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श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४
जुलाई-दिसम्बर २००६
आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन
डा० फूलचन्द जैन 'प्रेमी*
उपदेशपद प्राकृत भाषा का धर्मोपदेश कथा प्रधान वह महान् ग्रन्थ है, जिसका अनेक दृष्टियों से अध्ययन आवश्यक है। इसके विशद् अध्ययन के आधार पर महत्त्वपूर्ण शोध-प्रबन्ध लिखे जाने योग्य है। मैंने अपने इस निबन्ध में उपदेश पद का संक्षिप्त अध्ययन कर इसमें व्यक्त आचार्य हरिभद्र के विचारों को उनके द्वारा प्रस्तुत कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
वस्तुत: प्राकृत भाषा भारत की प्राचीनतम उन भाषाओं में से एक है जिसे अनेक भाषाओं की जननी होने का गौरव प्राप्त है। यह वह भाषा है, जिसके साहित्य में जीवन की समस्त भावनायें व्यंजित हुई हैं। भारतीय शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता, समाज, धर्म एवं अध्यात्म आदि का यथार्थ ज्ञान-प्राप्त करने के लिए प्राकृत-साहित्य का अध्ययन बहुत आवश्यक है। प्राकृत भाषा और साहित्य तो जैन धर्म का प्राण है। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने आचार, विचार, व्यवहार, सिद्धान्त एवं अध्यात्म को सरल रूप में समझाने एवं तद्नुकूल जीवन ढालने की दृष्टि से प्राकृत भाषा में उपदेश प्रधान धर्मकथा विषयक साहित्य का प्रणयन किया और नैतिक उपदेश, मर्मस्पर्शी कथन एवं लोकपक्ष का उद्घाटन करते समय सरल, स्निग्ध तथा मनोरम शैली का उपयोग किया।
उपदेश प्रधान कथा-साहित्य की समृद्ध एवं गौरवपूर्ण परम्परा है। धर्मदास गणि विरचित उपदेशमाला, हरिभद्रसूरि का उपदेशपद, जयसिंहसूरि का धर्मोपदेशमाला-विवरण, जयकीर्ति का शीलोपदेशमाला, मलधारी हेमचंद्रसूरि की भवभावना तथा उपदेशमाला प्रकरण, जिनचन्द्रसूरि की संवेगरंगशाला, साहड कृत विवेकमञ्जरी, मुनिसुन्दरसूरि कृत उपदेशरत्नाकर, तथा शुभवर्धनगणि कृत वर्धमान-देशना आदि प्रमुख ग्रन्थ उपदेश प्रधान कथाओं के अनुपम संग्रह हैं।
* * प्रोफेसर एवं अध्यक्ष जैनदर्शन विभाग, श्रमणविद्या संकाय, सम्पूर्णानन्द संस्कृत
विश्वविद्यालय, वाराणसी।
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