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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप : ९५
नहीं हुआ। अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा-व्यवस्था आज भी उसी प्रकार से प्रचलित है। उसके परिणामस्वरूप आज का विद्यार्थी दिशा - विहीन तथा बिना पतवार की नौका के समान भटकता दिखायी दे रहा है। शिक्षा क्षेत्र में चारों ओर अराजकता फैल गयी है। अनुशासनहीनता व्यापक रूप में फैल गयी है और उसका घातक प्रभाव हमारे सम्पूर्ण राजनैतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में भी फैला है। प्रसिद्ध चिन्तक डॉ० नेमिचन्द जैन
ठीक ही कहा है कि "आज देश के पास सब कुछ है, सिर्फ एक निष्कलंक, निष्काम और देशभक्त चरित्र नहीं है।" इस भयावह परिस्थिति का सबसे बड़ा कारण है- हमारी दिशा - विहीन दोषपूर्ण शिक्षा नीति । अतएव आवश्यकता है कि भारतीय जीवन मूल्यों को शिक्षा प्रणाली में अन्तर्भूत किया जाय। भारतीय अध्यात्म एवं पश्चिमी विज्ञान का समन्वय हमारे शिक्षा क्षेत्र में क्रान्ति लायेगा तथा उसका अनुकूल प्रभाव हमारे सारे राष्ट्रीय जीवन पर पड़ेगा । संविधान में " धर्मनिरपेक्षता” को हमारी नीति का एक अंग माना गया है। " धर्मनिरपेक्षता' शब्द ही भ्रामक है, क्योंकि भारतीय परम्परा के अनुसार हम 'धर्म' से निरपेक्ष नहीं रह सकते। धर्मनिरपेक्ष का अर्थमात्र इतना ही हो कि राज्य किसी विशेष धर्म का प्रचार नहीं करे, तब तक तो ठीक है, लेकिन इसका अर्थ धर्म से विमुख हो जाना कदापि नहीं है। हमारे देश में प्राचीनकाल से ही तीन धर्मों की धाराएँ मुख्य रूप से बहती रही हैं - वैदिक धर्म, जैनधर्म और बौद्धधर्म। बाद में सिक्खधर्म भी प्रारम्भ हुआ। इन चारों धाराओं ने कुछ ऐसे नैतिक व आध्यात्मिक मूल्य स्थापित किये, जिन्हें सनातन जीवन-मूल्य कह सकते हैं और वे प्रत्येक मानव पर लागू होते हैं। उनका हमारी शिक्षा प्रणाली में विनियोजन अत्यावश्यक है।
जैनागमों में शिक्षा
जैनागमों में शिक्षा एवं ज्ञान के बारे में विस्तृत चर्चाएँ मिलती हैं। वहाँ पर आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों प्रकार की शिक्षाओं का विवेचन एवं दिशा-निर्देश मिलता है। हमें अध्यात्म-विद्या एवं आजीविका की विद्या दोनों की आवश्यकता है। आगम में शिक्षा अथवा ज्ञान प्राप्ति के तीन उद्देश्य बताये गये -
" जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे । । "४
अर्थात् जिन शासन में उसी को ज्ञान कहा गया है जिससे तत्त्वों का बोध होता है, जिससे चित्त का निरोध होता है तथा जिससे आत्मा विशुद्ध होती है। यह आध्यात्मिक शिक्षा का स्वरूप है । दशवैकालिकसूत्र में शिक्षा के चार उद्देश्य बताये गये१. मुझे श्रुतज्ञान (आगम का ज्ञान ) प्राप्त होगा, अतः मुझे अध्ययन करना चाहिए।
२.
मैं एकाग्रचित्त होऊँगा, अतः अध्ययन करना चाहिए।
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