की तथा स्वार्थ एवं स्वार्थ-विघात दोनों की असंभावना में औदासीन्य की प्रवृत्ति देखी जाती है। यदा-कदा ऐसा भी होता है कि किसी वस्तु को इष्ट का साधन समझकर, उसे प्राप्त करने की चेष्टा के अनन्तर, वह वस्तु किसी अन्य प्रकार की दृष्ट होती है, जैसे शुक्ति में रजत की बुद्धि। अतः प्रवृत्ति संवाद अर्थात् जो वस्तु जिस रूप में ज्ञात होती है, उसकी उसी रूप में व्यवस्थित होने एवं न होने के आधार पर भी ज्ञान का भेद होना आवश्यक है। चिंतकों ने सम्पूर्ण व्यवहार के ज्ञान के द्वारा उत्पन्न होने पर भी संवादी एवं विसंवादी रूप में उसके द्विधा विभक्त-स्वरूप के आधार पर उसके प्रमा एवं अप्रमा दो भेद किये हैं। जिस ज्ञान के विषय का प्रवृत्ति के साथ संवाद देखा उसे प्रमात्मक तथा जिस ज्ञान के साथ प्रवृत्ति का विसंवाद देखा उसे अप्रमात्मक या भ्रम कहा। प्रमा के स्वरूप और उसके निर्धारक तत्त्वों की समस्या यह है कि सामान्यत: सत्य ज्ञान को प्रमा तथा असत्य ज्ञान को अप्रमा कहा जाता है। भारतीय दर्शनों में भी अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार प्रमा का स्वरूप निर्धारण किया गया हैं। जैसे कोई दार्शनिक संप्रदाय अनधिगतता (नवीनता) को प्रमा का निर्धारक तत्त्व मानते हैं तो अन्य दार्शनिक संप्रदाय अबाधिता को प्रमा का निर्धारक तत्त्व मानते हैं, तो कुछ दार्शनिक ऐसे भी हैं जो उपयोगिता को प्रमा की प्रमुख कसौटी या निर्धारक तत्त्व मानने पर बल देते हैं। अतएव अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुरूप, निश्चित व्यवहार की उपपत्ति के लिए दार्शनिकों ने प्रमात्मक ज्ञान की विभिन्न परिभाषायें प्रस्तुत की हैं। प्रमात्मक ज्ञान की परिभाषाओं में इस विभिन्नता का हेतु, विभिन्न संप्रदायों के तत्त्व विनिश्चय में उपजीव्य सूक्ष्म एवं स्थूल-प्रपंच के प्रति उनका विशेष दृष्टिकोण है। मैंने अपने शोधपत्र में जैन और बौद्ध दर्शन के प्रमा के स्वरूप व निर्धारक तत्त्व पर क्रमशः विचार किया हैं क्योंकि इन दोनों दर्शनों में आचार मीमांसा व संस्कृति की दृष्टि में समानता है परन्तु प्रमा के विषय में पर्याप्त भेद है।