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प्राकृतिक-महाकाव्यों में ध्वनि-तत्त्व : ९
अर्थात्, बहुलादित्य के प्रिय बान्धवों ने ब्रह्मा के चारों मुखों से निकले चारों वेदों को उसके एक ही मुख में स्थित होने से अपने को कृतार्थ समझा।
यहाँ ब्रह्मा के चार मुखों से निकले चारों वेदों की बहुलादित्य के एक ही मुख में अवस्थिति-रूप व्यतिरेक अलंकार से उस वेदज्ञ की प्रकाण्ड विद्वत्तारूप वस्तु ध्वनित है।
ध्वनियों के संकर और संसृष्टि का भी प्राकृत-महाकाव्यों में प्राचुर्य है। जब एक ध्वनि में अन्य ध्वनियाँ नीर में क्षीर की भाँति मिल जाती हैं, तब ध्वनिसंकर होता है और जब तिल और तण्डुल की भाँति मलती हैं, तब ध्वनिसंसृष्टि होती है। ध्वनि-संसष्टि का एक उदाहरण द्रष्टव्य है:
अणकढिअ-दुद्ध-सुइ-जस-पयाव-घम्मट्टिआरि-जस-कुसुम। तुह गंठिअ-चूहेण विरोलिओ तस्स पुर-जलही।।।
(कुमारवालचरियः ६.८१) इस गाथा में दशार्णपति-विजय के बाद प्रतापी राजा कुमारपाल की सेनाओं द्वारा उसकी नगरी को लूट लिये जाने का वर्णन हुआ है।
यहाँ, (क) कीर्ति का अमथित दूध के समान श्वेत होना-रूप कविप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु से राजा के निष्कलंक गुणों से मण्डित व्यक्तित्व-रूप वस्तु की ध्वनि है। गौणी लक्षणा से इसका ध्वन्यर्थ होगा कि राजा के आचार और विचार सर्वतोविशुद्ध हैं। पुनः (ख) अचेतन तेज और प्रताप की उष्णता से अचेतन कीर्ति-पुष्प का मुरझाना (पयाव-धम्मट्ठिआरि-जस-कुसुम) सम्भव नहीं। यहाँ मुख्यार्थ बाधित है। गौणी लक्षणा से इसका ध्वन्यर्थ होगा - कुमारपाल के रोब-रूआब के सामने दशार्ण-नरेश का रोब-रूआब बहुत घटकर है। और फिर (ग) नगर के समुद्र (पुर-जलही) होने में मुख्यार्थ की बाधा है। इसका गौणी लक्षणा से अर्थ होगा दशार्णनृपति का नगर वहाँ के अतिशय धनाढ्य नागरिकों द्वारा संचित मणि-रत्नों से परिपूर्ण है, इसलिए वह नगर रत्नाकर या समुद्र के समान है, यही ध्वनि है। चूंकि इस वर्णन में महाकवि द्वारा आयोजित सभी ध्वनियाँ स्वतंत्र हैं, इसलिए ध्वनियों की संसृष्टि हुई है।
अन्त में यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि प्राकृत के महाकवियों ने अपने उत्तम महाकाव्यों में ध्वनि-तत्त्व को आग्रहपूर्वक प्रतिष्ठित किया है। इसके लिए उन्होंने जिस काव्यभाषा को अपनाया है, उसमें पदे-पदे अर्थध्वनि और भावध्वनि
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