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आगमों में वादविज्ञान : 33 श्रमण भगवान् महावीर के वादी मुनियों की संख्या चार सौ थी। वे देव-परिषद्, मनुज-परिषद् और असुर-परिषद् में अपराजित थे। यह उनके वादी शिष्यों की उत्कृष्ट सम्पदा थी। स्थानांगसूत्र में कथा के भेदों का वर्णन करते हुए कहा गया है-'चउव्विहा कहा पण्णत्ता, तंजहा- अक्खेवणी, विक्खेवणी, संवेयणी, णिवेदणी'।१० कथा के चार प्रकार हैं- १ आक्षेपणी २ विक्षेपणी ३ संवेदनी ४ निवेदनी। संवेदनी और निर्वेदनी कथाएँ वे हैं, जिनमें गुरु अपने शिष्य को संवेग और निर्वेद की वृद्धि के लिए उपदेश देता है। आक्षेपणी कथा गुरु और शिष्य के बीच होने वाली धर्मकथा है, जिसे जैनमतानुसार वीतराग कथा और न्यायशास्त्र के अनुसार तत्त्वबुभुत्सु कथा कहा जा सकता है। इसमें आचारादि के विषय में शिष्य की शंकाओं का समाधान आचार्य करते हैं। विक्षेपणी कथा में स्वसमय और परसमय दोनों की चर्चा है। यह कथा गुरु और शिष्य में हो तब तो वीतराग कथा ही है, यदि जयार्थी प्रतिवादी के साथ कथा हो तो वह वाद-विवाद कथा में समाविष्ट होता है। इसप्रकार ये कथाएँ ही वाद के रूप में नियोजित हैं। वाद या कथा के द्वारा व्यक्ति के मन में रही हुई गलत धारणाओं को निर्मूल किया जाता है और जिज्ञासाओं को शान्त किया जाता है। अत: वाद का मन के विज्ञान से सीधा-सीधा सम्बन्ध है। मनोविज्ञान की प्रसिद्ध अन्तर्निरीक्षण और प्रेक्षण विधियाँ वाद की अन्त:क्रिया को स्पष्ट करती हैं। विलियम वुण्ट की अन्तर्निरीक्षण विधि अन्त:वाद से तथा वाट्सन की प्रेक्षण विधि सद्वाद से सम्बद्ध है। स्वयंबुद्ध स्तर के व्यक्ति दूसरों से वाद न करके अन्त:वाद (स्वयं से वाद करना) कर स्वप्रज्ञा से प्रबुद्ध हो जाते हैं। उनके अन्तर में चलने वाली इस वाद-विधि को अन्तर्निरीक्षण विधि के अन्तर्गत समाविष्ट किया जा सकता है। सामान्य जन गुरु से वाद करके, विद्वानों से वाद करके प्रबुद्ध होते हैं तो उनकी यह विधि प्रेक्षण-विधि में शामिल की जा सकती है। इस विधि में अन्य व्यक्ति अर्थात् गुरु आदि शिष्य की मनोवृत्तियों का निरीक्षण कर उसे वाद शैली से प्रबुद्ध बनाते हैं। प्रस्तुत आगमिक वादों में मनोवैज्ञानिकता स्पष्ट दृग्गोचर होती है। जैसे- भगवान् महावीर द्वारा सकडालपुत्र को सीधे अपने सिद्धान्तों को नहीं समझाया गया, अपितु उसकी पूर्वमान्यता को प्रायोगिक रूप से अव्यावहारिक सिद्ध कर पुरुषार्थ की महत्ता को बताया गया। केशीश्रमण ने राजा प्रदेशी को समझाने में उन्हीं तों को खण्डित करने वाले तर्क दिए, न कि अन्य तर्क। यह प्रतीतिगम्य है कि जब तक व्यक्ति को स्वयं के तर्क दोषपूर्ण नहीं लगते तब तक अन्य हेतु अथवा दूसरे के सिद्धान्त उसको .