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श्रमण SRAMANA
जुलाई-दिसम्बर २००२
पार्श्वनाथ
वाराणसी
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी PĀRŚWANĀTHA VIDYĀPĪTHA, VARANASI
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श्रमण
ŚRAMAŅA
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जुलाई-दिसम्बर २००२
वाराणसी
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सम्वरमगवं
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी PĀRŚWANĀTHA VIDYĀPĪTHA, VARANASI
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अमपा |पार्श्वनाथ विद्यापीठ की त्रैमासिक शोध-पत्रिका वर्ष ५३, अंक ७-१२, जुलाई-दिसम्बर २००२ संयुक्तांक
प्रधान-सम्पादक प्रो० सागरमल जैन
सम्पादक डॉ० शिवप्रसाद
प्रकाशक . पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. मार्ग, करौंदी
पो.ऑ. -- बी. एच.यू.
वाराणसी-२२१००५ (उ.प्र.) e-mail : parshwanathvidyapeeth@rediffmail.com दूरभाष : ०५४२-२५७५५२१, २५७००४६
ISSN-0972-1002
वर्षिक सदस्यता शुल्क संस्थाओं के लिए : रु. १५०.०० व्यक्तियों के लिए : रु. १००.०० इस अंक का मूल्य : रु. ५०.००
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नोट : सदस्यता शुल्क का चेक या ड्राफ्ट केवल पार्श्वनाथ विद्यापीठ के नाम ही भेजे।
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सम्पादकीय
श्रमण जुलाई-दिसम्बर २००२ का संयुक्तांक पाठकों के समक्ष उपस्थित करते हुए हमें सन्तोष एवं हर्ष का अनुभव हो रहा है। अपरिहार्य कारणों से वर्ष २००२ के प्रथम और द्वितीय अंक जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक के रूप में हम दिसम्बर माह में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर सके। उसके बाद हमारा यही प्रयास रहा कि २००२ के शेष दो अंक भी हम पाठकों को अतिशीघ्र प्रेषित कर सकें और परिणामस्वरूप श्रमण का यह अंक जुलाई-दिसम्बर २००२ आपके समक्ष प्रस्तुत है। श्रमण के इस अंक में जैन साहित्य, दर्शन एवं इतिहास से सम्बन्धित १५ आलेख प्रकाशित हैं। हमारा यही प्रयास रहता है कि उक्त विषयों पर लिखे गये प्रामाणिक एवं विवादरहित आलेख ही श्रमण में प्रकाशित हों। हम अपने प्रयास में कहाँ तक सफल हुए हैं यह निर्णय पाठक स्वयं करें।
श्रमण का यह अंक आपको कैसा लगा? इस सन्दर्भ में आप अपने सुझावों एवं निष्पक्ष आलोचनाओं से हमें अवश्य अवगत कराने की कृपा करें ताकि इसमें आवश्यक संशोधन/परिमार्जन किया जा सके। सम्माननीय लेखकों से निवेदन है कि श्रमण में प्रकाशनार्थ प्रेषित आलेखों का सन्दर्भ मूलग्रन्थों से मिलान कर ही भेजें। जैन धर्म, दर्शन एवं इतिहास से सम्बन्धित मौलिक एवं अप्रकाशित आलेख श्रमण में प्रकाशनार्थ आमन्त्रित हैं।
सम्पादक
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जुलाई-दिसम्बर2002 संयुक्तांक
सम्पादकीय विषयसूची
हिन्दी खण्ड १. तीर्थडर अरिष्टनेमि
___- डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय . १-११ २. आचार्य हरिभद्र की योग दृष्टियाँ : एक विवेचन
१२-२१
- डॉ० सुधा जैन ३. आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत 'उपदेशपद' : एक अध्ययन
२२-३६
- डॉ० फूलचन्द जैन 'प्रेमी' ४. जैनाचार्यों का छन्द-शास्त्र को अवदान - कु० मधुलिका
३७-५१ ५. 'अग्रवाल' शब्द की प्राचीनता विषयक एक और प्रमाण
५२-५४
- श्री वेदप्रकाश गर्ग अर्बुदमण्डल में जैनधर्म
- डॉ० सोहनलाल पाटनी ५५-६० ७. इतिहास की गौरवपूर्ण विरासत : काँगड़ा के जैन मन्दिर
६१-६२
- श्री महेन्द्र कुमार 'मस्त' अयोध्या से प्राप्त अभिलेख में उल्लिखित नयचन्द्र रम्भामञ्जरी के कर्ता नहीं
- शिवप्रसाद ९. खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीय शाखा का इतिहास - शिवप्रसाद
६५-९३ १०. जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप
- श्री दुलीचन्द जैन
९४-१०५ ११. जैन आगम साहित्य में नरक की मान्यता - डॉ मनीषा सिन्हा । १०६-११० १२. सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं का समाधान : अनेकान्त
१११.११५
- डॉ० हेमलता बोलिया १३, जैन संस्थाएँ एवं समाज में उनका योगदान - डॉ० शैलबाला शर्मा ११६-१२४
अंग्रेजी खण्ड 14. Jaina Kosa Literature
Dr. Ashok Kumar Singh 125-159 १५. विद्यापीठ के प्रांगण में
१६०-१६३ १६. जैन जगत्
१६४-१६७ १७. साहित्य-सत्कार
१६८-१७६
६३-६४
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तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि
डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय
प्रत्येक धर्म में आस्था का केन्द्र उपास्य और आदर्श के रूप में किसी महान् व्यक्तित्व को स्वीकार किया जाता है। ऐसे महनीय व्यक्तित्व को हिन्दू-परम्परा में ईश्वरावतार के रूप में, बौद्ध-परम्परा में बुद्ध के रूप में एवं जैन-परम्परा में तीर्थङ्कर के रूप में स्वीकार किया गया है। तीर्थङ्कर जैन-धर्म और जैन-साधना के प्राण हैं। जैन-धर्म का यह विश्वास है कि प्रत्येक कालचक्र में और प्रत्येक क्षेत्र में एक निश्चित संख्या में क्रमश: तीर्थङ्करों का आविर्भाव होता है और वे धर्म मार्ग का प्रवर्तन करते हैं। जैन-धर्म में २४ तीर्थङ्करों की अवधारणा पायी जाती है जो पर्याप्त प्राचीन है। प्राचीन अंग आगमों में 'तीर्थङ्कर' शब्द का उल्लेख उपलब्ध नहीं है; किन्तु उनमें पाये जाने वाले अरहन्त की अवधारणा से ही तीर्थङ्करों की अवधारणा विकसित हुई है। प्राचीन स्तर के जैन-ग्रन्थों में सबसे पहले उत्तराध्ययनसूत्र के २३वें अध्ययन में महावीर और पार्श्व के विशेषण के रूप में “धर्म तीर्थङ्कर जिन' शब्द प्रयुक्त हुआ है। यदि पुरातात्विक साक्ष्यों को देखें तो पटना जिले के लोहानीपुर से तीर्थङ्कर की मौर्यकालीन प्रतिमा उपलब्ध तो हुई है; किन्तु इसे तीर्थङ्कर की अवधारणा के विकसित स्वरूप का प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि मथुरा के अभिलेखों (ईसा पूर्व प्रथम शती से दूसरी शती) में तीर्थङ्कर के स्थान पर 'अरहत' शब्द का प्रयोग देखा जा सकता है। फिर भी उपलब्ध साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों के आधारों से यह ज्ञात होता है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी पूर्व २४ तीर्थङ्करों की अवधारणा सुनिश्चित हो गयी थी। वर्तमान अवसर्पिणी-काल के २४ तीर्थङ्करों में भगवान् अरिष्टनेमि २२वें तीर्थङ्कर माने गये हैं।' ये २३वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती तथा कृष्ण के समकालिक माने गये हैं।
ऐतिहासिकता- आधुनिक इतिहासकारों ने ऋषभ एवं महावीर के साथ अरिष्टनेमि की ऐतिहासिकता को भी स्वीकार किया है। डॉ० फ्यूरर ने जेनों के २२वें तीर्थङ्कर नेमिनाथ को ऐतिहासिक व्यक्ति माना है। डॉ० प्राणनाथ विद्यालङ्कार ने काठियावाड़ में प्रभासपाटन से प्राप्त एक ताम्रपत्र को पढ़कर बताया है कि वह बाबुल देश के सम्राट नेबुशदनेज़र ने उत्कीर्ण कराया था, जिनके पूर्वज देवानगर के राज्याधिकारी भारतीय थे। सम्राट नेबुशदनेज़र ने भारत में आकर गिरनार पर्वत पर *. वरिष्ठ प्रवक्ता, जैन विद्या विभाग, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.
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श्रमण / जुलाई-दिसम्बर २००२
भगवान् अरिष्टनेमि की वन्दना की थी। इसके अतिरिक्त इतिहासकारों ने कृष्ण को जब ऐतिहासिक पुरुष माना है तो उनके चचेरे भाई अरिष्टनेमि भी ऐतिहासिक पुरुष ही सिद्ध होते हैं।
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ऋग्वेद में चार स्थलों पर 'अरिष्टनेमि' शब्द व्यवहृत हुआ है और ये चारों ही नाम भगवान् अरिष्टनेमि के लिए प्रयुक्त हुए हैं, ऐसा प्रतीत होता है। कुछ विद्वानों का मत है कि उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर वेदों में उल्लिखित अरिष्टनेमि को जैनों का अरिष्टनेमि कहना पूर्णतया ठीक नहीं है। जैन परम्परा अरिष्टनेमि को श्रीकृष्ण का गुरु मानती है। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने छान्दोग्य उपनिषद् में देवकी - पुत्र कृष्ण के गुरु घोर अङ्गीरस के साथ अरिष्टनेमि की साम्यता बताने का प्रयास किया है। " उसका आधार यह माना जाता है कि अङ्गीरस ने कृष्ण को उपदेश देते हुए कहा था कि जब मानव का अन्त निकट हो तो उसे तीन वाक्यों का स्मरण करना चाहिए 'तद्वैतद्द्द्धोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचापिपास एव स वभूव सोऽन्तवेलायामेतत्रयं प्रतिपद्येताक्षितमस्यच्युतमसि प्राणस शितमसीति तत्रैते द्वे ऋचौ भवत: '५ प्रस्तुत कथन की तुलना हम जैन आगम अन्तकृत्दशाङ्ग' में आये हुए भगवान् अरिष्टनेमि के भविष्य के कथन से कर सकते हैं। द्वारिका का विनाश और श्रीकृष्ण की जरत्कुमार के हाथ से मृत्यु होगी यह सुनकर श्रीकृष्ण चिन्तित होते हैं तब उन्हें भगवान् इसी प्रकार का उपदेश सुनाते हैं। धर्मानन्द कौशाम्बी का मत है कि अङ्गीरस भगवान् नेमिनाथ का ही नाम था। ऋग्वेद, यजुर्वेद' और सामवेद" में भगवान् अरिष्टनेमि को तार्क्ष्य अरिष्टनेमि कहा गया है—
१५
ܢ
स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्तिनस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिदधातु । । ११
-
१२
विद्वानों की यह धारणा है कि वेदों में प्रयुक्त अरिष्टनेमि शब्द २२ वें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। महाभारत में भी 'तार्क्ष्य' शब्द का प्रयोग भगवान् अरिष्टनेमि के अपर नाम के रूप में हुआ है। यजुर्वेद १४ में अरिष्टनेमि का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि अध्यात्मयज्ञ को प्रकट करने वाले, संसार के भव्य जीवों को सब प्रकार से यथार्थ उपदेश देने वाले और जिनके उपदेश से जीवों की आत्मा बलवान होती है उन सर्वज्ञ नेमिनाथ के लिए आहुति समर्पित करता हूँ। १५ महाभारत के अनुशासनपर्व, अध्याय १४९ ( पूना संस्करण १३५.५०,८२) में तथा विष्णुसहस्रनाम में दो स्थानों पर 'शूरः शौरिर्जनेश्वरः' पद का उल्लेख हुआ हैअशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः । । ५० ।।
कालनेमिनिहा वीरः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।। ८२ ॥
विद्वानों की मान्यता है कि प्रस्तुत स्थलों पर “शूरः शौरिर्जनेश्वरः " अरिष्टनेमि
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तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि : ३ के लिए प्रयुक्त हुआ है। ध्यान देने योग्य है कि 'शौरि' शब्द का प्रयोग पुराणों में वासुदेव एवं श्रीकृष्ण के लिए भी हुआ है। वर्तमान में आगरा जिले में बटेश्वर के निकट शौरिपुर नामक एक स्थान है जो प्राचीन युग में यादवों की राजधानी थी। जरासन्ध के भय से यादव लोग यहीं से भागकर द्वारिकापुरी में जा बसे थे। शौरिपुर में ही अरिष्टनेमि का जन्म हुआ था। अत: उन्हें शौरि भी कहा गया है। वे जिनेश्वर तो थे ही. अत: अधिक सम्भावना है कि 'शूरः शौरिर्जनेश्वर' शब्द भगवान् अरिष्टनेमि के लिए प्रयुक्त हुआ है। प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ० एस० राधाकृष्णन् ने भी यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थङ्करों का उल्लेख माना है।६ प्रभासपुराण में भी रेवताद्रौ जिनोनेमियुगादि विमलाचले' कहकर अरिष्टनेमि की स्तुति की गयी है। स्कन्दपुराण के प्रभास खण्ड में कुछ श्लोक इस प्रकार हैं
भवस्य पश्चिमे भागे वामनेन तपः कृतम्। तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतांगतः।। पद्मासनः समासीनः श्याममूर्ति दिगम्बरः।
नेमिनाथ शिवोऽथैवं नामचक्रेऽस्य वामनः।। इन श्लोकों के आधार पर पं० कैलाशचन्द शास्त्री लिखते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि नेमिनाथ की श्यामवर्ण पद्मासन रूप जैन मूर्ति को शिव की संज्ञा दे दी गयी है। कैलाशचन्द्र शास्त्री- जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ० १४३.
