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26 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015
सेना के बिना शत्रुपक्ष को नष्ट कर देने वाली आर्य चाणक्य की नीति की जय हो। इसी अंक में समिद्धार्थक भी मागधी में ही कहता है
संदावे बतारेसाणं गेहूसवे सुहाअत्ताणं।
हिअअट्ठिदाणं विहवा विरहे मित्ताणं दूणन्दि।। २८ अर्थात् दुःख में शीतल शशि की भाँति संताप-हारक, घर के उत्सवों में सुखदायक, हृदय में सदैव विद्यमान मित्रों के विरह में ऐश्वर्य भी पीड़ित करते हैं। सप्तम् अंक में वज्रलोमा का कथन मागधी में इतना सुन्दर है। यथा -
जइ महह लक्खिदुं शेप्याणे विहवे कुलं कलत्तं ।
ता पलिहलेह विसमं लाआपत्थं सुदूलेण।।२९ यदि अपने प्राण, विभव, कुल और कलत्र की रक्षा करना चाहते हो तो विष की भांति राजा के लिए अपथ्य अर्थात् अवांछनीय पदार्थ का प्रयत्न पूर्वक परित्याग करो। इस प्रकार इस नाटक के विभिन्न पात्रों ने शौरसेनी, मागधी और महाराष्ट्री का प्रयोग किया है। प्रियंवदक, पुरुष, दौवारिक जैसे पात्र शौरसेनी का ही प्रयोग करते हैं। उपसंहार संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में मुद्राराक्षस अश्वघोष, कालिदास, भास आदि द्वारा रचित नाटकों की अपेक्षा नवीन शैली में प्रणीत नाटक है। यह विशाखदत्त का एक अद्भुत नाटक है, जिसमें सात अंक हैं। इस नाटक में पुरुष तथा नारी पात्रों में जो पात्र प्राकृतभाषी हैं उनमें नटी, चर, प्रतिहारी, सिद्धार्थक, चन्दनदास, आहितुण्डिक, प्रियंवदक, पुरुष दौवारिक, करभक, क्षपणक, समिद्धार्थक, चाण्डाल, कुटुम्बिनी और पुत्र जैसे पात्र मुख्य हैं। इस नाटक में मुख्यत: तीन प्राकृत- शौरसेनी, महाराष्ट्री और मागधी का प्रयोग मिलता है। गद्य की भाषा सामान्यतः शौरसेनी है और पद्य की भाषा महाराष्ट्री। किन्तु यह विधान स्त्रियों के साथ लागू नहीं होता है। कुछ पुरुष पात्र पद्य भाग को भी शौरसेनी में ही प्रस्तुत करते हैं। विशाखदत्त ने प्राकृतों का प्रयोग व्याकरण के नियमानुसार किया है। मुद्राराक्षस रूपक में शौरसेनी, महाराष्ट्री (पद्य में) और मागधी (क्षपणक, सिद्धार्थक और चाण्डाल बोलते हैं) प्राकृतों का प्रयोग हुआ है। विशाखदत्त द्वारा प्रयुक्त प्राकृत के स्वरूप को देखने से प्रतीत होता है कि इनकी प्राकृत भाषा सर्वथा कृत्रिम अर्थात् व्याकरणमूलक