________________
१० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ का चमत्कारी विनिवेश उपलब्ध होता है। सच पूछिए तो, प्राकृत-महाकवियों की काव्यभाषा ही अपने विनियोग-वैशिष्ट्य से ध्वन्यात्मक बन गई है। चमत्कारी अर्थाभिव्यक्ति के कारण प्राकृत के प्रायः सभी महाकाव्य ध्वनिकाव्य में परिगणनीय हैं। विशेषतया 'सेतुबन्ध' और द्वयाश्रय-महाकाव्य 'कुमारवालचरिय' ध्वनितत्त्व के अनुशीलन और परिशीलन की दृष्टि से उपादेय आकर-ग्रन्थ हैं।
वस्तुतः, प्राचीन शास्त्रीय प्राकृत-महाकव्यों में प्रतिपादित ध्वनि-तत्त्व का अध्ययन एक स्वतंत्र शोध-प्रबन्ध का विषय है। इस निबन्ध में तो प्राकृत के प्रमुख शास्त्रीय महाकाव्यों में प्राप्य ध्वनि-तत्त्व की इंगिति-मात्र प्रस्तुत की गई
सन्दर्भ-संकेत १. (क) अर्थः सहृदयश्लाघ्य: काव्यात्मा यो व्यवस्थितः।
- ध्वन्यालोक, उद्योत १, कारिका २ (ख) यत्रार्थ: शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थी। व्यक्तः काव्यविशेष: स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः।।
तत्रैव, कारिका १३ २. प्रथमे हि विद्वांसो वैयाकरणा: व्याकरणमूलत्वात् सर्वविद्यानाम्।
तेषु च श्रूयमाणेषु वर्णेषु ध्वनिरिति व्यवहरन्ति।। -तत्रैव ३. य: संयोगवियोगाभ्यां करणैरुपजायते। -तत्रैव स स्फोट: शब्दज: शब्दो ध्वनिरित्युच्यते बुधैः।।
- वाक्यपदीय, प्रथम काण्ड ४. स्फोटस्य ग्रहणे हेतुः प्राकृतो ध्वनिरिष्यते ।।
शब्दस्योर्ध्वमभिव्यक्तेर्वृतिभेदे तु वैकृताः।
ध्वनय: समुपोहन्ते स्फोटात्मा तैर्न भिद्यते।।-तत्रैव ५. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य: 'ध्वन्यालोक' द्वितीय उद्योत तथा 'साहित्यदर्पण',
चतुर्थ परिच्छेद।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org