नन्दीसूत्र में ऋषिभाषित का उल्लेख मिलता है। ऋषिभाषित जैन-परम्परा के आगम-ग्रन्थों में आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ है, इसका सम्भावित रचनाकाल ई०पू० चौथी शताब्दी है। उसमें ४५ प्रत्येक बुद्धों द्वारा निरूपित ४५ अध्ययन हैं उसमें नारद, वज्जियपुत्र, असित देवल, भारद्वाज अङ्गिरस, पुष्पसालपुत्र, वल्कलचीरि आदि बीस प्रत्येकबुद्ध भगवान् अरिष्टनेमि के समय हुए।८ उक्त अध्ययन अरिष्टनेमि के अस्तित्व के स्वयंभूत प्रमाण हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० पी०सी० दीवान के अनुसार नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के बीच में ८४००० वर्ष का अन्तर है। हिन्द पुराणों में इस बात कोई निर्देश नहीं है कि वसुदेव के समुद्रविजय बड़े भाई थे और उनके अरिष्टनेमि नामक कोई पुत्र था।९ कर्नल टॉड ने अरिष्टनेमि के सम्बन्ध में लिखा है 'मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में चार बुद्ध या मेधावी महापुरुष हुए हैं। उनमें पहले आदिनाथ और दूसरे नेमिनाथ थे। नेमिनाथ ही स्केण्डीनेविया निवासियों के प्रथम ओडिन तथा चीनियों के प्रथम देवता थे।२० इन विद्वानों के अतिरिक्त डॉ० नगेन्द्रनाथ बसु, डॉ० फ्यूरर, प्रोफेसर बारनेट, मिस्टर करवा, डॉ० हरिदत्त, डॉ० प्राणनाथ विद्यालङ्कार प्रभृति अन्य अनेक विद्वानों ने अरिष्टनेमि को ऐतिहासिक पुरुष माना है।
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४ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
जन्म- त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, भवभावना, नेमिनाहचरिय तथा कल्पसूत्र की टीकाओं में भगवान् अरिष्टनेमि के नौ भवों का वर्णन मिलता है। हरिवंशपुराण एवं उत्तरपुराण आदि दिगम्बर-ग्रन्थों में पाँच भवों का उल्लेख है। अरिष्टनेमि के जीव ने सर्वप्रथम धनुकुमार के भव में सम्यक् दर्शन प्राप्त किया था। राजीमती के जीव के साथ भी उनका उसी समय से स्नेह सम्बन्ध चला आ रहा था। श्वेताम्बर, दिगम्बर सभी ग्रन्थों के अनुसार अन्तिम भव में भगवान् अरिष्टनेमि का जन्म शौरीपुर में हुआ।२१ यह कुशावर्त जनपद की राजधानी थी। जैन-ग्रन्थों के उल्लेखानुसार राजा शौरि ने अपने लघु भ्राता सुवीर को मथुरा का राज्य देकर कुशावर्त में शौरिपुर नगर बसाया था।२३ सूत्रकृताङ्ग में अनेक नगरों के साथ शौरिपुर का भी उल्लेख हुआ है। वर्तमान में इसकी पहचान आगरा जिले में यमुना नदी के किनारे बटेश्वर के पास आये हुए सूर्यपुर या सूरजपुर से की जाती है।२४
भगवान् अरिष्टनेमि ने जिस समय शौरीपुर में जन्म लिया था उस समय वहाँ द्वैराज्य था।२५ एक ओर वृष्णिकुल के प्रमुख वसुदेव राज्य करते थे। जिनकी दो रानियाँ- रोहिणी और देवकी से क्रमश: बलराम और कृष्ण दो पुत्र थे तो दूसरी ओर अन्धककुल के प्रधान समुद्रविजय राज्य करते थे जिनकी पटरानी का नाम शिवा था। इन्हीं समुद्रविजय और शिवा के पुत्र रूप में भगवान् अरिष्टनेमि का जीव अपराजित महाविमान में बत्तीस सागरोपम का आयुष्य भोग कर वर्षा ऋतु के चतुर्थ मास अर्थात् कार्तिक मास की कृष्णत्रयोदशी को माता शिवादेवी की कुक्षि में आया।२६ आचार्य जिनसेन और गुणभद्र का मन्तव्य है कि कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन भगवान् स्वर्ग से च्युत होकर गर्भ में आए। वर्षा ऋतु के प्रथम मास श्रावण शुक्ला पञ्चमी को ९ माह पूर्ण होने पर चित्रा नक्षत्र के योग में भगवान् अरिष्टनेमि का जन्म हुआ।२७ दिगम्बर-परम्परा के समर्थ आचार्य जिनसेन ने हरिवंशपुराण में वैशाख शुक्ल त्रयोदशी को भगवान् अरिष्टनेमि का जन्म माना है। अरिष्टनेमि का वंश हरिवंश एवं गोत्र गौतम२८ और कुल वृष्णि था।२९ अन्धक और वृष्णि दो भाई थे। वृष्णि अरिष्टनेमि के दादा थे जिनसे वृष्णि कुल का प्रवर्तन हुआ। वृष्णि कुल में प्रधान होने के कारण अरिष्टनेमि को वृष्णिपुङ्गव भी कहा गया है।३° उत्तराध्ययन और दशवैकालिक में उनके कुल के रूप में अन्धकवृष्णि का ही उल्लेख मिलता है जिनके तीन और भाई थे--- रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि। अन्तकृद्दशाङ्गवृत्ति में अरिष्टनेमि के पिता समुद्रविजय के वसुदेव सहित १० भाइयों (दशाह) का उल्लेख है।३१ कृष्ण अरिष्टनेमि के चचेरे भाई थे। ब्राह्मण-परम्परा के ग्रन्थों एवं जैन-ग्रन्थों में भगवान् अरिष्टनेमि का वंश-परिचय इस प्रकार है
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तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि : वैदिक-परम्परा के अनुसार वंश-परिचय
श्राट
अन्धक
स्वफल्क
युधाजित
देवमीढुष वृषि अन्धक
वसुदेव आदि दशार्ह अक्रूर अरिष्टनेमि
श्रीकृष्ण ८ भाई श्वेताम्बर जैन-परम्परा के अनुसार अरिष्टनेमि का वंश-परिचय __ यद
वीर
शौरी
. भोग वृष्णि
अन्धक वृष्णि १. समुद्रविजय २. अक्षोभ
अरिष्टनेमि रथनेमि सत्यनेमि दृढ़नेमि
स्तिमित
-
- सागर हिमवान् अचल धरण
७
७.
पूरण
९.
अभिचन्द्र
१०. वसुदेव
श्रीकृष्ण, बलराम दिगम्बर-परम्परा के हरिवंशपुराण में यद् से नरपति शूर और वीर, सर से अन्धकवृष्णि तथा अन्धकवृष्णि से समुद्रविजय, अक्षोभ्य आदि दशा) तथा
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६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ समुद्रविजय से महानेमि, सत्यनेमि, अरिष्टनेमि आदि १३ भाइयों का उल्लेख है। ___भगवान् अरिष्टनेमि अत्यन्त बलशाली एवं एक हजार आठ शुभ लक्षणों२२ एवं वज्र ऋषभ नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान के धारक थे।३२ वे १० धनुष लम्बे और मधुर सुर वाले थे। अरिष्टनेमि के धैर्य, शौर्य और प्रबल पराक्रम की अनेक घटनाएँ जैन आगमों में वर्णित हैं।३४ भगवान् अरिष्टनेमि के पिता महाराज समुद्रविजय और महारानी शिवा ने उनकी चिन्तनशील एवं गम्भीर मुद्रा से सशंकित होकर समय आने पर उनका विवाह भोजकल के राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती से करना निश्चित किया। विवाह के पहले बारात में जाते हुए अरिष्टनेमि का बाड़े में बन्द किये हुए पशुओं की चीत्कार सुनना, सारथी से उसका कारण पूछना तथा निर्दोष प्राणियों की आसन्न हिंसा से उनके मन में विरक्ति पैदा होना और उसके पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करना आदि उनके जीवन की प्रमुख घटनाएँ हैं। इनका वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार से मिलता है। उत्तराध्ययनसूत्र में अत्यन्त संक्षिप्त शैली अपनाने के कारण सारथी को आभूषण आदि देने के पश्चात् अगली गाथा में दीक्षा का वर्णन है तो उत्तराध्ययन की सुखबोधावृत्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और भवभावना आदि ग्रन्थों में बाद में उनके वर्षीदान का उल्लेख है। चउपन्नमहापुरिसचरियं में तोरण से लौटने के पूर्व वर्षीदान का उल्लेख है जो अन्य आचार्यों के वर्णन से मेल नहीं खाता है। दिगम्बर-ग्रन्थों में पूरे कथानक को अलग मोड़ दिया गया तथा उन्हें विरक्त करने के लिए कृष्ण द्वारा पशुओं को एकत्र कराने का उल्लेख है।३५ साधक जीवन
आवश्यकनियुक्ति के अनुसार चौबीस तीर्थङ्करों में से भगवान् महावीर, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, मल्लिनाथ और वासुपूज्य ने प्रथमवय में प्रव्रज्या ग्रहण की तथा शेष तीर्थङ्करों ने पश्चिमवय में।३६ भगवान् अरिष्टनेमि ३०० वर्ष तक गृहस्थ आश्रम में रहकर श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में द्वारिका नगरी के रैवतक नामक उद्यान में प्रव्रज्या ग्रहण की थी।३७ यहाँ यह ध्यातच है कि द्वारिका अरिष्टनेमि की जन्मभूमि नहीं थी। भगवान् ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि के अतिरिक्त सभी २२ तीर्थङ्करों ने अपनी जन्मभूमि से ही अभिनिष्क्रमण किया था।२८ अरिष्टनेमि के पारणा के स्थान के सन्दर्भ में आवश्यकनियुक्ति, आवश्यक मलयगिरिवृत्ति तथा हरिवंशपुराण सभी ने द्वारिका या द्वारवती नगरी का उल्लेख किया है। श्वेताम्बर आगम तथा आगमेतर-साहित्य के अनुसार दीक्षा लेने के पश्चात् भगवान् अरिष्टनेमि ५४ रात्रि-दिवस तक छद्मस्थ पर्याय में रहे। इस बीच निरन्तर वे व्युत्सर्गकाय त्यक्त देह से ध्यानावस्थित रहे। वर्षा ऋतु के आश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन उर्जयन्त (रैवत) नामक शैल शिखर पर चित्रा नक्षत्र के योग में उन्हें अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात केवल
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तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि :
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ज्ञान प्राप्त हुआ।३९ केवल ज्ञान का समय क्या था इस विषय में समवायाङ्ग,४० आवश्यकनियुक्ति,४१ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र २ तथा भवभावना ३ का संकेत सूर्योदय बेला की तरफ है जबकि कल्पसूत्र में आचार्य भद्रबाहु ने अमावस्या के दिन का पश्चिम भाग लिया है। आचार्य जिनसेन ने हरिवंशपुराण४ तथा आचार्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण ने भगवान् अरिष्टनेमि का छद्मस्थ-काल ५६ दिन माना है और उनके केवल ज्ञान का दिन आश्विन शुक्ला प्रतिपदा माना है, परन्तु यह अन्तर श्वेताम्बर और दिगम्बर तिथि-सम्बन्धी मान्यताओं का भेद ही प्रतीत होता है। उन्होंने जिस स्थान पर दीक्षा ग्रहण की थी, केवल ज्ञान भी उन्हें उसी स्थान पर हुआ।४५ केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद भगवान् अरिष्टनेमि ने चतुर्विध संघ की स्थापना की और तीर्थङ्कर पद प्राप्त किया। समवायाङ्ग,४६ आवश्यकनियुक्ति,४७ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित,८ उत्तरपुराण आदि श्वेताम्बर तथा दिगम्बर-ग्रन्थों में भगवान् अरिष्टनेमि के ११ गण
और ११ गणधरों का उल्लेख है जिनमें वरदत्त प्रमुख गणधर थे। अन्य गणधरों का विशेष परिचय नहीं मिलता। कल्पसूत्र में अरिष्टनेमि के १८ गण और १८ गणधरों का उल्लेख है, परन्तु यह अन्तर क्यों है इसका कोई संकेत उपलब्ध नहीं है। उनके गण-समुदाय में १८,००० श्रमणों, ४०,००० श्रमणियों तथा अनेकों श्रमणोपासक तथा श्रमणोपासिकाओं की सम्पदा थी।
__आयु-- भगवान् अरिष्टनेमि की आयु क्या थी, इस सम्बन्ध में प्राप्त साहित्यिक साक्ष्य एकमत नहीं हैं। नियुक्ति, वृत्ति और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित के अनुसार रथनेमि ४०० वर्ष गृहस्थ आश्रम में रहे, १ वर्ष छद्मस्थ रहे और ५०० वर्ष केवली पर्याय में, इसप्रकार उनका ९०० वर्ष का आयुष्य था।५१ इसी प्रकार कौमारावस्था, छद्मस्थ अवस्था और केवली अवस्था का विभाग करके राजीमति ने भी उतना ही आयुष्य भोगा।५२ भगवान् अरिष्टनेमि ३०० वर्ष कुमार अवस्था में रहे, ७०० वर्ष छद्मस्थ और केवली अवस्था में व्यतीत कर कुल १००० वर्ष का आयुष्य भोगा। अब यदि उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में अरिष्टनेमि का आयुष्य देखें तो रथनेमि, जो अरिष्टनेमि के लघु भ्राता थे ४०० वर्ष गृहस्थ आश्रम में रहे, राजीमति भी गृहस्थ आश्रम में ४०० वर्ष रहीं जबकि अरिष्टनेमि ३०० वर्ष। साहित्यिक साक्ष्य से यह भी स्पष्ट है कि राजीमति
और अरिष्टनेमि के निर्वाण में ५४ दिनों का अन्तर है। अब यदि इस उल्लेख को प्रामाणिक माना जाय तो इसका अर्थ यह है कि राजीमति अरिष्टनेमि २०० वर्ष पश्चात् दीक्षित हुईं; किन्तु अरिष्टनेमि कैवल्य प्राप्ति के बाद राजीमति का २०० वर्ष तक दीक्षित न होना तथा गृहस्थ आश्रम में रहना एक ऐसी पहेली है जिसका कोई स्पष्ट हल नजर नहीं आता। वर्तमान तीर्थङ्करों में केवल पार्श्वनाथ एवं महावीर की आयु सत्य ऐतिहासिक तथ्य के रूप में वर्णित है जो क्रमश: १०० और ७२ वर्ष मानी गयी है। शेष तीर्थङ्करों के आयु परिमाण में कल्पना है, परन्तु वसुदेव कृष्ण के नेतृत्व में
