Book Title: Sramana 2015 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 25
________________ 18 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 बतलाया गया है। आचार्य विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस इसी परम्परा की सम्पोषक नाट्यकृति है जिसका प्राकृत प्रयोगों की दृष्टि से सार्थकता बताने का प्रयास किया गया है। मुद्राराक्षस संस्कृत नाटकों में सर्वथा अनुपम एवं अपूर्व नाटक है। विशाखदत्त नाट्यशास्त्र के ज्ञाता होने के बावजूद भी एक नवीन परम्परा के जन्मदाता सिद्ध हुए हैं। विशाखदत्त की संस्कृत भाषा में विशिष्ट पद रचना की शक्तिमत्ता एवं सुस्पष्टता सर्वथा प्रशंसनीय है। विशाखदत्त की भाषा सिद्ध करती है कि विशाखदत्त एक उच्च कोटि के कलाकार थे। इनके नाटक की संस्कृत भाषा सरस तथा परिमित उपमाओं से युक्त है। परवर्ती नाटकारों में एकमात्र यही नाटककार हैं जिन्होंने अपनी रचना को नाटक समझकर लिखा है अर्थात् इनकी रचना रंगमंचीय है। दृश्यकाव्य का अधिकांश लक्षण इनके नाटक में विद्यमान है। मुद्राराक्षस में कवि ने अपनी बहुलता का परिचय देते हुए राजशास्त्र, ज्योतिष, दर्शनशास्त्र, न्यायशास्त्र आदि की पारिभाषिक पदावली का प्रयोग किया है। उनकी भाषा समासबहुला है। रौद्र एवं वीररसपूर्ण वर्णनों में समासप्रधान भाषा और संयुक्त वर्गों के संयोजन में कवि ने अपने कथन में ओजस्विता उत्पन्न की है। पदावली रसानुरूपिणी है। उन्होंने उपमा, रूपक, श्लेष, अर्थान्तरन्यास, अप्रस्तुतप्रशंसा तथा समासोक्ति आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है। विशाखदत्त ने अलंकारों का प्रयोग भावोत्कर्ष के लिए किया है। छन्दों में शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा छन्दों की प्रधानता है। वसन्ततिलका, शिखरिणी, प्रहर्षणी, अनुष्टुप, माल्यभारिणी, पुष्पिताया, सुवदना और आर्या आदि छन्दों का भी प्रयोग किया है। मुद्राराक्षस की संस्कृत परम्परा-प्रतिष्ठित है। गद्य और पद्य दोनों में ही विशाखदत्त ने समास एवं आडम्बरयुक्त कोमल सरस एवं औचित्यपूर्ण पदावली का प्रयोग किया है। नाटककार का शब्दविन्यास ओजमय एवं कौतूहलपूर्ण है। कवि की भाषा में भावुकता के स्थान पर प्रभविष्णुता अपेक्षाकृत अधिक है। विशाखदत्त की संस्कृत भाषा में ओजोमय गद्य का विशेषतः समावेश हुआ है। किन्तु विभिन्न स्थानों पर उनकी भाषा में काव्य का लालित्यमय प्रवाह दृष्टिगोचर होता है। यथा - आस्वादितद्विरदशोणितशोणशोभां संध्यारुणामिव कलां शशलांछनस्य। जृम्भाविदारितमुखस्य मुखात्स्फुरन्ती को हर्तुमिच्छति हरेः परिभूय दंष्ट्राम् ।।

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