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प्राकृतिक-महाकाव्यों में ध्वनि-तत्त्व : ७
की मनोज्ञ आँखें हिरण की आँखों की तरह आयत एवं चंचल या फिर मदालस होने के कारण दर्शनीय हैं और 'मयच्छि' में व्यंजना के गर्भित होने के कारण यह पदगत श्लेष की अलंकार - ध्वनि का भी उदाहरण है।
आचार्य हेमचन्द्र द्वारा उपस्थापित संलक्ष्यक्रमरसध्वनि का एक निदर्शन दर्शनीय है :
जमुण
गमेप्पि
गम्पि सरस्सइ
लोड अजाणउ जं
किं नीरई
'tr
नं
गमेष्पिणु
गम्पिणु
पसु
जन्हवि
नम्मद ।
जलि
बुडइ
सिव- सम्मद ||
(तत्रैव, ८.८०)
अर्थात् गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा आदि नदियों में स्नान करने से यदि शुद्धि हो, तो महिष आदि पशुओं की भी शुद्धि हो जानी चाहिए; क्योंकि वे भी इन नदियों में डुबकी लगाते ही रहते हैं। जो लोग अज्ञानतापूर्वक इन नदियों में स्नान तो करते हैं, पर अपने आचार-विचार को शुद्ध नहीं करते, उन्हें कुछ भी लाभ नहीं हो सकता ।
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प्रस्तुत प्रसंग में महाकवि की काव्यभाषिक उक्ति में व्यंग्यरूप से शान्तरस प्रतीति होती है। और फिर, स्नान के बाद मुक्ति का क्रम भी यहाँ लक्षित हो रहा है, साथ ही वाच्यार्थबोधपूर्वक ध्वनिरूप में पुनः शान्तरस भी अभिव्यंजित
है।
नवी - दशवीं शती के प्रख्यात महाकवि कोऊहल ने अपने रोमानी अथवा कल्पनाप्रधान 'लीलावई' महाकाव्य में ध्वनि-तत्त्व के अनेक अनुशीलनीय आयामों की उपस्थापना की है। युद्धवीर राजा सातवाहन की प्रशस्ति में लिखित निम्नांकित गाथा में महाकवि द्वारा विनियुक्त अभिधामूलक विवक्षितान्यपरवाच्यरसध्वनि की मनोरमता अतिशय मोहक है:
णिय-तेय - पसाहिय - मंडलस्स ससिणो व्व जस्स लोएण ।
अक्कंत - जयस्स जए पट्टी न परे हि सच्चविया । ।
(लीलावई : गाथा - सं०६९)
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