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T/ जुलाई - दिसम्बर २००२
श्रमण/
जरासंध के भय से यादवों ने मथुरा से द्वारिका की ओर प्रस्थान किया तब कृष्ण की आयु लगभग २० वर्ष की थी और कृष्ण की कुल आयु १२५ वर्ष थी। जैन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि मथुरा से पलायन के समय अरिष्टनेमि शिशु थे और उनकी आयु उस समय ४ वर्ष थी। ऐसा प्रतीत होता है कि अरिष्टनेमि की आयु भी १०० वर्ष या १२५ वर्ष से अधिक नहीं थी ।
राजीमति की दीक्षा
उत्तराध्ययन की सुखबोधावृत्ति ५३ एवं वादिवेताल शान्तिसूरि रचित 'बृहद् वृत्ति' और मलधारी आचार्य हेमचन्द्र के भवभावना ४ के अनुसार अरिष्टनेमि के प्रथम वचन को सुनकर ही राजीमति ने दीक्षा ले ली थी। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित के अनुसार गजसुकुमाल मुनि के मोक्ष जाने के बाद राजीमति नन्द की कन्या एकवाशा और यादवों की अनेक महिलाओं के साथ दीक्षा लेती है। जैन आगमों में राजीमति को एक चरित्रवाली, विदुषी महिला एवं परम साधक के रूप में चित्रित किया गया है जो रथनेमि जैसे प्रव्रजित श्रमण को भी प्रतिबोध देती है तथा अपने सभी कर्मों को नष्ट कर मुक्त होती है।
भगवान् अरिष्टनेमि के विहार
अरिष्टनेमि के विहार-सम्बन्धी उल्लेख आगमों में विस्तार से उपलब्ध नहीं हैं। अन्तकृद्ददशाङ्ग में उनका मुख्य रूप से द्वारिका पधारने का उल्लेख है। वे मलय जनपद की राजधानी भद्दिलपुर भी पधारे थे, ऐसा उल्लेख मिलता है आज यह गांव झारखण्ड के हजारीबाग जिले के भदिया नामक स्थान के रूप में जाना जाता है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार भगवान् अरिष्टनेमि ने अनार्य देशों में भी विहार किया था । ५५ जिस समय द्वारिका का दहन हुआ, उस समय भगवान् पल्हव नामक अनार्य देश में विचरण कर रहे थे। यह पल्हव भारत की सीमा में था या भारत की सीमा से बाहर था, यह अन्वेषणीय है। प्राचीन पार्थिया (वर्तमान ईरान) के एक भाग को पल्हव या पल्हण माना जाता है। इसके अतिरिक्त भगवान् अरिष्टनेमि के हस्तिकल्पपुर, कौसुम्बारण्य राजपुर, किरात, दक्षिणापथ ह्रीमानगिरि तथा रैवतगिरि ( गिरनार ) आदि विहार के मुख्य स्थल थे। ५६ आचार्य जिनसेन के अनुसार उन्होंने सौराष्ट्र, मत्स्य, लाट, विशाल, शूरसेन, पटच्चर, पाञ्चाल, कुशाग्र, अङ्ग, बंग तथा कलिंग आदि नाना देशों में विहार किया। भगवान् अरिष्टनेमि से समुद्रविजय, अक्षोम्य, स्तमित, सागर, हिमवान् आदि नौ दशार्हो तथा माता शिवा देवी और श्रीकृष्ण के अनेक राजकुमारों ने दीक्षा ग्रहण की। इसके अतिरिक्त उनसे दीक्षा प्राप्त करने वालों में गजसुकुमाल, थावच्चापुत्र तथा ढंढणमुनि, निषधकुमार, बलदेव तथा पाण्डव आदि हैं।
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तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि : ९ परिनिर्वाण
सात सौ वर्षों तक श्रमण जीवन में रहने के बाद ग्रीष्म ऋतु के चतुर्थ मास, आषाढ़ मास की शुक्ला अष्टमी के दिन रैवतक शैल शिखर पर अन्य ५३६ अनगारों के साथ जलरहित मासिक तप कर चित्रा नक्षत्र में सभी कर्मों को नष्ट कर भगवान् अरिष्टनेमि कालगत हुए। धर्मदेशना
__ भगवान् अरिष्टनेमि ने ऋषभदेव, भगवान् महावीर की तरह पञ्चयाम जैसे किसी दार्शनिक-सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं किया, परन्तु उनके उपदेशों में अहिंसा, अपरिग्रह आदि सिद्धान्तों का सम्यक् समावेश था। यह माना जाता है कि भगवान् ऋषभदेव एवं महावीर ने पञ्चयाम का उपदेश दिया शेष सभी तीर्थङ्करों ने चातुर्याम का। वे निवृत्ति प्रधान लोकोत्तर महापुरुष थे और जातिगत आकर्षणों एवं संसार के भोग-विलास से सर्वथा ऊपर थे। उनके युग का गम्भीरतापूर्वक पर्यालोचन करने पर यह स्पष्ट होता है कि उस समय क्षत्रियों में मांस भक्षण एवं मदिरापान आदि व्यसन प्रचलित हो गये थे। उनके विवाह के अवसर पर पशुओं को एकत्रित किया जाना, मदिरोन्मत्त यदुकुमारों के आचरण से द्वारिका का दहन होना इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं। विवाह किये बिना उनका लौटना समग्र क्षत्रिय जाति के पापों का प्रायश्चित्त था। दीक्षित होने के पश्चात् उन्होंने उत्कृष्ट साधना द्वारा कैवल्य प्राप्त कर संसार को श्रेयोमार्ग प्रदर्शित कर शाश्वत सिद्धि प्राप्त की।
सन्दर्भ
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१. समवायाङ्ग, १५७. २. Epigraphica Indica, Vol. 1, p. 389. ३. ऋग्वेद, १-१४/८९/६, १/२४/१८०/१०, ३/४/५३/१७, १०/१२.
पं० कैलाशचन्द जैन, जैन साहित्य का इतिहास (पूर्वपीठिका), पृ० १७०. ५. छान्दोग्योपनिषद्, ३/१७/६.
अन्तकृत्दशाङ्ग, वर्ग ५, अ. १. ७. धर्मानन्द कौशाम्बी, भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ० ५७. ८. ऋग्वेद, १०/१२/१७८/१. ९. यजुर्वेद, २५/१९. १०. सामवेद, ३/९. ११. ऋग्वेद, १/१/१६.
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१० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
१२. मुनि नथमल, उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. ७. १३. महाभारत, शान्तिपर्व, २८८/४. १४. यजुर्वेद, ९/२५. १५. वाजसनेयि-माध्यन्दिन, शुक्लयजुर्वेद, ९/२५. १६. Dr. S. Radhakrishan, Indian Philosophy, Vol. 1, p. 287. १७. प्रभासपुराण, ४९-५०. १८. इसिभासियाई, ऋषिमण्डल प्रकरणं, आत्मबल्लभ ग्रन्थमाला, बालापुर, आ.
४३-४४. १९. पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका,
पृ० १७०-७१. २०. अॅनल्स ऑफ दी भण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पत्रिका, जिल्द २३,
पृ० १२२. २१. उत्तराध्ययन, २२/३-४, कल्पसूत्र, १६२. २२. बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति, १, ३२६३; प्रज्ञापनासूत्र, १/६६, पृ० १७३. २३. कल्पसूत्र टीका, पृ० १७१. २४. कालकाचार्यकथासंग्रह, उपोद्घात, पृ० ५२. २५. उत्तराध्ययन, २२/१,३. २६. कल्पसूत्र, सम्पादक देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृ० १६२. २७. कल्पसूत्र, पृ० १६३. २८. उत्तराध्ययन, २२/५. २९. उत्तराध्ययन, २२/१३, २२, ४४, उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र ४९०. ३०. वृष्णिपुंगव यादव प्रधानो भगवान् अरिष्टनेमिरितियावत्, उत्तराध्ययन बृहवृत्ति,
पृ० ४९०. ३१. अन्तकृत्दशाङ्गवृत्ति, १/१. ३२. उत्तराध्ययन, २२/२५. ३३. वही, २२/६. ३४. देखें- त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, ८/९/२२-२४; हरिवंशपुराण,
५५/१-२,३, पृ. ६१६; उत्तरपुराण, ७१-१३४७, ७१/१३७ आदि। ३५. उत्तरपुराण, ७१/१५२.
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तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि : ११
३६. आवश्यकनियुक्ति, २२१,२२६. ३७. उत्तराध्ययन, २२/२४; कल्पसूत्र, १६४, पृ. २३१; समवायाङ्ग,
१५७/२३; हरिवंशपुराण, ५५/१२५; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, ८/
९/२५३. ३८. आवश्यकनियुक्ति, २२९. ३९. कल्पसूत्र, १६५. ४०. समवायाङ्ग, २३/२. ४१. आवश्यकनियुक्ति, २७५, पृ. २०७. ४२. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, ८/९/२७७. ४३. भवभावना, ४६२३. ४४. हरिवंशपुराण, ५६, श्लोक १११,११३. ४५. आवश्यकनियुक्ति, २५४. ४६. समवायाङ्ग, ११. ४७. आवश्यकनियुक्ति, २९०-९१. ४८. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, ८/९/३७५. ४९. उत्तरपुराण, ७१/१८२/८७. ५०. कल्पसूत्र, १६६, पृ० २३६. ५१. अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग-६, पृ० ४९९. ५२. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, ८/१२/११३. ५३. परितुट्ठमणा य रायमई विपत्ता समोसरणं, उत्तराध्ययन (सुखबोधा वृत्ति),
पृ० २२१. ५४. भवभावना, ३७१६. ५५. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, ८/१०/१४८. ५६. आवश्यकनियुक्ति, गाथा २५६.
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आचार्य हरिभद्रसूरि की योग दृष्टियाँ : एक विवेचन
डॉ॰ सुधा जै
जीवन के समग्र कार्य-कलापों का मूल आधार दृष्टि (Vision) होती है। सत्व, रज और तम में से जिस ओर हमारी दृष्टि मुड़ जाती है, हमारा जीवन- प्रवाह उसी ओर स्वतः बढ़ जाता है। इसीलिए आचार्य हरिभद्र ने आत्मा के क्रमिक विकास को ध्यान में रखते हुए योग की आठ दृष्टियों का उल्लेख किया है । दृष्टि को परिभाषित करते हु उन्होंने कहा है कि “जिससे समीचीन श्रद्धा के साथ बोध हो और जिससे असत् प्रवृत्तियों का क्षय करके सत् प्रवृत्तियाँ प्राप्त हों, वह दृष्टि है।"" दृष्टि दो प्रकार की होती है— ओघदृष्टि और योगदृष्टि । मेघाच्छन्न रात्रि, मेघरहित रात्रि, मेघयुक्त दिवस में ग्रह, भूत-प्रेत आदि से ग्रस्त पुरुष, उनसे अग्रस्त पुरुष, बालक, वयस्क, मोतियाबिन्द आदि से विकृत, मोतियाबिन्द आदि से रहित दृष्टि ओघदृष्टि होती है। तात्पर्य है कि सांसारिकभाव, सांसारिक सुख, सांसारिक पदार्थ, क्रिया-कलाप आदि में जो रची-बसी रहती हैं, वह ओघदृष्टि है। योगदृष्टि के प्रकार को बताते हुए आचार्य हरिभद्र ने कहा है- तृण के अग्निकण, गोबर या उपले के अग्निकण, काष्ठ के अग्निकण, दीपक की प्रभा, रत्न की प्रभा, सूर्य की प्रभा तथा चन्द्र की प्रभा के सदृश साधक की दृष्टि आठ प्रकार की होती है। वे आठों दृष्टियाँ हैं - १. मित्रा, २ . तारा, ३. बला, ४. दीप्रा, ५. स्थिरा, ६. कान्ता, ७. प्रभा और ८ परा ।
उपर्युक्त आठों प्रकार में से प्रथम चार ओघदृष्टि में अन्तर्निहित हैं, क्योंकि इनकी वृत्ति संसाराभिमुख रहती है, अर्थात् जीव का उत्थान-पतन होता है। शेष चार दृष्टियाँ योगदृष्टि में समाहित होती हैं, क्योंकि इनमें आत्मा की प्रवृत्ति आत्मविकास की ओर अग्रसर होती है। पाँचवीं दृष्टि के बाद जीव सर्वथा उन्नतिशील बना रहता है, उसके गिरने की सम्भावना नहीं रहती। अतः कहा जा सकता है कि ओघदृष्टि असत् - दृष्टि है और योगदृष्टि सत्दृष्टि है। आचार्य हरिभद्र ने प्रथम चार दृष्टियों को अवेद्य-संवेद्य पद' अथवा प्रतिपाति तथा अन्तिम चार दृष्टियों को वेद्य-संवेद्य पद अथवा अप्रतिपाति कहा है। वेद्य-संवेद्य पद से अभिप्राय है जिस पद में वेद्य विषयों का यथार्थ स्वरूप जाना जा सके और उसमें अप्रवृत्ति बुद्धि पैदा हो। इसी प्रकार जिसमें बाह्य वेद्य विषयों का यथार्थ स्वरूप में संवेदन और ज्ञान न किया जा सके, वह अवेद्य-संवेद्य पद है।
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प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.
