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आगमों में वादविज्ञान : 31 गृहस्थ श्रमणोपासकों को इस प्रकार करवाते हैं- 'नन्नत्थ अभिजोएणं गाहावतीचरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दण्डं' । किन्तु यह दुष्प्रत्याख्यान है, उन्हें -'तसेहिं पाणेहिं' के स्थान पर 'तसभूतेहिं पाणेहिं' से प्रत्याख्यान करवाना चाहिए। उदक निम्रन्थ दुष्प्रत्याख्यान की सिद्धि में हेतु देते हैं कि अभियोगों का आगार रखकर जो श्रावक त्रस प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान करते हैं, वे कर्मवशात् उन त्रसजीवों के स्थावर जीव के रूप में उत्पन्न होने पर उनका वध करते हैं, ऐसी स्थिति में वे प्रतिज्ञाभंग करते हैं, उनका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान हो जाता है। मेरा (उदक निर्ग्रन्थ का) मन्तव्य है कि 'त्रस' पद के आगे 'भूत' पद को जोड़कर त्याग कराने से प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। समाधान में गणधर गौतम कहते हैं कि श्रमणोपासक को उसी प्राणी को मारने का त्याग है, जो वर्तमान में 'त्रस' पर्याय में है, वह जीव भूतकाल में स्थावर रहा हो या वर्तमान में त्रस से स्थावर बन गया हो, उससे उसका कोई प्रयोजन नहीं, न उससे उसका व्रतभंग होता है, क्योंकि कर्मवश पर्याय-परिवर्तन होता रहता है। जैन विद्वान श्री चन्द सुराणा 'सरस' ने इसके विवेचन में 'भूत' पद की अनुपयुक्तता के तीन कारण बतलाए हैं(१) 'भूत' शब्द का प्रयोग निरर्थक है, पुनरुक्तिदोषयुक्त है। (२) 'भूत' शब्द 'त्रससदृश' होने से अभीष्ट नहीं है। (३) 'भूत' शब्द उपमार्थक होने से उसी अर्थ का बोधक होगा, जो निरर्थक है। इस प्रकार वाद विषय-निर्णय के लिए भी किए गए। उत्तराध्ययन सूत्र के २३वें अध्ययन में पार्श्व परम्परा के केशीकुमार श्रमण और गणधर गौतम के मध्य दोनों परम्पराओं के आचार भेद और विचारभेद को लेकर वाद हुआ है। जब पार्श्व और महावीर- इन दोनों परम्पराओं के शिष्य एक दूसरे के परिचय में आए तो उनके मन में वेश एवं व्रत-नियम के अन्तर को देखकर तर्क-वितर्क खड़ा हुआ। ऐसी स्थिति में केशीश्रमण और गौतम श्रमण ने शिष्यों की उपस्थिति में परस्पर एक-दूसरे से मिलकर धर्मवाद कर समाधान करना आवश्यक समझा। वाद करने से यह समझ में आया कि हमारा मूल लक्ष्य एक ही है, उसमें कोई अन्तर नहीं है, किन्तु मानव मन की बदलती हुई गति एवं साधकों की योग्यता को देखकर विभिन्नता की गई है। पंच महाव्रत स्थापित करने तथा श्वेत वस्त्र या निर्वस्त्र की परम्परा प्रचलित करने की कारणता शिष्यों को स्पष्ट की गई। बाह्याचार वेश का प्रयोजन केवल लोक प्रतीति है। मोक्ष रूप लक्ष्य एक है, उसके वास्तविक साधन ज्ञान-दर्शन-चारित्र सबके समान हैं।