Book Title: Sramana 2006 07
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 13
________________ ६ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ ___द्वयाश्रय महाकाव्य ‘कुमारवालचरियं' तो सविशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ आचार्य महाकवि के द्वारा प्रस्तुत वाक्यगत कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध अलंकार से अलंकारध्वनि का एक उदाहरण विन्यस्त है: जस्सिं सकलंकं वि हु रयणी- रमणं कुणंति अकलंक। संखघर-संख-भंगोज्जलाओ भवणंसु-भंगीओ।। (सर्ग १: गाथा-सं.१६) अर्थात् राजा कुमारपाल की राजधानी अणहिलपुर के भवनों में जड़े हुए रत्नों की कान्ति सकलंक चन्द्र को भी निष्कलंक बनाती है। यहाँ वाक्यगत वर्णन में उपमान चन्द्र की अपेक्षा उपमेय रत्नकान्ति को श्रेष्ठ बतानेवाले व्यतिरेक अलंकार के माध्यम से अणहिलपुर की समृद्धि का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन रूप अतिशयोक्ति अलंकार ध्वनित है। साथ ही, सकलंक चन्द्र को निष्कलंक बनाने की बात कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध वस्तु है। आचार्य महाकवि द्वारा आयोजित पदगत. अत्यन्त-तिरस्कृत या अविवक्षितवाच्य ध्वनि का हृदयावर्जक उदाहरण निम्नांकित गाथा में दर्शनीय है: जत्थ भवणाण अवरिं देव-नागेहिं विम्हया दिट्ठो। रमइ मणोसिलगोरो मणसिललित्तो मयच्छिजणो।। (सर्ग १: गाथा-सं.१३) यहाँ कवि के वक्तव्य का आशय यह है कि अणहिलनगर के गगनचुम्बी भवनों के ऊपर क्रीडारत देवांगना-स्वरूप चपलनयना सुन्दरियों या राजवधुओं को आकाशचारी देव और नागकुमार विस्मयान्वित होकर देख रहे थे। सुन्दरियाँ मैनसिल धातु की तरह गोरी थीं और उनका गोरा शरीर मैनसिल के विलेपन से युक्त था। इस प्रसंग में महाकवि द्वारा प्रयुक्त 'मयच्छिजणो' ('मृगाक्षिजनः' अथवा 'मदाक्षिाजनः') शब्द या पद में अध्यवसित उपमेय-रूप चंचल या मदविह्वल आँखों का झटिति बोध हो जाता है। 'मयच्छि' शब्द या पद अपना मुख्य अर्थ छोड़कर हरिण की तरह चंचल या मद से घूर्णमान आँख का अर्थ देने से जहत्स्वार्था लक्षणा है। यहां अत्यन्ततिरस्कृत वाच्य से यह ध्वनि यह निकलती है कि सुन्दरियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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