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आचार्य हरिभद्रसूरि की योग दृष्टियाँ : एक विवेचन : १३
१. मित्रादृष्टि
इस प्रथम दृष्टि को आचार्य हरिभद्र ने तृण के अग्निकणों की उपमा दी है। जिस प्रकार तिनकों की अग्नि में सिर्फ नाम की अग्नि होती है, उसके सहारे किसी वस्तु का स्पष्ट रूप से दर्शन नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार इस दृष्टि में साधक को ज्ञान तो प्राप्त होता है लेकिन उस अल्प ज्ञान में तत्त्वबोध नहीं हो पाता, क्योंकि मिथ्यात्व अथवा अज्ञान इतना घना होता है कि वह ज्ञान और दर्शन पर आवरण डाल देता है। इसलिए साधक को तात्त्विक एवं पारमार्थिक ज्ञान का बोध नहीं हो पाता है। यह अल्पस्थिति होती है। चूंकि यह मन्द, हल्की, धुंधली और स्वल्प शक्तिक है, इसलिए साधक में कोई ऐसा संस्कार निष्पत्र नहीं कर पाती है जिसके सहारे साधक आध्यात्मिक बोध की ओर गति कर सके। इसका मात्र इतना सा उपयोग है कि यह बोधमय प्रकाश की एक हल्की सी रश्मि आविर्भूत कर देती है जो मन में आध्यात्मिक बोध के प्रति हल्का सा आकर्षण पैदा कर जाती है। फिर भी साधक सर्वज्ञ को अन्तःकरणपूर्वक नमस्कार करता हुआ आचार्य एवं तपस्वी की यथोचित सेवा करता है तथा औषधदान, शास्त्रदान, वैराग्य, पूजा, श्रवण, पाठन, स्वाध्याय आदि क्रियाओं और भावनाओं का पालन व चिन्तन आदि करता है। इस दृष्टि में दर्शन की मन्दता, अहिंसादि यमों का पालन करने की इच्छा और देवपूजादि धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति लगाव रहता है।" साधक द्वारा माध्यास्थादि भावनाओं का चिन्तन करने और मोक्ष की कारणभूत सामग्रियों को जुटाते रहने के कारण इसे योगबीज की संज्ञा से विभूषित किया गया है। २. तारादृष्टि
तारा द्वितीय दृष्टि है, जिसे आचार्य ने गोबर या उपले के अग्निवेशों की उपमा दी है। तिनकों की अपेक्षा उपलों की अग्नि प्रकाश की दृष्टि से कुछ विशिष्ट होती है, परन्तु कोई खास अन्तर नहीं होता है। तिनकों की अग्नि की भाँति उपलों की अग्नि का प्रकाश भी अल्पकालिक होता है, इसलिए उसके सहारे भी किसी पदार्थ का सम्यक्तया दर्शन नहीं हो पाता है। तारादृष्टि भी कुछ ऐसी ही होती है। बोधमय प्रकाश की जो झलक उद्घाटित होती है वह मित्रादृष्टि की अपेक्षा कुछ तीव्र तो अवश्य होती है, परन्तु उसमें स्थिरता, शक्ति आदि की दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नहीं होता है। हाँ! इतना अवश्य है कि मित्रादृष्टि में जो दिव्य झलक मिली होती है, वह कुछ अधिक ज्योतिर्मयता तथा तीव्रता के साथ साधक को तारादृष्टि में प्राप्त होती है। साथ ही, साधक को यहाँ शौचादि नियमों का पालन करते हुए आत्महित का कार्य करने में खेद नहीं होता है, बल्कि उसमें तात्त्विक जिज्ञासा जागृत हो जाती है। इसमें साधक इतना सावधान हो जाता है कि वह सोचने लगता है- कहीं मेरे द्वारा किये गये व्रत, पूजनादि क्रियाकलापों से दूसरों को कष्ट तो नहीं है। इस तरह साधक वैराग्य की तथा संसार की असारता-सम्बन्धी योग-कथाओं को सुनने की इच्छा रखते हुए बड़े
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१४ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ लोगों के प्रति समताभाव रखता है और उनका आदर-सत्कार करता है।११ यदि पूर्व से ही साधक के अन्तर्मन में योगी, संन्यासी, साधु आदि के प्रति अनादर का भाव रहता है तो भी वह इस अवस्था में प्रेम और सद्व्यवहार करता है।१२ संसार की असारता तथा मोक्ष के सम्बन्ध में चिन्तन-मनन करने में समर्थ न होते हुए भी निर्दिष्ट अथवा उपदिष्ट कथनों पर श्रद्धा के भाव रखता है,१३ क्योंकि गुरु सत्संग के कारण साधक की अशुभ प्रवृत्तियाँ बन्द हो जाती हैं और संसार-सम्बन्धी किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता। फलतः साधक धार्मिक कार्यों में अनजाने में भी अनुचित वर्तन नहीं करता है;१४ किन्तु सत्कार्य में लगे रहने पर भी साधक में अशुभ प्रवृत्तियाँ रहती हैं। कारण कि साधक इस अवस्था में सम्यग्ज्ञान के अभाव में सम्यक्-असम्यक् का अन्तर नहीं जान पाता है, जिसके फलस्वरूप वह जो आत्मा का स्वभाव नहीं है, उसे ही आत्मा का स्वभाव मानता है। इसी अज्ञान के कारण वह सर्वज्ञ द्वारा कथित तत्त्वों पर श्रद्धा एवं विनीत भाव रखता है। तात्पर्य है कि तारादृष्टि में साधक को अचानक अध्यात्म-उद्बोध की कुछ विशद झलक दिखायी तो देती है, परन्तु साधक का पूर्व का कोई संस्कार नहीं छूट पाता है। इसलिए साधक के कार्य-कलापों में द्रव्यात्मकता से अधिक विकास नहीं हो पाता है। ३. बलादृष्टि
इस तीसरी दृष्टि की उपमा काष्ठाग्नि से दी गयी है। जिस प्रकार काष्ठाग्नि का प्रकाश कुछ स्थिर होता है, अधिक समय तक टिकता है, शक्तिमान होता है। ठीक उसी प्रकार बलादृष्टि में उत्पन्न बोध कुछ समय तक टिकता है, स्थिर रहता है, सशक्त होता है और संस्कार भी छोड़ता है। साथ ही साधक में तत्त्वज्ञान के प्रति अभिरुचि उत्पन्न होती है तथा योग-साधना में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होता।१५ एक उदाहरण देते हुए इस दृष्टि को बहुत ही सुन्दर ढंग से निरूपित किया गया है- जिस प्रकार सुन्दर युवक, सुन्दर युवती के साथ नाच-गाना सुनने में तद्रूप होकर अतीव आनन्द की प्राप्ति करता है, उसी प्रकार शान्त, स्थिर परिणामी योगी भी शास्त्र-श्रवण, देवगुरुपूजादि में उत्साह अथवा आनन्द की प्राप्ति करता है।१६ इस अवस्था में साधक की मनोस्थिरता अत्यन्त सुदृढ़ हो जाती है और वास्तविक लक्ष्य की ओर उसको उद्भूत किये रहने का प्रयास करती है जिससे साधक में सत्कर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न होती है। भले ही उसे तत्त्व चर्चा सुनने को मिले या न मिले, परन्तु उसकी भावना इतनी निर्मल एवं पवित्र हो जाती है कि उसकी इच्छामात्र से ही उसका कर्मक्षय होने लगता है।१७ शुभपरिणामों के कारण समताभाव का विकास होता है जिससे साधक के मन में प्रिय वस्तु के प्रति आग्रह नहीं रहता।१८ साथ ही साधक चारित्र-विकास की सारी क्रियाओं को आलस्यरहित होकर करता है, जिनसे बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा अथवा आसक्ति क्षीण हो जाती है और वह धर्म-क्रिया में संलग्न हो जाता है।१९ इस प्रकार
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आचार्य हरिभद्रसूरि की योग दृष्टियाँ : एक विवेचन : १५ बलादृष्टि में साधक के अन्तर्मन में समता-भाव का उदय होता है और आत्मशुद्धि सुदृढ़ होती है। ४. दीप्रादृष्टि
दीपा चौथी दृष्टि है जिसकी उपमा आचार्य हरिभद्र ने दीपक की ज्योति से दी है। जिस प्रकार दीपक का प्रकाश तृष्णाग्नि, उपलाग्नि और काष्ठाग्नि की अपेक्षा अधिक स्थिर होता है और जिसके सहारे पदार्थ को देखा जा सकता है। उसी प्रकार दीप्रादृष्टि में होने वाला बोध उपर्युक्त दृष्टियों की अपेक्षा अधिक समय तक टिकता है, परन्तु जिस प्रकार दीपक का प्रकाश हवा के झोंके से बुझ जाता है, उसी प्रकार तीव्र मिथ्यावरण के कारण यह दर्शन भी नष्ट हो जाता है। योगदृष्टिसमुच्चय में इस दृष्टि को प्राणायाम एवं तत्त्वश्रवणसंयुक्त तथा सूक्ष्मबोध भाव से रहित माना गया है।२० कहा गया हैजिस प्रकार प्राणायाम न केवल शरीर को ही सुदृढ़ बनाता है, बल्कि आन्तरिक नाड़ियों के साथ-साथ मन की मलीनता को भी धोता है, ठीक उसी प्रकार इस दृष्टि में रेचक प्राणायाम की भाँति बाह्य विषयों में ममत्वबुद्धि होने के साथ-साथ पूरक प्राणायाम की भाँति विवेकशक्ति की वृद्धि भी होती है और कुम्भक प्राणायाम की तरह ज्ञान केन्द्रित होता है। ताराद्वांत्रिंशिका में इसे भाव प्राणायाम कहा गया है।२१ जो भी साधक इस दृष्टि पर अपना अधिकार कर लेता है वह बिना किसी सन्देह के धर्म पर श्रद्धा करने लगता है। उसकी श्रद्धा इतनी प्रबल हो जाती है कि वह धर्म के लिए प्राण का त्याग कर सकता है। लेकिन प्राण की रक्षा के लिए धर्म का त्याग नहीं कर सकता।२२ ____ अब तक की उपर्युक्त वर्णित दृष्टियाँ ओघदृष्टियाँ हैं। इनमें यदि तत्त्वज्ञान हो भी जाता है तो वह स्पष्ट नहीं होता है,२३ क्योंकि पूर्वसञ्चित कर्मों के कारण धार्मिक व्रत-नियमों का यथाविधि पालन करने से भी सम्यक् ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती। इसी मिथ्यात्व दोष के कारण इन दृष्टियों के जीवों को अवेद्य-संवेद्य पद कहा गया है, क्योंकि अज्ञानवश जीव मूढ़वत आचरण करता है, जिसके कारण अनेक दुःख उत्पन्न होते हैं।२४ किन्तु सञ्चित एवं सञ्चायमाण कर्मों का छेदन करने तथा सांसारिक कारणों को जानने पर ही सूक्ष्म तत्त्व की प्राप्ति होती है।२५ फलत: एक ओर जहाँ संसाराभिमुखता का विच्छेद होता है, वहीं दूसरी ओर अवेद्य-संवेद्य पद भी नष्ट हो जाते हैं और परमानन्द की उपलब्धि होती है।२६ ५. स्थिरादृष्टि
स्थिरादृष्टि को रत्नप्रभा से उपमित किया गया है। जिस प्रकार रत्न की प्रभा कभी मिटती नहीं, सहजतया प्रकाशमान रहती है, ठीक उसी प्रकार स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोधमय प्रकाश स्थिर रहता है। यहाँ साधक की दृष्टि सम्यक् हो जाती है, भ्रान्तियाँ मिट जाती हैं, सूक्ष्मबोध अथवा भेदज्ञान हो जाता है, इन्द्रियाँ संयमित हो जाती हैं,
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१६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ धर्म-क्रियाओं में आने वाली बाधाओं का परिहार हो जाता है तथा वह परमात्मस्वरूप को पहचानने का प्रयास करने लगता है।२७ साथ ही आत्मा और पर-पदार्थों की भिन्नता का साधक अनुभव करने लगता है। अब तक पर में स्व की जो बुद्धि थी, वह अचानक आत्मोन्मुख हो जाती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने साधक की इस आन्तरिक अनुभूति को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा है- मोह मेरा कुछ नहीं है, मैं तो एकमात्र उपयोग चेतना रूप हूँ। यों चिन्तन करने वाले को सिद्धान्तवेत्ता, ज्ञानी, मोहात्मक ममता से ऊंचा उठा हुआ कहते हैं।२८ आगे पुन: कहते हैं- निश्चित रूप से मैं दर्शन-ज्ञानमय, सदा अरूपी, एकमात्र शुद्ध आत्मा हूँ, अन्य कुछ भी परमाणुमात्र मेरा नहीं है।२९
