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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप :
ज्ञान और चारित्र
जैन आगमों में आचार्य, उपाध्याय एवं श्रमण / श्रमणियों को विद्या प्रदान करने का अधिकार दिया गया। आचार्य श्रुत ज्ञान के प्रकाशक होते हैं। कहा हैजह दीवा दीवसमं, पईप्पए सो य दीप्पए दीवो । दीवसमा आयरिया, दिप्पंति अप्पं च परं च दीवंति । । '
अर्थात् जैसे एक दीपक से सैकड़ों दीपक जल उठते हैं और वह स्वयं भी जलता रहता है, वैसे ही आचार्य होते हैं, वे स्वयं प्रकाशमान रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते रहते हैं। बोधपाहुड़ में कहा गया है कि आचार्य वे हैं, जो कर्म को क्षय करने वाली शुद्ध दीक्षा और शुद्ध शिक्षा देते हैं। "
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जैनधर्म में श्रावक-श्राविकाओं को भी श्रुतज्ञान प्राप्त करने को कहा गया । श्रुत ज्ञान दो प्रकार से प्राप्त होता है- आचार्यों, उपाध्यायों या श्रमणों द्वारा अथवा अपने स्वयं की प्रेरणा द्वारा। लेकिन उस ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं, जो आचार में परिणत नहीं हो। आचार्य उमास्वाति ने कहा
" सम्यग्दर्शन- ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । ९०
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों की सम्मिलित आराधना द्वारा मोक्ष का मार्ग उपलब्ध होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं । । ११ अर्थात् सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चारित्रगुण निष्पन्न नहीं होता । चारित्रगुण के बिना मोक्ष (कर्मक्षय) नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण - परमशान्ति का लाभ नहीं होता। इसी बात को एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझाया गया है—
हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया।
पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो या अंधओ ।।
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अर्थात् क्रियाविहीन का ज्ञान व्यर्थ है। अज्ञानी की क्रिया व्यर्थ है। जैसे एक पंगु वन में लगी हुई आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है और अन्धा व्यक्ति दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है। आगे भी कहा गया कि "संजोगसिद्धीइ फलं वयंति१३ अर्थात् ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है।
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