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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्त्व : 37 अविसंवाद के रूप में ही परिलक्षित होती है। किसी वस्तु का ज्ञान शून्य में प्राप्त नहीं होता बल्कि व्यवहार में ही होता है। पहले हमें किसी वस्तु के स्वरूप का ज्ञान होता है, उससे हमें कुछ आकांक्षा होती है तथा हम क्रिया में विशेष रूप से प्रवृत्त होते हैं और व्यवहार अथवा क्रिया एवं उसके ज्ञान का यह क्रम निरंतर चलता रहता है। इस समस्त व्यवहार तथा उसके साथ ही उसके ज्ञान में यदि संवाद होता है तो वह प्रमा रूप माना जाता है तथा यदि इसमें किसी भी स्तर पर विसंवाद होता है तो वह ज्ञान अप्रमा रूप माना जाता है। धर्मकीर्ति ने भी धर्मोत्तर के समान प्रमा का लक्षण "अविसंवादिज्ञानम प्रमाणम्" किया है। "विसंवादः अस्यास्ति-इति विसंवादी, न विसंवादीति-अविसंवादी"। इस प्रकार बौद्ध दर्शन में अविसंवादि शब्द का अर्थ है, “अपने प्रतीयमान विषय का कालांतर में त्याग न करने वाला।" इसी अर्थ को ध्यान में रखते हए अर्थ क्रिया स्थिति को अविसंवादी शब्द से द्योतित किया गया है। “अर्थस्यक्रियायाः अर्थ क्रिया स्थिति'' इस समास के अनुसार निष्पन्न अर्थ क्रिया स्थिति शब्द के अवयवार्थ के अनुसार दाह-पाक आदि का अव्यभिचार ही अर्थ क्रिया स्थिति शब्द से लिया जायेगा, अर्थात् जिनकी इच्छा से व्यक्ति अग्नि आदि अर्थो को लेता हैं, उन दाह-पाक आदि प्रयोजनों (फलों) का उस अर्थ (अग्नि आदि) से व्यभिचारित न होना। क्योंकि यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि बिना किसी उद्देश्य के मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती जैसे आग का ग्रहण दाहकादि के उद्देश्य से किया जाता है। अत: यह व्याप्ति गृहीत होती है कि जो भी दाहक होगा वह अग्नि है। इस प्रकार दाहकत्व के अग्नित्व समनियत होने के कारण दाहकत्व के प्रमायिक ज्ञान से स्वरूप का निश्चय करना संभव है। अत: निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि अर्थक्रियास्थिति का अभिपाय हैअग्नि आदि से उत्पन्न होने वाली दाहपाक आदि अर्थ की निष्पति का अविघ्न या प्रमाणान्तर से व्यभिचरित न होना। चक्षु संयोगादि के अनन्तर ज्ञात अग्नि स्वरूप कोई वस्तु प्राथमिक ज्ञान के काल में दाह-पाकादि का आग से संबंध स्वरूप-संवेदन के काल में न होने से प्राथमिक ज्ञान को स्वतः प्रमाण नहीं कहा जा सकता है। अतएव आचार्य धर्मोत्तर ने प्रमाण विषय को 'ग्राह्य' तथा 'अध्यवसेय' रूप से दो भागों में विभक्त किया हैनिर्विकल्प ज्ञान के द्वारा स्वलक्षण गृहीत होता है तथा विकल्प ज्ञानो से अध्यवसेय विषय गृहीत होता है। इस प्रकार प्रथम क्षण में वस्तु के आकार मात्र का तथा तदुत्तर क्षण में जाति गुण आदि स्वलक्षण से युक्त ज्ञान का भान होता है। इस प्रकार प्रायः ज्ञानगत प्रामाण्य, ज्ञानानन्तर से ही अध्यवसेय है। यद्यपि अभ्यासदशापन्न ज्ञान में