इस प्रकार दृष्टि में सम्यक्त्व आ जाने पर आस्था स्थिर हो जाती है, विश्वास सुदृढ़ हो जाता है तथा जीव दर्शन प्रत्याहार से युक्त कृत्य, अभ्रान्त, निर्दोष एवं सूक्ष्मबोध वाला हो जाता है।३० जिस प्रकार रत्न का प्रकाश कभी मिटता नहीं है उसी प्रकार स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोध नष्ट नहीं होता और साधक का बोध सदाभ्यास, आत्मानुभूति, सचिन्तन आदि द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होता जाता है। ६. कान्तादृष्टि
इस दृष्टि की उपमा तारे की प्रभा से दी गयी है। जिस प्रकार तारे की प्रभा आकाश में स्वाभाविक रूप में होती है, अखण्डित होती है। उसी प्रकार कान्ता की दृष्टि का बोध, उद्योत, अविचल, अखण्डित और प्रगाढ़ रूप में चिन्मय आकाश में सहज रूप में प्रकाशित रहता है। इस दृष्टि में साधक को धारणा नामक योग के संयोग से सुस्थिर अवस्था प्राप्त होती है, परोपकार एवं सद्विचारों से उसका हृदय आप्लावित हो जाता है तथा उसके दोष अर्थात् चित्त की विकलता नष्ट हो जाती है।३१ इन्द्रियों के विषयों के शान्त हो जाने तथा धार्मिक सदाचारों के सम्यक् परिपालन से साधक क्षमाशील स्वभाव वाला बन जाता है, वह सभी प्राणियों का प्रिय हो जाता है।३२ इस प्रकार साधक को शान्त, धीर एवं परमानन्द की अनुभूति होने लगती है, सम्यक्-ज्ञान की प्राप्ति से उसे स्व और पर वस्तु का बोध होने के साथ-साथ उसमें ईर्ष्या, क्रोध आदि दोषों का सर्वथा नाश हो जाता है।
यदि हम कान्ता के शाब्दिक अर्थ को देखें तो कान्ता का अर्थ ही होता हैलावण्यमयी, प्रियंकरी, गृहस्वामिनी। ऐसी सनारी पतिव्रता होती है, जिसकी अपनी विशेषता होती है। वह घर, परिवार तथा जगत् के सारे कार्य को करते हुए भी एकमात्र अपना चित्त अपने पति से जोड़े रहती है। उसके चिन्तन का एकमात्र केन्द्र उसका पति ही होता है। इसी प्रकार कान्तादृष्टि में पहुँचा हुआ साधक आवश्यक और कर्तव्य की दृष्टि से जहाँ जैसा करना अपेक्षित है, वह सब करता है, परन्तु उसमें आसक्त
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आचार्य हरिभद्रसूरि की योग दृष्टियाँ : एक विवेचन : १७ नहीं होता। उसका मन तो एकमात्र श्रुत-निर्दिष्ट धर्म में ही लीन रहता है। उसके चिन्तन का केन्द्र आत्म-स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है। अत: कहा जा सकता है कि कान्तादृष्टि में साधक की स्थिति अनासक्त कर्मयोगी की होती है। जैसाकि गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि अनासक्त होकर कर्म करते जाओ, फल की इच्छा मत करो। आसक्ति का परित्याग कर, सिद्धि-सफलता, असिद्धि-असफलता में समान बनकर योग में स्थित होकर तुम कर्म करो। यह समत्व ही योग है।३३ ७. प्रभादृष्टि
इस दृष्टि की उपमा सूर्य के प्रकाश से दी गयी है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से सारा विश्व प्रकाशित होता है तथा उसका प्रकाश अत्यन्त तीव्र, ओजस्वी एवं तेजस्वी होता है, उसी प्रकार प्रभादृष्टि का बोध-प्रकाश भी अत्यन्त तीव्र, ओजस्वी एवं तेजस्वी होता है तथा साधक को समस्त पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है। सूर्य की भाँति अत्यन्त सुस्पष्ट दर्शन की प्राप्ति होती है। किसी भी प्रकार का रोग नहीं होता तथा प्रतिपाति नामक गुण का आविर्भाव होता है।३४ इस अवस्था में साधक को इतना आत्मविश्वास हो जाता है कि वह कषायों में लिप्त होते हुए भी अलिप्त-सा रहता है, रोगादि क्लेशों से पीड़ित होने पर भी विचलित नहीं होता। फलत: उसमें पूर्व में सञ्चित विषम वृत्ति के बदले प्राणियों में समता अथवा असंगानुष्ठान का उदय होता है, इच्छाओं का नाश हो जाता है और साधक सदाचार का पालन करते हुए मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होता है अर्थात् यहीं से मोक्षमार्ग का श्रीगणेश होता है।३५ असंगानुष्ठान चार प्रकार के होते हैं- प्रीति, भक्ति, वचन और असंग अनुष्ठान। सत्प्रवृत्ति को असंगानुष्ठान कहा गया है। असंगानुष्ठान अध्यात्म साधना के उपक्रम में गतिशीलता लाता है। यह जन्म-मरण से रहित शाश्वत पद प्राप्त कराने वाला है। इसी प्रकार योगदृष्टिसमुच्चय में इन्हें प्रशान्तवाहिता, विसम्भाग परिक्षय, शैववर्त्म और ध्रुवाध्वा के नाम से बताया गया है।३६ . अत: यहाँ साधक का प्रातिभज्ञान या अनुभूति प्रसूतज्ञान इतना प्रबल एवं उज्ज्वल हो जाता है कि उसे शास्त्र के प्रयोजन की आवश्यकता नहीं रहती, ज्ञान की साक्षात् उपलब्धि उसे हो जाती है। आत्म-साधना की यह बहुत ही ऊँची स्थिति होती है। ऐसी उत्तम, अविचल, ध्यानावस्था से आत्मा में अपरिसीम सुख का स्रोत फूट पड़ता है। ८. परादृष्टि
__ यह अन्तिम दृष्टि है, जिसकी उपमा चन्द्रमा की प्रभा से दी गयी है, जो शीतल, सौम्य तथा शान्त होता है और सबके लिए आनन्द और उल्लास लिये होता है। जिस प्रकार चन्द्रमा की ज्योत्सना सारे विश्व को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार परादृष्टि
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१८ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ में प्राप्त बोधप्रभा समस्त विश्व को जो ज्ञेयात्म है, उद्योतित करती है। इसमें सभी प्रकार के मन-व्यापार अवरुद्ध हो जाते हैं और आत्मा केवल आत्मा के रूप को ही देखती है, क्योंकि यह आत्मस्वरूप में निष्प्रयास परिरमण की उच्चतम दशा है, जिसका सख सर्वथा निर्विकल्प होता है। यह बोध की निर्विकल्प दशा है। इस दशा में बोध
और सुख की निर्विकल्पता में ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिप्टी और ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की त्रिपदी एकमात्र अभेद आत्मस्वरूप में परिणत हो जाती है, जहाँ द्वैतभाव सर्वथा विलय को प्राप्त कर लेता है। यह अवस्था सासक्तिहीन और दोषरहित होती है। इस अवस्था वाले योगी को सांसारिक वस्तुओं के प्रति न मोह होता है, न आसक्ति
और न उसमें किसी प्रकार का दोष ही रह जाता है। इस तरह आचार और अतिचार से वर्जित होने के कारण साधक (योगी) क्षपक श्रेणी अथवा उपशम श्रेणी द्वारा आत्मविकास करता है।३७ क्षपक श्रेणी से अभिप्राय है जो साधक तीव्र संवेग आदि प्रयत्नों द्वारा राग, द्वेष एवं मोह को क्रमश: निर्मल करते-करते उत्तरोत्तर समता-शुद्धि की साधना करता है, वह क्षपक श्रेणी में आता है। ऐसे ही जो साधक अपने संक्लेशों को अर्थात् कर्मों का मूलत: क्षय न करके उनका केवल उपशम ही करता है, सर्वथा निर्मूल नहीं कर पाता, वह उपशम श्रेणी में आता है। जिसमें प्रथम श्रेणी का साधक एक ही प्रयत्न में मुक्ति पा जाता है, लेकिन द्वितीय श्रेणी के साधक को मक्ति के लिए पुन: जन्म लेना पड़ता है।
__इस दृष्टि में समस्त कषायों के क्षीण होने के कारण साधक को अनेक लब्धियाँ प्राप्त होती है और वह मुमुक्षु जीवों के कल्याणार्थ उपदेश देता है। इस क्रम में योगी निर्वाण पाने की स्थिति में योग-संन्यास नामक योग को प्राप्त करता है,३८ जिसके
अन्तिम समय में शेष चार अघातीय कर्मों को नष्ट करके वहाँ पाँच अक्षरों के उच्चारण मात्र समय में शैलेशी अवस्था को प्राप्त करता है यानी मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
___ इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने चौदह गुणस्थान(१. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, २. सास्वादनदृष्टि गुणस्थान, ३. मिश्रदृष्टि गुणस्थान, ४. अविरत सम्यक्दृष्टि गुणस्थान, ५. देशविरत-विरताविरत गुणस्थान, ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान, ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, ८. अपूर्वकरण गुणस्थान, ९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान, ११. उपशान्त मोह गुणस्थान, १२. क्षीणमोह गुणस्थान, १३. सयोगकेवली गुणस्थान तथा १४. अयोगकेवली गुणस्थान) के आधार पर आध्यात्मिक विकास की आठ दृष्टियों का वर्णन किया है, परन्तु यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित जान पड़ता है कि गुणस्थान तथा उपर्युक्त
आठ दृष्टियों में कोई असमानता नहीं हैं, क्योंकि प्रथम चार दृष्टियों में प्रथम तीन गुणस्थान, पञ्चम एवं षष्ठ दृष्टि में चतुर्थ,पञ्चम और षष्ठ गुणस्थान, सप्तम दृष्टि में सप्तम और अष्टम गुणस्थान तथा अन्तिम यानी अष्टम दृष्टि में चतुर्दश गुणस्थान का
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आचार्य हरिभद्रसूरि की योग दृष्टियाँ : एक विवेचन : १९
समावेश हो जाता है। अतः हम यह निःसंकोच कह सकते हैं कि आचार्य हरिभद्र द्वारा वर्णित योग की ये आठ दृष्टियाँ साधक के आध्यात्मिक विकास हेतु एक महान् देन हैं, क्योंकि इस मार्ग पर आरूढ़ होकर साधक अपने गन्तव्य स्थान की प्राप्ति कर सकता है।
सन्दर्भ
१. सच्छ्रद्धासंगतो बोधो दृष्टिरित्यभिधीयते ।
असत्प्रवृत्तिव्याघातात् सत्प्रवृत्तिपदावहः || योगदृष्टिसमुच्चय, १७ समेघामेघरात्र्यादौ सग्रहाद्यर्भकादिवत् ।
ओघदृष्टिरिह ज्ञेया मिथ्यादृष्टीतराश्रया।। वही, १४ तृणगोमयकाष्ठाग्निकणदीप्रप्रभोपमा ।
२.
३.
४.
७.
८.
रत्नतारार्कचन्द्राभा सद्दृष्टेर्दृष्टिरष्टधा ।। वही, १५ तथा तृणगोमयकाष्ठाग्निकणदीप्रप्रभोपमा ।
५.
७०.
६. प्रतिपातयुताश्चाद्याश्चतस्त्रो नोत्तरास्तथा।
९.
