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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप : १०१
अभिन्न अंग है। भगवान् महावीर ने कहा कि स्वाध्याय महान् तप है। बारह प्रकार के आन्तरिक व बाह्य तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है और न होगा। उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान् से पूछा गया- 'हे भगवान् स्वाध्याय करने से जीव किस बात का लाभ प्राप्त करता है ?" भगवान् ने उत्तर दिया
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"सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ । '
अर्थात् स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय (ज्ञान को रोकने वाले) कर्मों का नाश करता है।
भगवतीसूत्र में प्रभु महावीर ने बतलाया कि सही प्रकार से स्वाध्याय करने से मनुष्य अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात् परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। वह कथन निम्न है -
सवणे नाणे य विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे । अणण्ये तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी । । ३०
अर्थात् धर्म-श्रवण ( स्वाध्याय) से निम्न लाभ प्राप्त होते हैं
१. ज्ञान, २. विशिष्ट तत्त्व-बोध, ३. प्रत्याख्यान (सांसारिक पदार्थों से विरक्ति), ४. संयम, ५. अनास्रव (नवीन कर्मों का निरोध), ६. तप, ७. पूर्वबद्ध कर्मों का नाश, ८. सर्वथा कर्मरहित स्थिति व ९ सिद्धि (मुक्त स्थिति)
इससे ज्ञात होता है कि जीवन की साधना में स्वाध्याय का स्थान सर्वोपरि है। स्वाध्याय के अंग
जैनशास्त्रों में स्वाध्याय के बारे में विशद विवेचन मिलता है। प्राचीन काल में जब पुस्तकों का प्रचलन नहीं था तब भी स्वाध्याय किया जाता था। उस समय ज्ञान को कण्ठस्थ रखने का प्रचलन था। शिष्य गुरुजनों से शास्त्र श्रवण कर उन्हें अपनी स्मृति में संजोकर रखते थे। वेदों को "श्रुति" और आगम को "श्रुत" कहा गया यह इसी तथ्य का सूचक है। जैन आचार्यों ने स्वाध्याय के निम्न पाँच अंगों का विस्तृत विवेचन किया है
१९. वाचना— स्वाध्याय का पहला प्रकार वाचना है । गुरुजनों से ज्ञान ग्रहण करना, उनके प्रवचन सुनना 'वाचना' कहलाता है। बड़े-बड़े ज्ञानियों ने जो ज्ञान पुस्तकों में लिपिबद्ध किया है, उसे पढ़ना भी वाचना कहलाता है। पढ़ना और किसी से सद्वचन सुनना, यह दोनों वाचना के अन्तर्गत आता है।
२. पृच्छना - पढ़े या सुने हुए ज्ञान के बारे में कोई शंका हो या उसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो तो उसके बारे में जिज्ञासावृत्ति से प्रश्न पूछना ताकि विषय स्पष्ट हो जाये
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