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मुद्राराक्षस में प्रयुक्त प्राकृतों का सार्थक्य : 23 अर्थात् निर्दय चाणक्य के द्वारा किसी निर्दोष पुरुष को बुलाये जाने पर भी उसके मन में शंका उत्पन्न हो जाती है, फिर अपराधी पुरुष की तो बात ही क्या? पंचम अंक में क्षपणक द्वारा शौरसेनी में एक कथन इस प्रकार है - क्षपणक - "तदो हगे रक्खसस्स मित्तं त्ति कदुअ चाणक्कहदएण सणिकालं णअरादो णिव्यासिदे। दाणीं वि रक्खसेण अणेअअकज्जकुसलेण किंाव तालिसं आलहीअदि जेण हगे जीअलोआदो णिक्कासिज्जेमि।"१७ अर्थात् तदनन्तर क्योंकि मैं राक्षस का मित्र था, अत: चाणक्य ने अपमानित कर मुझे नगर से बाहर कर दिया। इस समय भी अनेक राजकार्यों में कुशल राक्षस के द्वारा कुछ उसी प्रकार के कार्य किये जा रहे हैं जिससे मैं अब इस संसार से ही विदा कर दिया जाऊँगा। षष्ठ अंक में हाथ से रस्सी लिए पुरुष प्रवेश करता है और शौरसेनी में कहता है"ऐसो सो पदेसो अज्जचाणक्कस्स उदुम्बरेण कहिदो जहिं मए अज्ज चाणक्काणत्तीए अमच्चरक्खसो पेक्खिदव्वो। कहं एसो क्खु अमच्चरक्खसो किदसीसावगुण्ठणो इदो एव्व आअच्छदि। ता जाव इमेहि जिण्णुज्जाणपादवेहि अन्तरिदसरीरो पेक्खामि कहिं आसणपरिग्गहं करेदि त्ति"।१८ अर्थात् यह वही स्थान है, जहाँ उदुम्बर के द्वारा मान्य चाणक्य को दी गई सूचना के अनुसार मुझे अमात्य राक्षस के दर्शन करने हैं। देखकर (क्या यही अमात्य राक्षस हैं?) सिर पर पर्दा डाले ये तो इधर ही आ रहे हैं। तो जब तक ये आसन नहीं ग्रहण कर लेते-इस उद्यान के पेड़ की आड़ से मैं छिपकर देखता हूँ। सातवें अंक में चन्दनदास द्वारा प्रयुक्त प्राकृत शौरसेनी का उदाहरण इस प्रकार है - "हद्धी हद्धी अम्हारिसाणं वि णिच्चं चारित्तभंगभीरुणं चोरजणोचिदं मरणं होदि ति णमो किदन्तस्स। अह वा ण णिसंसाणं उदासीणेसु इदरेसु वा विसेसोत्थि। तह हि"१९ अर्थात् हा धिक्कार है, धिक्कार है। चरित्रभंग होने के भय से संतप्त हमारे जैसे व्यक्ति की मृत्यु भी चोरजनों के लिए उपयुक्त मृत्यु की तरह होती है। अत: नमस्कार है-महाराज यमराज को। अथवा निर्दय व्यक्तियों के सामने पदासीनों या दूसरों में भेद नहीं हो पाता। महाराष्ट्री प्राकृत संस्कृत नाटकों में जिन प्राकृतों का प्रयोग हुआ है उनमें महाराष्ट्री सर्वश्रेष्ठ है। महाकवि दण्डी ने वाक्यादर्श में महाराष्ट्री प्राकृत को सर्वश्रेष्ठ बताया है। यथा