रत्नतारार्कचन्द्राभाः क्रमेणेक्ष्वादिसन्निभा || योगावतार द्वात्रिंशिका, २६
मित्रा - तारा - बला - दीप्रा- स्थिरा - कान्ता-प्रभा - परा।
नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ।। योगदृष्टिसमुच्चय, १३
वही,
सापायाऽपि चैतास्तत्प्रतिपातेन नेतराः ।। वही, १९
मित्रा द्वात्रिंशिका - १
करोति योग बीजानामुपादानमिह स्थितः ।
अवन्ध्यमोक्षहेतूनामिति योगविदो विदुः ॥ योगदृष्टिसमुच्चय २२ तथा
जिनेषु कुशलं चित्तं तन्नमस्कार एव च ।
प्रणामादि च संशुद्धं योगबीजमनुत्तमम् ।। वही, २३ तथा आचार्यादिष्वपि ह्येतद्विशुद्धं भावयोगिषु ।
वैयावृत्त्यं च विधिवच्छुद्धाशयविशेषतः ।। वही, २८ तथा लेखना पूजना दानं श्रवणं वचनोद्ग्रह ।
प्रकाशनाथ स्वाध्यायश्चिन्ता भावनेति च ।। वही, २८
तारायां तु मनाक्स्पष्टं, नियमश्च तथाविधः ।
अनुद्वेगो हितारम्भे जिज्ञासा तत्त्वगोचरा ।। वही, ४१
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२० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ १०. वही, ४६ ११. अध्यात्मतत्त्वालोक, ४६ तथा
भवत्यस्यामविभिन्त्राप्रीतियोगकथासु च।
यथाशक्त्युपचारश्च बहुमानश्च योगिषु।। ताराद्वात्रिंशिका, ६ १२. योगदृष्टिसमुच्चय, ४७ १३. वही, ४८ १४. भयं नातीव भवनं कृत्यहानिर्न चोचिते।
तथानाभोगतोऽप्युच्चैर्न चाप्यनुचितक्रिया।। वही, ४५ १५. सुखासनसमायुक्तं बलायां दर्शनं दृढ़म्।
परा च तत्त्वशुश्रुषा न क्षेपो योगगोचरः।। वही, ४९ १६. कान्तकान्तासमेतस्य दिव्यगेयश्रुतौ यथा।
यूनो भवति शुश्रुषा तथास्यां तत्त्वगोचरा।। वही, ५२ १७. श्रुताभावेऽपि भावेऽस्याः शुभभावप्रवृत्तितः।।
फलं कर्मक्षयाख्यं स्यात् परबोधनिबन्धनम्। वही, ५४ १८. परिष्कारगत: प्रायो विघातोऽपि न विद्यते।
अविघातश्च सावधपरिहारान्महोदयः।। वही, ५६ १९. असाधु तृष्णात्वरयोरभावावात् स्थिरं सुखं चासनमाविरस्ति।। अध्यात्मतत्त्वालोक,
३/९८ २०. प्राणायामवती दीप्रा न योगोत्थानवत्यलम्।
तत्त्वश्रवणसंयुक्ता सूक्ष्मबोधविवर्जिता।। योगदृष्टिसमुच्चय, ५७ २१. . रेचनाबाह्य भावनामन्तर्भावस्य पूरणात्।
कुम्भनानिश्चितार्थस्य प्राणायामश्च भावतः।। ताराद्वांत्रिंशिका, १९ २२. प्राणेभ्योऽपि गुरुर्धर्मः सत्यामस्यामस्यामसंशयम्।
प्राणांस्त्यजति धर्मार्थं न धर्मं प्राणसंकटे।। योगदृष्टिसमुच्चय, ५८ २३. नैतद्वतौऽयं तत्तत्त्वे कदाचितुपजायते। वही, ६८ २४. अवेधसंवेध पदाभिधेयौ मिथ्यात्वदोषाशय उच्यते स्म।
उग्रोदये तत्र विवेकहीना अधोगतिं सूढधियो व्रजन्ति।। अध्यात्मतत्त्वालोक,१०९ २५. भवाम्भोधिसमुत्तारात् कर्मवज्रविभेदतः।
ज्ञेय व्याप्तेश्च कात्स्न्येन सूक्ष्मत्वं नायमन तु।। योगदृष्टिसमुच्चय, ६६
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आचार्य हरिभद्रसूरि की योग दृष्टियाँ : एक विवेचन : २१ २६. अवेधसंवेद्यपदं सत्संगागमयोगतः।
तबुर्गगतिप्रदं जैयं परमानन्द मिब्भता।। ताराद्वांत्रिंशिका, ३२ २७. एवं विवेकिनो धीरा: प्रत्याहारपरास्तथा।
धर्मबाधापरित्यागयत्नवन्तश्च तत्त्वतः।। योगदृष्टिसमुच्चय, १५७ २८. णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमिक्को।
तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति। समयसार, ३६ २९. अहमेक्को खुल सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारुवी।
णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तं पि।। वही, ३८ ३०. स्थिरायां दर्शनं नित्यं प्रत्याहारवदेव च।
कृत्यमभ्रान्तमनघं सूक्ष्मबोधसमन्वितम्।। योगदृष्टिसमुच्चय, १५३ ३१. कान्तायामेतदन्येषां प्रीतये धारणा परा।
अतोऽत्र नान्यमुनित्यं मीमांसास्ति हितोदय।। वही, १६१ ३२. अस्यां तु धर्ममाहात्म्यात्समाचारविशुद्धितः।
प्रियो भवति भूतानां धर्मैकाग्रमनास्तथा।। वही, १६२ ३३. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। श्रीमद्भगवतगीता, २/४७-४८ । ३४. ध्यानप्रिया प्रभा प्रायो नास्यां रूगत एव हि।
तत्त्वप्रतिपत्तियुता विशेषेण शमान्विता।। योगदृष्टिसमुच्चय, १६० ३५. सत्त्रवृत्तिपदं चेहासंगानुष्ठानसंज्ञितम्।
महापथप्रयाणं यदनागामिपदावहम्।। वही, १७४ ३६. प्रशांत वाहितासंज्ञं विसभागपरिक्षयः।
शिववर्त्म ध्रुवाध्वेति योगिभिर्गीयते ह्यदः।। योगदृष्टिसमुच्चय, १७५ ३७. निराचारपदोह्यस्यामतिचारविवर्जितः।
आरूढारोहणाभावगतिवत्त्वस्य चेष्टितम्।। वही, १७८ ३८. क्षीणदोषोऽथ सर्वज्ञः सर्वलब्धिफलान्वितः।
परं परार्थं सम्पाद्य ततो योगान्तमश्नुते।। वही, १८४
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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक
अध्ययन*
डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी'
उपदेशपद प्राकृत-भाषा का धर्मोपदेश कथा-प्रधान वह महान् ग्रन्थ है, जिसका अनेक दृष्टियों से अध्ययन आवश्यक है। इसके विशद् अध्ययन के आधार पर कई महत्त्वपूर्ण शोध-प्रबन्ध लिखे जा सकते हैं। मैंने अपने इस निबन्ध में उपदेशपद का संक्षिप्त अध्ययन कर इसमें व्यक्त आचार्य हरिभद्र के विचारों को उनके द्वारा प्रस्तुत कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। ..
वस्तुत: प्राकृत-भाषा भारत की प्राचीनतम उन भाषाओं में से एक है जिसे अनेक भाषाओं की जननी होने का गौरव प्राप्त है। यह वह भाषा है, जिसके साहित्य में जीवन की समस्त भावनाएँ व्यञ्जित हुई हैं। भारतीय शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता, समाज, धर्म एवं आध्यात्म आदि का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्राकृत-साहित्य का अध्ययन बहुत आवश्यक है। प्राकृत-भाषा और साहित्य तो जैनधर्म का प्राण है। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने आचार, विचार, व्यवहार, सिद्धान्त एवं आध्यात्म को सरल रूप में समझाने एवं तदनुकूल जीवन ढालने की दृष्टि से प्राकृत-भाषा में उपदेश-प्रधान धर्मकथा-विषयक-साहित्य का प्रणयन किया और नैतिक उपदेश, मर्मस्पर्शी कथन एवं लोकपक्ष का उद्घाटन करते समय सरल, स्निग्ध तथा मनोरम शैली का उपयोग किया।
उपदेशप्रधान कथा-साहित्य की समृद्ध एवं गौरवपूर्ण-परम्परा है। धर्मदासगणि विरचित उपदेशमाला, हरिभद्रसूरि का उपदेशपद, जयसिंहसूरि का धर्मोपदेशमालाविवरण, जयकीर्ति का शीलोपदेशमाला, मलधारी हेमचन्द्रसूरि की भवभावना तथा उपदेशमालाप्रकरण, जिनचन्द्रसूरि की संवेगरंगशाला, आसद्कृत विवेकमञ्जरी, मुनिसुन्दरसूरिकृत उपदेशरत्नाकर तथा शुभवर्धनगणिकृत वर्धमानदेशना आदि प्रमुख ग्रन्थ उपदेश-प्रधान कथाओं के अनुपम संग्रह हैं।
उपदेशपद के रचयिता आचार्य हरिभद्रसूरि बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने बी०एल० इस्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली में आचार्य हरिभद्र पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध आलेख।
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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन
: २३
विविध विधाओं में श्रेष्ठ साहित्य का प्रणयन किया।
योग, दर्शन, अध्यात्म, आगम, सिद्धान्त, आचार, कथा और काव्य आदि विविध विधाओं साहित्य का प्रणयन करके इन्होंने प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के साहित्य के विकास में महनीय योगदान किया है। ये जन्मनः अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् ब्राह्मण थे और चित्तौड़ के राजा जितारि के राजपुरोहित भी। बाद में प्रसंगवश जैन साध्वी याकिनी महत्तरा के उपदेश से जैनधर्म में दीक्षित हुए। इनके दीक्षागुरु जिनदत्त थे। याकिनी महत्तरा को इन्होंनें अपनी धर्ममाता माना और अपने को याकिनीसूनु कहा । "
दीक्षा के बाद अपनी विद्वत्ता तथा विशुद्ध साधु आचार का पालन करने के कारण ये अपने आचार्य के पट्टधर आचार्य बने। इनका जीवन राजपूताना और गुजरात में विशेष रूप से व्यतीत हुआ। इनके द्वारा विरचित अधिकांश ग्रन्थों के अन्त में 'विरह' शब्द उपलब्ध होता है।
आचार्य हरिभद्र को १४४४ ग्रन्थों का रचयिता माना जाता है। प्रबन्धकोश के कर्ता राजशेखरसूरि ने इनको १४४० ग्रन्थों का रचयिता लिखा है; किन्तु इनमें से कुछ ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इनकी उपलब्ध कृतियों का विवरण इस प्रकार है। १. मूल ग्रन्थ
१. धर्मसंग्रहणी, २. पंचाशकप्रकरण, ३. पंचवस्तुकप्रकरण, ४. धर्मबिन्दुप्रकरण, ५. अष्टकप्रकरण, ६. षोडशकप्रकरण, ७. सम्बोध प्रकरण, ८. उपदेशपद, ९ षड्दर्शनसमुच्चय, १०. अनेकान्तजयपताका, १२. अनेकान्तवादप्रवेश, १३. लोकतत्त्वनिर्णय, १४. सम्बोधसप्ततिप्रकरण, १५. समराइच्चकहा, १६. योगविंशिका, १७. योगदृष्टि समुच्चय, १८. योगबिन्दु ।
२. टीका ग्रन्थ
१. नन्दीसूत्र, २. पाक्षिकसूत्र, ३. प्रज्ञापनासूत्र, ४ आवश्यकसूत्र, दशवैकालिक, ६. पञ्चसूत्र, ७. अनुयोगद्वार, ८. ललितविस्तरा, ९. तत्त्वार्थवृत्ति ।
५.
कथा-साहित्य के अन्तर्गत आचार्य हरिभद्र ने एक ओर समराइच्चकहा जैसा बड़ा धर्मकथा ग्रन्थ रचा वहीं व्यंग्यप्रधान धूर्ताख्यान जैसा कथा ग्रन्थ भी लिखा। इतना ही नहीं इन्होंने जैनागम ग्रन्थों की टीकाओं में से दशवैकालिकटीका में लगभग तीस तथा उपदेशपद नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ में लगभग सत्तर प्राकृत कथाएँ दी हैं। वस्तुतः आगमों का टीका साहित्य कथाओं तथा दृष्टान्तों का अक्षय भण्डार है। ये टीकाएँ संस्कृत में होने पर भी इनका कथाभाग प्राकृत में ही उपलब्ध है।
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२४ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
उपदेशपद जैसे महान् ग्रन्थ के माध्यम से अनेक विषयों के साथ ही अनेक लघुकथाएँ लिखकर आचार्य हरिभद्रसूरि ने प्राकृत कथा-साहित्य की श्रीवृद्धि में योग दिया है। उपदेशपद धर्मकथा अनुयोग के अन्तर्गत प्राकृत आर्या छन्द की १०४० गाथाओं में रचित एक अतिमहत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। टीका ग्रन्थ
उपदेशपद का ऐसा लोकप्रिय एवं शिक्षाप्रद कथा ग्रन्थ है जिससे आकृष्ट हो अनेक आचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं। १. सुखसम्बोधिनीटीका
उपदेशपद पर सबसे अधिक लोकप्रिय टीका तार्किक शिरोमणि आचार्य मुनिचन्द्रसूरि द्वारा रचित सुखसम्बोधिनी टीका है। १४५०० (साढ़े चौदह हजार) श्लोक प्रमाण यह बृहद्काय टीका जैन महाराष्ट्री प्राकृत एवं संस्कृत-भाषा में पद्य तथा गद्य रूप में है जो कि अनेक दृष्टान्तों, आख्यानों, सुभाषितों एवं सूक्तियों से भरपूर है। इसमें अनेक सुभाषित अपभ्रंश-भाषा में भी हैं। इस टीका की रचना विक्रम संवत् ११७४ में 'अणहिल्लपाटक' नामक नगर में मुनिचन्द्रसूरि ने की। इन्होंने उपदेशपद में सांकेतिक तथा पूर्णकथाओं को प्राकृत-भाषा में तथा कहीं-कहीं प्राकृत शब्दों का संस्कृत अर्थ रूप में सन्दर्भ जोड़कर पर्याप्त विस्तार किया है।
