Book Title: Sramana 2002 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 29
________________ २४ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ उपदेशपद जैसे महान् ग्रन्थ के माध्यम से अनेक विषयों के साथ ही अनेक लघुकथाएँ लिखकर आचार्य हरिभद्रसूरि ने प्राकृत कथा-साहित्य की श्रीवृद्धि में योग दिया है। उपदेशपद धर्मकथा अनुयोग के अन्तर्गत प्राकृत आर्या छन्द की १०४० गाथाओं में रचित एक अतिमहत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। टीका ग्रन्थ उपदेशपद का ऐसा लोकप्रिय एवं शिक्षाप्रद कथा ग्रन्थ है जिससे आकृष्ट हो अनेक आचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं। १. सुखसम्बोधिनीटीका उपदेशपद पर सबसे अधिक लोकप्रिय टीका तार्किक शिरोमणि आचार्य मुनिचन्द्रसूरि द्वारा रचित सुखसम्बोधिनी टीका है। १४५०० (साढ़े चौदह हजार) श्लोक प्रमाण यह बृहद्काय टीका जैन महाराष्ट्री प्राकृत एवं संस्कृत-भाषा में पद्य तथा गद्य रूप में है जो कि अनेक दृष्टान्तों, आख्यानों, सुभाषितों एवं सूक्तियों से भरपूर है। इसमें अनेक सुभाषित अपभ्रंश-भाषा में भी हैं। इस टीका की रचना विक्रम संवत् ११७४ में 'अणहिल्लपाटक' नामक नगर में मुनिचन्द्रसूरि ने की। इन्होंने उपदेशपद में सांकेतिक तथा पूर्णकथाओं को प्राकृत-भाषा में तथा कहीं-कहीं प्राकृत शब्दों का संस्कृत अर्थ रूप में सन्दर्भ जोड़कर पर्याप्त विस्तार किया है। मुनिचन्द्रसूरि यशोभद्रसूरि के शिष्य तथा वादिदेवसूरि (स्याद्वादरत्नाकर के कर्ता) एवं अजितदेवसरि के गुरु थे। आनन्दसरि तथा चन्द्रप्रभसूरि इनके गुरु भाई थे। मुनिचन्द्रसूरि उच्चकोटि के विद्वान् थे। उपदेशपद पर सुखसम्बोधिनी टीका के अतिरिक्त इन्होंने अनेक मौलिक एवं टीका ग्रन्थों की रचना की है। छोटे-बड़े कुल मिलाकर इन्होंने ३१ ग्रन्थ रचे। मौलिक ग्रन्थों में प्रमुख हैं-- अंगुलसप्तति, वनस्पतिसप्तति, आवश्यकसप्तति, गाथाकोश, उपदेशामृतकुलक, हितोपदेशकुलक, सम्यकत्वोपादविधि, तीर्थमालास्तव आदि प्रमुख हैं। टीका ग्रन्थों में प्रमुख हैंललितविस्तरापञ्जिका, अनेकान्तजयपताकाटिप्पनकम्, धर्मबिन्दुविवृत्ति, योगबिन्दुविवृत्ति, कर्मप्रकृति विशेषवृत्ति, सार्धशतकचूर्णि एवं उपदेशपदसुखसम्बोधिनीवृत्ति। उपदेशपद पर इस वृत्ति की रचना में लेखक के शिष्य रामचन्द्रगणि ने भी सहायता की। २. मुनिचन्द्रसूरि की उपर्युक्त टीका के प्रारम्भिक भाग से ज्ञात होता है कि उपदेशपद पर सर्वप्रथम पूर्वाचार्य द्वारा लिखित कोई गहन टीका थी, किन्तु कालप्रभाव से अल्पबुद्धि वाले उसे स्पष्ट समझने में समर्थ नहीं थे अत: सुखसम्बोधिनी नामक इस सरल वृत्ति को बनाने का प्रयत्न किया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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