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20 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 किया गया। प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति करते समय 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम' अथवा 'प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम्' अर्थ को स्वीकार करना चाहिए। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में बोले जाने के कारण स्वभावतः उनके रूपों में भिन्नता आई। उन बोलचाल की भाषाओं या बोलियों के आधार पर साहित्यिक प्राकृतें विकसित हुईं। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में प्राकृतों का वर्णन करते हुए मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, शूरसेनी, अर्धमागधी, वाह्लीका और दाक्षिणात्या नाम से प्राकृत के सात भेदों की चर्चा की है। भरत के नाट्यशास्त्र११ में धीरोदात्त और धीरप्रशान्त नायक, राजमहिषी, गणिका एवं श्रोत्रिय ब्राह्मण आदि के लिए संस्कृत तथा श्रमण, तपस्वी, भिक्षु, तापस, स्त्री,नीच जाति और नपुंसकों के लिए प्राकृत बोलने का विधान है। नाट्यशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में संस्कृत-नाटकों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि इनमें उच्च वर्ग के पुरुष अग्रमहिषियाँ, राजमन्त्रियों की पुत्रियाँ, वेश्याएँ आदि संस्कृत तथा साधारणतया स्त्रियाँ, विदूषक, श्रेष्ठी, नौकर-चाकर आदि निम्नवर्गीय पात्र प्राकृत में बातचीत करते हैं। इससे संस्कृत और प्राकृत-नाटकों की भाषिकी मिश्रणगत उभयनिष्ठता पर आधृत उस सांस्कृतिक चेतना की सूचना मिलती है जिसका पारस्परिक आदान-प्रदान उक्त दोनों भाषाओं के नाटकों में होता रहा है। इसलिए संस्कृत-नाटकों के तत्त्व की सही जानकारी की प्राप्ति प्राकृत-नाटकों के अनुशीलन से ही सम्भव है। नाट्यशास्त्र के सत्रहवें अध्याय में आचार्य भरत ने कहा है- नाटकों में चार प्रकार की भाषाएँ प्रयुक्त होती है जो संस्कृत और प्राकृतमय होती हैं।
भाषाचतुर्विथा ज्ञेया दशरूपे प्रयोगतः।
संस्कृतं प्राकृतं चैव यत्र पाठ्यं प्रयुज्यते।।१२ अतिभाषा, आर्यभाषा, जातिभाषा और न्योन्यन्तरी भाषा ये चार प्रकार की भाषाएँ हैं
और नाटकों में इनका प्रयोग विभिन्न स्थलों में होता है। प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में सबसे प्राचीन प्राकृत प्रकाश के प्रणेता वररुचि ने महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची आदि भेदों का वर्णन किया है। महाराष्ट्री सबसे उत्तम प्राकृत के रूप में गिनी जाती थी। महाकवि दण्डी अपने काव्यादर्श में लिखते हैं कि 'महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः१३ अर्थात् कवि लोग महाराष्ट्र देश में प्रचलित महाराष्ट्री प्राकृत को सबसे उत्तम मानते थे। प्राकृत