मुनिचन्द्रसूरि यशोभद्रसूरि के शिष्य तथा वादिदेवसूरि (स्याद्वादरत्नाकर के कर्ता) एवं अजितदेवसरि के गुरु थे। आनन्दसरि तथा चन्द्रप्रभसूरि इनके गुरु भाई थे। मुनिचन्द्रसूरि उच्चकोटि के विद्वान् थे। उपदेशपद पर सुखसम्बोधिनी टीका के अतिरिक्त इन्होंने अनेक मौलिक एवं टीका ग्रन्थों की रचना की है। छोटे-बड़े कुल मिलाकर इन्होंने ३१ ग्रन्थ रचे। मौलिक ग्रन्थों में प्रमुख हैं-- अंगुलसप्तति, वनस्पतिसप्तति, आवश्यकसप्तति, गाथाकोश, उपदेशामृतकुलक, हितोपदेशकुलक, सम्यकत्वोपादविधि, तीर्थमालास्तव आदि प्रमुख हैं। टीका ग्रन्थों में प्रमुख हैंललितविस्तरापञ्जिका, अनेकान्तजयपताकाटिप्पनकम्, धर्मबिन्दुविवृत्ति, योगबिन्दुविवृत्ति, कर्मप्रकृति विशेषवृत्ति, सार्धशतकचूर्णि एवं उपदेशपदसुखसम्बोधिनीवृत्ति। उपदेशपद पर इस वृत्ति की रचना में लेखक के शिष्य रामचन्द्रगणि ने भी सहायता की।
२. मुनिचन्द्रसूरि की उपर्युक्त टीका के प्रारम्भिक भाग से ज्ञात होता है कि उपदेशपद पर सर्वप्रथम पूर्वाचार्य द्वारा लिखित कोई गहन टीका थी, किन्तु कालप्रभाव से अल्पबुद्धि वाले उसे स्पष्ट समझने में समर्थ नहीं थे अत: सुखसम्बोधिनी नामक इस सरल वृत्ति को बनाने का प्रयत्न किया गया।
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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : २५
३. वर्धमानसूरि ने वि० सं० १०५५ में उपदेशपद पर एक टीका लिखी है। इसकी प्रशस्ति पार्श्वलगणि ने रची है। इस समग्र टीका का प्रथमादर्श आर्यदेव ने तैयार किया था। 'वन्दे देवनरेन्द्र'- से शुरु होने वाली इस टीका परिमाण ६४१३ श्लोक है।"
४. उपदेशपद पर एक अज्ञातकर्तृक टीका भी है। १०
हरिभद्रसूरि ने उपदेशपद ग्रन्थ का प्रारम्भ मङ्गलाचरणपूर्वक करते हुए भगवान् महावीर को नमन किया है तथा उनके उपदेश के अनुसार मन्दमति लोगों के प्रबोधन हेतु कुछ उपदेश पदों को कहने की प्रतिज्ञा की है -
नमिऊण महाभागं तिलोगानाहं जिणं महावीरं । लोयालोयमियंक सिद्धं सिद्धोवदेसत्थं । । १ । । वोच्छं उवएसमए कइइ अहं तदुवदेसओ सुहुमे । भावत्थसारजुत्ते मंदमइविबोहणडाए । । २ ॥
इसी तरह ग्रन्थ के अन्त में कहते हुए ग्रन्थ का स्वकर्तृत्व सूचित किया हैसुवएसेणेते उवएसपया इहं समक्खाया।
समयादुद्धरिऊणं मंदमतिविबोहणट्ठाए । । १०३८ ।। जाइणिमयहरियाए रइता एते उ धम्मपुत्तेण । हरिभद्दायरिएणं भवविरहं इच्छमाणेणं । । १०३९ ।।
उपदेशपदवृत्ति के रचयिता मुनिचन्द्रसूरि ने भी मङ्गलाचरणपूर्वक उपदेशपदों का दो प्रकार से अर्थ करते हुए कहा है कि 'सकल पुरुषार्थों में प्रधान मोक्ष ही है, अतः मोक्ष पुरुषार्थ-विषयक उपदेशों के पद अर्थात् मनुष्य जन्म दुर्लभत्व आदि स्वानभूत शिक्षाविशेष पदों का इसमें प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय अर्थ के अनुसार 'उपदेश' और 'पद' दोनों में कर्मधारय समास करने पर उपदेशों को ही पद माना गया है। तदनुसार मनुष्य-जन्म की दुर्लभता आदि अनेक कल्याणजनक विषयों की इस ग्रन्थ में चर्चा की गयी है जो उपदेशात्मक वचन रूप है । ११
हरिभद्रसूरि ने मङ्गलाचरण आदि के बाद सभी उपदेश पदों में प्रधान उपदेश पद का उल्लेख करते हुए कहा है
लहूण माणुसत्तं कहंचि अइदुल्लहं भवसमुद्दे ।
सम्मं निउंजियत्वं कुसलेहिं सयावि धम्मम्मि । । ३ । ।
अर्थात् इस संसार समुद्र में जिस किसी प्रकार से अति दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर आत्महितैषीजनों को सद् सम्यक् धर्म में कुशलतापूर्वक मन, वचन और शरीर को
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२६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ लगाकर उसका सदुपयोग करना चाहिए।
मनुष्यजन्म की दुर्लभता के सम्बन्ध में निम्नलिखित दस दृष्टान्त दिये हैं
१. चोल्लक, २. पाशक, ३. धान्य, ४. धूत, ५. रत्न, ६. स्वप्न, ७. चक्र, ८. चर्म, ९. युग (यूप) और १०. परमाणु।१२
इन दस दृष्टान्तों द्वारा मनुष्य जन्म की दुर्लभता को अलग-अलग कथानकों द्वारा प्रस्तुत किया है जिसका विवेचन गाथा संख्या ४ से १९ तक की गाथाओं में किया है तथा टीकाकार मुनिचन्द्र ने प्राकृत कथाओं के रूप में इन दृष्टान्तों को पद्य रूप में बहुत विस्तृत किया है।
. इन दस दृष्टान्तों में 'चोल्लक' नामक प्रथम दृष्टान्त को टीकाकार ने ५०५ गाथाओं में प्रस्तुत करते हुए कहा है – जिस प्रकार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के यहां एक बार भोजन करके पुन: भोजन करना दुर्लभ हुआ, उसी प्रकार एक बार मनुष्य जन्म पाकर उसे पुनः पाना बड़ा ही दुर्लभ है। १३ यहाँ 'चोल्लक' शब्द देशी है जिसका अर्थ है - 'भोजन'।
२. पाशक दृष्टान्त१४ में कहा है कि नन्दवंश का उन्मूलन कर चन्द्रगुप्त को पाटलिपुत्र का राज्य किस प्रकार प्राप्त हो, यह चाणक्य सोचने लगा। उसने अर्थसंग्रह के लिए एक यन्त्रपाश बनाया और किसी देव की कृपा से उसके पाशे प्राप्त किये। उसने दस पाशे को नगर के तिमुहानी और चौमुहानी आदि प्रमुख रास्तों पर रखवा दिया। चाणक्य ने उस द्यूतपाश के पास एक दीनार भरी थाली भी रखवा दी और यह कहा गया कि जो कोई जुए में जीत जायेगा, उसे यह दीनार भरी थाली दी जायेगी और जो हार जायेगा वह एक दीनार देगा। इस देव निर्मित पाशे के द्वारा किसी का भी जीतना सम्भव नहीं था, सभी हारते जाते और एक-एक दीनार देते जाते। इस प्रकार चाणक्य ने बहुत-सा धन अर्जित कर लिया।
३. धान्य का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए कहा है कि यदि समस्त भरतक्षेत्र के धान्यों को मिलाकर उनमें एक प्रस्थ सरसों मिला दी जाए और किसी कमजोर एवं रोगी वृद्धा स्त्री से उस समस्त धान्य में से एक प्रस्थ सरसों अलग करने को कहा जाये जैसे- समस्त धान्य में से थोड़ी से सरसों को पृथक् करना अत्यन्त दुर्लभ है उसी प्रकार अनेक योनियों में भटक रहे जीव को मनुष्यत्व की प्राप्ति दुर्लभ है।१५
४. रत्न का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जैसे- समुद्र में किसी जहाज के नष्ट हो जाने पर खोये हुए रत्न की प्राप्ति दुर्लभ है वैसे ही मनुष्य जन्म की प्राप्ति दुर्लभ है।१६
इसके बाद सूत्रदान के अन्तर्गत ९७ गाथाओं में नन्दसुन्दरी की कथा प्रस्तुत
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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : २७ की है और विनय सूत्रदान में गुरु के कर्त्तव्यों का उल्लेख करते हुए कहा है कि - 'गुरु को सूत्र का दान योग्य पात्रों को विधिपूर्वक ही करना चाहिए, क्योंकि सिद्धाचार्यों द्वारा सूत्रानुसार सूत्रदान करना निश्चय ही योग्य कार्य है। आसन्न भव्य जीवों की पहचान भी सूत्रों के अनुसार होती है। अत: द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार उचित प्रवृत्ति जिनेन्द्रदेव के शासन में सर्वत्र ही गौरव (बहुमान) प्राप्त कराती है तथा इसके विपरीत आचरण से स्व-पर का विनाश और आज्ञाकोप आदि दोषों का सेवन होता है अत: अति निपुणबुद्धि से सम्यक् प्रवृत्ति करनी चाहिए।१७
बद्धि के भेद- आचार्य हरिभद्र ने उपदेशपद में बद्धि के चार भेद बतलाये हैं।८ - १. औत्पत्तिकी, २. वैनयिकी, ३. कर्मजा तथा ४. पारिणामिकी।।
१. औत्पत्तिकी बुद्धि- इस बुद्धि की उत्पत्ति में क्षमोपशम कारण होता है।
२. वैनयिकी बुद्धि- विनय अर्थात् गुरु-शुश्रूषा आदि प्रधान कारण जिसमें होता है वह वैनयिकी बुद्धि है।
३. कर्मजा बुद्धि- कर्म रूप नित्य व्यापार से जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह कर्मजा बुद्धि है।
४. पारिणामिकी बुद्धि- सुदीर्घकाल तक पूर्वापर तत्त्व-अवलोकन आदि से उत्पन्न आत्मधर्म जिसमें प्रधान कारण होता है उसे पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं।
बुद्धि के उपर्युक्त चार भेदों को अनेक पदों द्वारा अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से समझाया है।
प्रथम औत्पत्तिकी बुद्धि के विषय में सत्रह उदाहरण (पद) प्रस्तुत किये हैं१. भरतशिला, २. पणित, ३. वृक्ष, ४. मुद्रारत्न, ५. पट, ६. सरड, ७. काक, ८. उच्चार, ९. गज (गोल खम्भे), १०. भाण्ड (घयण), ११. गोल, १२. स्तम्भ, १३. क्षुल्लक, १४. मार्ग, १५. स्त्री. १६. द्वौपती तथा १७. पुत्र।१९
उपर्युक्त दृष्टान्तों में से रोहक कुमार के ये तेरह दृष्टान्त नन्दीसूत्र में बतलाये हैं --- भरहसिल, मिंट, कुक्कुड, तिल, बालुण, हत्थि, अगड, वणसंडे, पासय, अइआ, पत्ते, खाडहिला तथा पंचपियरो। इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि इन सभी आख्यानों का स्रोत नन्दीसूत्र है। भाव तथा भाषा की दृष्टि से यह भी ज्ञात होता है कि वैनयिकी तथा पारिणामिकी बुद्धि के लक्षण एवं उदाहरण भी. नन्दीसूत्र से ग्रहण किये हैं।
भरतशिला नामक पद में रोहक कुमार का उदाहरण दिया है कि उज्जैन के राजा जितशत्रु प्रत्युत्पन्नमति रोहक की अनेक प्रकार से बुद्धि की परीक्षा लेते हैं और अन्त में उसे अपना प्रधानमन्त्री बना लेते हैं।२१ इस कथा में रोहक की बुद्धि का चमत्कार
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२८ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ विभिन्न रूपों में वर्णित है।
'स्त्री-व्यन्तरी' के विषय में कारणिक - नामक कथा में कहा है कि एक युवा पुरुष गाड़ी पर अपनी पत्नी को लेकर कहीं जा रहा था। रास्ते में पत्नी को प्यास लगी अत: पानी पीने के लिए गाड़ी से उतरकर वह गयी। इतने में एक व्यन्तरी ने उस पुरुष को देखा और उस पर मुग्ध हो गयी। वह व्यन्तरी उस युवा की पत्नी का रूप बनाकर गाड़ी में आकर बैठ गयी। युवक ने उसे अपनी पत्नी समझा और गाड़ी आगे बढ़ा दी। पत्नी पानी पीकर लौटी और देखा कि गाड़ी तो आगे बढ़ गयी है तो वह रोने लगी। उसने चिल्लाकर अनेक प्रकार से अपने पति को गाड़ी रोकने के लिए आवाज लगायी। युवक ने गाड़ी रोकी और इन दोनों स्त्रियों की समान आकृति देखकर उसे महान् आश्चर्य हुआ।२२
इसके अन्तर्गत कुछ मनोरंजक आख्यान इस प्रकार हैं - किसी रक्तपट (बौद्ध भिक्षु) ने एक क्षुल्लक से पूछा--- ‘इस विनातट (वेन्यातर) नगर में कितने कौवे हैं? क्षुल्लक ने उत्तर दिया- साठ हजार कौवे हैं। तब भिक्षु ने पुन: प्रश्न किया- यदि साठ हजार से कम या ज्यादा हुए तब?' क्षुल्लक ने तुरन्त उत्तर दिया - यदि कम हुए तब यह समझना चाहिए कि कुछ कौवे विदेश चले गये और यदि अधिक हैं तब समझना चाहिए कि बाहर से कुछ और कौवे अतिथि के रूप में आ गये हैं। ऐसा उत्तर सुनकर शाक्यपुत्र भिक्षु निरुत्तर होकर रह गया।२३
इसी प्रकार एक बार किसी शाक्य भिक्षु ने एक गिरगिट को अपना सिर धुनते हुए देखा। एक क्षुल्लक से वह उपहासपूर्वक बोला- तुम तो सर्वज्ञ पुत्र हो, अत: यह बतलाओ कि यह गिरगिट अपना सिर क्यों धुन रहा है? उस क्षुल्लक ने तुरन्त उत्तर दिया - 'शाक्यव्रती! तुम्हें देखकर चिन्ता से आकुल हो यह ऊपर-नीचे देख रहा है। तुम्हारी दाढ़ी-मूंछ देखकर इसे लगता है कि तुम भिक्षु हो, लेकिन जब वह तुम्हारे लम्बे चीवर को देखता है तो तुम इसे भिक्षुणी नजर आते हो। यही कारण है कि यह गिरगिट अपना सिर धुन रहा है। यह सुनकर बेचारा भिक्षु निरुत्तर रह गया।
