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22 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 नाटकीय प्राकृत-भाषाओं का प्रचुर प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। संस्कृत भाषा जन सामान्य की भाषा नहीं पण्डितों एवं राजा तथा तत-तत् समकक्ष लोगों की भाषा थी। सामान्य लोगों के बोल-चाल की भाषा संस्कृत नहीं, प्राकृत भाषा थी। नाटकों को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए विभिन्न भागों में प्रचलित विभिन्न प्राकृत भाषाओं का प्रयोग किया जाता था। नाटकों में अनेक प्रकार के पात्र होते हैं और वे अपनी योग्यतानुसार एवं अवस्थानुसार विभिन्न प्राकृत भाषाओं का प्रयोग करते हैं। संस्कृत नाटकों में मूलतः शौरसेनी, महाराष्ट्री और मागधी प्राकृत का प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं अर्द्धमागधी, अपभ्रंश एवं अन्य प्राकृतों का भी प्रयोग एकाध स्थल पर हुआ है। मृच्छकटिक और मुद्राराक्षस में नाटककारों ने नाट्यशास्त्र के नियमों को ध्यान में रखकर विभिन्न प्राकृतों का प्रयोग विभिन्न पात्रों द्वारा कराया है। प्राकृत के ऐतिहासिक स्वरूपों का विवेचन करते समय विभिन्न नाटककारों एवं काल पर ध्यान देना आवश्यक है। क्योंकि विभिन्न नाटककारों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत के विभिन्न स्वरूप मिलते हैं और यही स्थित काल की दृष्टि से भी है। प्राचीनकाल के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत आधुनिक काल के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत से कुछ अंशों में भिन्न है। शौरसेनी प्राकृत संस्कृत नाटकों की गद्यभाषा मुख्यतः शौरसेनी प्राकृत है। शौरसेनी संस्कृत नाटकों में महिलाओं, बच्चों, नपुंसकों, ज्योतिषियों, विक्षिप्त तथा अस्वस्थ लोगों द्वारा प्रयुक्त होती है। विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस में शौरसेनी का प्रयोग उल्लेखनीय है। यथा - प्रथम अंक में ही प्रतिहारी की उक्ति शौरसेनी में इस प्रकार है - प्रतिहारी - “अज्ज देवो चन्दसिरी सीसे कमलमुउलाआरमंजलिं णिवेसिअ अज्जं विण्णवेदि। इच्छामि अज्जेण अब्भणण्णादो देवस्स पव्वदीसरस्स पारलोइअं का, तेण अ धारिदपुव्वाइं आहरणाई बम्हणाणं पडिवादेमित्ति।" १५ प्रतिहारी - महाराज चन्द्रमा की सी छवि धारण करने वाले महाराज कमल कलिका की भाँति अंजलि को सिर से लगाकर आपसे निवेदन करते हैं कि आपकी अनुमति से मैं राजा पर्वतेश्वर का श्राद्ध करना चाहता हूँ और उनके द्वारा पहले धारण किये गये आभूषणों को ब्राह्मणों को देना चाहता हूँ। चन्दनदास प्रथम अंक में शौरसेनी में इस प्रकार कहता है -
चाणक्कम्मि अकरुणे सहसा सहाविंदस्स वि जणस्स। णिहोस्स वि संका किं उण महं जाददोसस्स।।१६