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श्रमण / जुलाई-दिसम्बर २००२
मैं अपने आप को धर्म में स्थिर बनाऊँगा, इसलिए मुझे अध्ययन करना चाहिए। मैं स्वयं धर्म स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थिर बनाऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए | "
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इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य मात्र अक्षर ज्ञान नहीं माना गया। शिक्षा द्वारा चित्त की एकाग्रता एवं बुद्धि की स्थिरता प्राप्त होनी चाहिए तथा शिक्षार्थी धर्म के जीवन-मूल्यों को अपनाने के योग्य बने। एकाग्रता के बिना व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता। एक व्यक्ति शिक्षित हो पर मानसिक एकाग्रता से शून्य हो, उसे शिक्षा की विडम्बना ही कहना चाहिए। इसी बात को स्वामी विवेकानन्द ने कहा"हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का निर्माण हो, मानसिक बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके।”६ यही भारतीय संस्कृति का उद्घोष हैं, जो सनातन काल से चला आ रहा है। उपनिषद् में कहा है- “या विद्या सा विमुक्तये" अर्थात् विद्या वही है जो हमें विमुक्त करती है। विद्या किस चीज से विमुक्त करती है ? तो कहा गया कि हममें जो दुःख की स्थिति है, आकुलता और व्याकुलता है, तनाव की स्थिति है, ये चाहे शारीरिक स्तर पर हो या मानसिक स्तर पर उनसे मुक्ति का साधन विद्या ही है।
प्राचीनकाल में विद्या के दो भेद कहे गये- विद्या और अविद्या अविद्या का अर्थ अज्ञान नहीं है, अविद्या का अर्थ है- भौतिक ज्ञान और विद्या का अर्थ है- आध्यात्मिक ज्ञान। जिस प्रकार से एक स्कूटर दो पहियों के बिना नहीं चल सकता है, वैसे ही विद्या और अविद्या दोनों का सामञ्जस्य नहीं हो तो जीवन की गाड़ी भी नहीं चलती । इस प्रकार हमारे देश के आचार्यों ने शिक्षा के सही संस्कारों का सारे देश में प्रचार-प्रसार किया। ये संस्कार हमारे राष्ट्र की सम्पदा हैं, अनमोल धरोहर हैं। हमारे देश में भौतिक ज्ञान की अवहेलना नहीं की गयी; किन्तु उसके साथ आध्यात्मिक ज्ञान को अपनाने पर अधिक जोर दिया गया। जैन आचार्यों ने शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए अध्यात्म विद्या को महाविद्या की संज्ञा प्रदान की। ऋषिभाषितसूत्र में आया हैइमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण उत्तमा । जं विज्जं साहइत्ताणं, सव्वदुक्खाण मुच्चती ।। जेण बन्धं च मोक्खं च, जीवाणं गतिरागतिं । आयाभावं च जाणाति, सा विज्जाया दुक्खमोयणी ।।'
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अर्थात् वही विद्या महाविद्या है और सभी विद्याओं में उत्तम है, जिसकी साधना
करने से समस्त दुःखों से मुक्ति प्राप्त होती है। जिस विद्या से बन्ध और मोक्ष का, जीवों की गति और अगति का ज्ञान होता है तथा जिससे आत्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार होता है, वही विद्या सम्पूर्ण दुःखों को दूर करने वाली है।
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