उपदेशपद में इसी तरह के और भी मनोरंजक आख्यान दिये गये हैं। ‘कच्छप का लक्ष्य' २५ तथा 'युवकों से प्रेम' २६ नामक कथाएँ व्यंग्य प्रधान हैं।
विविध आख्यानों के माध्यम से हरिभद्रसरि ने औत्पत्तिकी आदि चारों प्रकार की बुद्धि की विशेषताएँ प्रगट की हैं। बिना देखे, बिना सुने और बिना जाने विषयों को उसी क्षण में अबाधित रूप से ग्रहण करना तथा तत्सम्बन्धी चमत्कारों को कथाओं द्वारा दिखलाना ही इन कथाओं का उद्देश्य है।
संख्या तथा मार्मिकता की दृष्टि से हरिभद्र की लघु कथाओं में बुद्धि चमत्कार प्रधान कथाओं का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इस श्रेणी की कथाओं का शिल्प विधान नाटकीय
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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : २९ तत्त्वों से सम्पृक्त रहता है। इतिवृत्त, चरित्र आदि के रहने पर भी प्रधानतः बुद्धि चमत्कार ही व्यक्त होता है।
औत्पत्तिकी बद्धि 'गोल' पद के अन्तर्गत कहा है कि किसी बालक की नाक में खेलते-खेलते लाख की एक गोली चली गयी। जब बालक के पिता को पता लगा तो उसने एक सुनार को बुलाया। सुनार ने सावधानीपूर्वक लोहे की गरम सलाई नाक में डाल कर गोली तोड़ दी फिर धीरे से सलाई निकाली और पानी में डालकर ठण्डी कर दी। पुन: उस ठण्डी सलाई से नाक के अन्दर की गोली बाहर निकाल दी और वह बालक स्वस्थ हो गया।२८
वैनयिकी बुद्धि के अन्तर्गत निमित्त विद्या, अर्थशास्त्र, चित्रकला, लेखन, गणित, अश्व, कूप, गर्दभ, अगद (विष) परीक्षा, गणिका तथा अंक एवं लिपि ज्ञान से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण बातें कथानकों सहित दी गयी हैं।२९ उपदेशपदवृत्ति में अट्ठारह प्रकार की लिपियों का उल्लेख विशेष महत्त्वपूर्ण है। इन लिपियों के नाम इस प्रकार हैंहंसलिपि, भूतलिपि, यक्षी, राक्षसी, उड्डी, यवनी, फुडुक्की, कीडी, दविडी, सिंधविया, मालविणी, नटी, नागरी, लाटलिपि, पारसी, अनिमित्ता, चाणक्यी और मूलदेवी।२०
खेल-खेल में लिपि विद्या सिखाने के विषय में एक आख्यान है कि किसी राजा ने अपने पुत्र को लिपि सिखाने के लिए किसी उपाध्याय के साथ रखा; किन्तु अनुशासनहीनतावश वह लिपि सीखने में उत्साहित नहीं था और बालक खेल में ही मस्त रहता। उपाध्याय भी सिखाने में लापरवाही करते। किन्तु बाद में राजा के भय से उपाध्याय ने खड़िया, मिट्टी तथा उसकी गोलियों के माध्यम से खेल-खेल में भूमि, पत्थर आदि पर लिख-लिख कर और खड़िया मिट्टी के अक्षरों के आकार बनाकर उसे सिखाया। इससे वह शीघ्र ही लिपि विद्या सीख गया।३१
_ 'शत्रुता' शीर्षक कथा में वररुचि और शकटाल इन दोनों बुद्धिजीवियों की शत्रुता का अंकन किया गया है। वररुचि ने अपनी चालाकी द्वारा शकटाल को मरवा दिया। शकटाल के पुत्र क्षेपक ने वररुचि से बदला चुकाया। कथा में आद्यन्त दांव-पेंच का व्यापार निहित है।३२
कर्मजा बुद्धि के अन्तर्गत भी अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। इसी में तन्तुवाय, रथकार, कान्दविक, कुम्भकार, चित्रकार, मृतपिण्ड चित्रादि ज्ञान-सम्बन्धी विवरण हैं।३३
पारिणामिकी बुद्धि के आख्यानों में अभयकुमार, काष्ठक श्रेष्ठि, श्रेणिक राजसुत नन्दिषेण, चिलातीपुत्र, चाणक्य-चन्द्रगुप्त, स्थूलिभद्र आचार्य, वज्रस्वामी, गौतमस्वामी, चण्डकौशिक, नारद-पर्वत आदि के आख्यान तथा नारी चरित्रों में रति सुन्दरी (गाथा ६९७), बुद्धिसुन्दरी (गाथा ७०३), गुणसुन्दरी (गाथा-७१३), ऋद्धिसुन्दरी (गाथा ७०८), नृपपत्नी (गाथा ८९१) तथा देवदत्ता आदि के आख्यान ऐतिहासिक दृष्टि
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३० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ से बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं।
__ इसी के अन्तर्गत 'नन्द की उलझन' कथा का आरम्भ विलास से और अन्त त्याग से होता है। आदि से अन्त तक कार्य-व्यापारों का तनाव है। नन्द साधु हो जाने पर भी अपनी पत्नी सुन्दरी का ही ध्यान किया करता है। रोमान्स उसके जीवन में घुला-मिला है। नन्द का भाई अपने कई चमत्कारपूर्ण कार्यों के द्वारा नन्द को सुन्दरी से विरक्त करता है।३५
यहाँ आर्य महागिरि तथा आर्य सहस्ति के आख्यान भी दिये गये हैं।३६ -गजायपुर तीर्थ में महागिरि ने पादोपगमन धारण कर मृत्यु प्राप्त की थी। गोविन्द वाचक के दृष्टान्त में कहा है कि ये बौद्ध धर्मानुयायी महावादी थे और श्रीगुप्तसूरि से शास्त्रार्थ में पराजित होने पर जैनधर्म में दीक्षित हुए थे।३७ धर्मबीज की चर्चा करते हुए कहा गया है कि जैन शासन में श्रद्धा प्रधान दया-दान आदि अनवद्य भाव ही धर्मबीज है।३८ स्थविरकल्प में करणीय कार्य,३९ वैयावृत्त का स्वरूप सम्यग्दर्शन की निर्मलता आदि विषयों का अच्छा प्रतिपादन है।४०
आगे आध्यात्म की प्रधानता के विषय में कहा है कि यही मूलबद्ध अनुष्ठान है। इसके विपरीत सब कुछ शरीर में लगे हुए मैल की तरह असार है। जैनेतर शास्त्रों में भी आध्यात्म की प्रधानता वर्णित है। १ ।।
चैत्यद्रव्य के उपयोग की विविध प्रकार से निन्दा करते हुए इससे सम्बन्धित संकाश श्रावक का आख्यान दिया है जो कि अनेक जन्म-जन्मान्तरों तक दुःख भोगता है। उपदेशपद में देवद्रव्य का स्वरूप तथा उसके रक्षण के फल का अच्छा प्रतिपादन है। २ सम्यग्ज्ञान का स्वरूप और फल, अभिग्रह, कर्मबन्ध के हेतु, गुणस्थान, अणुव्रत, महाव्रत, पञ्चसमिति, त्रिगुप्ति, गुरुकुलवास से ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति, स्वाध्याय, यत्नाचार, उत्सर्ग-अपवाद लक्षण से सभी नयों द्वारा अभिमत तात्त्वित स्वरूप, दुषमाकाल में चरित्र की स्थिति आदि विषयों का प्रतिपादन विभिन्न आख्यानों द्वारा विस्तृत रूप में किया गया है।
धर्माचरण का निरतिचार पालन करने से श्रेय पद की प्राप्ति होती है। इस सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र ने शङ्क-कलावती का बड़ा आख्यान दिया है। टीकाकार ने इस आख्यान का ४५१ आर्या छन्दों में विस्तार किया है।४३ इसी प्रसंग में शक्कर और आटे से भरे हए बर्तन के उलट जाने, खांड मिश्रित सत्तू और घी की कुण्डी उलट जाने एवं उफान से निकले हुए दूध के हाथ पर गिर जाने से किसी सज्जन पुरुष के कुटुम्ब की दयनीय स्थिति का वृत्तिकार ने बड़ा ही सजीव चित्रण किया है।
धर्म, सुख, पाण्डित्य आदि का प्रश्नोत्तर रूप में स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा है कि- धर्म क्या है? उत्तर- जीव दया। सुख क्या है? - उत्तर- आरोग्य। स्नेह
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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : ३१
क्या है ? क्या है ?
उत्तर- सद्भाव। पाण्डित्य क्या है ? उत्तर- हिताहित का विवेक । विषम उत्तर - कार्य की गति । प्राप्त करने योग्य क्या है ? उत्तर- मनुष्य द्वारा गुण ग्रहण सुख से प्राप्त करने योग्य क्या है ? उत्तर - सज्जन पुरुष । तथा कठिनता से प्राप्त करने योग्य क्या है ? उत्तर- दुर्जन पुरुष ४४
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आगे अनेक विषयों को सोदाहरण प्रस्तुत करते हुए धर्मरत्न प्राप्ति की योग्यता को समझाया है । ४५ विषयाभ्यास में शुक और भावाभ्यास में नरसुन्दर, ४६ की तथा शुद्धयोग में दुर्गत नारी और शुद्धानुष्ठान में रत्नशिख की कथा दी है। ४७ ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि शाश्वत सुख चाहने पुरुष को कल्याणमित्र-योगादि रूप विशुद्ध योगों में धर्म सिद्ध करने का सम्यक् प्रयास करना चाहिए। ४८
वाले
धर्मकथाप्रधान इस उपदेशपद की लघुकथाओं का विभाजन निम्नलिखित वर्गों में किया जा सकता है"
१. कार्य एवं घटना प्रधान कथाएं
१. इन्द्रदत्त (गाथा १२ ), २. धूर्तराज ( गाथा ८६), ३. शत्रुता ( गाथा ११७)। २. चरित्र प्रधान कथाएं
१. मूलदेव ( गाथा ११ ), २. विनय ( गाथा २०), ३. शीलवती (गाथा ३०-३४), ४. रामकथा ( गाथा ११४), ५. वज्रस्वामी ( गाथा १४६ ), ६. गौतम स्वामी (गाथा १४२), ७. आर्य महागिरि (गाथा २०३-२११), ८. आर्य सुहस्ति (गाथा २०३-२११), ९. विचित्र कर्मोदय ( गाथा २०३ - २११), १०. भीमकुमार ( गाथा २४५ - २५० ), ११. रुद्र ( गाथा ३९५-४०२), १२. श्रावकपुत्र (गाथा ५०६-५१७), १३. पाखण्डी (गाथा २५८), १४. कुरुचन्द्र ( गाथा ९५२-९६९), १५. शंख नृपति ( गाथा ७३६ - ७६२), १६. ऋद्धिसुन्दरी (गाथा ७०८), १७. रति - सुन्दरी (गाथा ७०३), १८. गुणसुन्दरी (७१३), १९. नृप पत्नी (गाथा ८६१-८६८) ।
३. भावना और वृत्तिप्रधान कथाएं
१. गालव (गाथा ३७८-३८२), २. मेघकुमार (गाथा २६४-३७२), ३. तोते की पूजा (गाथा ९७५-९६९), ४. वृद्धा नारी (गाथा १०२० -१०३०)।
४. व्यंग्य प्रधान कथाएं
१. कच्छप का लक्ष्य (गाथा १३), २. युवकों से प्रेम (गाथा ११३)।
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३२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ ५. बुद्धि चमत्कार प्रधान कथाएं
१. चतुर रोहक (गाथा ५२-७४), २. पथिक के फल (गाथा ८१), ३. अभयकुमार (गाथा ८२), ४. चतुरवैद्य (गाथा ८०), ५. हाथी की तौल (गाथा ८७), ६. मन्त्री की नियुक्ति (गाथा ९०), ७. व्यन्तरी (९४), ८. कल्पक की चतुराई (१०८), ९. मृगावती कौशल (गाथा १०८)। ६. प्रतीक प्रधान कथाएं
१. धन्य की पुत्र वधुएँ (गाथा १७२-१७९)। ७. मनोरंजन प्रधान कथाएं
१. जामाता परीक्षा (गाथा १४३), २. राजा का न्याय (गाथा १२०), ३. विषयी सुख (पृ. ३९८)। ८. नीति या उपदेशप्रधान कथाएं
१. सवलित रत्न (गाथा १०), २. सोमा (५५०-५९७), ३. वरदत्त (६०५-६६३), ४. गोवर (५५०-५९७), ५. सत्संगति (६०८-६६३), ६. कलि (८६७), ७. कुन्तलदेवी (४९७), ८. सूरतेज (१०१३-१०१७)। ९. प्रभावप्रधान कथाएं
१. ब्रह्मदत्त (गाथा ६), २. पुण्यकृत्य की प्राप्ति (गाथा ८), ३. प्रभाकर-चित्रकार (गाथा ३६२-३६६), ४. कामासक्ति (गाथा १४७), ५. माषतुष (गाथा १९३)।
हम देखते हैं कि उपदेशपद एक अनुपम ग्रन्थ है जिसमें कथानकों के माध्यम से सदाचार की प्रेरणा दी गयी है। वस्तुत: कथाएं जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपने में समेटे हए सहजता के साथ मनोरंजन करती हुई अपूर्व प्रेरणाएँ प्रदान करती हैं। सैकड़ों प्रकार के सिद्धान्त जहाँ कार्यकारी नहीं होते वहां प्रभावपूर्ण कथा या दृष्टान्त व्यक्ति को मार्ग पर लाने के लिए हृदय परिवर्तन में अधिक सहकारी बनती हैं, क्योंकि ऐसी कथाओं में कोई न कोई गहरी संवेदना रहती अवश्य है।
डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इन कथाओं के विषय में लिखा है कि हरिभद्र की कार्य और घटनाप्रधान कथाओं में घटनाओं के चमत्कार के साथ पात्रों के कार्यों की विशेषता, आकर्षण और तनाव आदि भी हैं। यों तो ये कथाएं कथारस के उद्देश्य से नहीं लिखी गयी हैं। लेखक विषय का उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण करना चाहता है अथवा उपदेश को हृदयङ्गम कराने के लिए कोई उदाहरण उपस्थित करता है, तो भी कथातत्त्व का
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_ आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : ३३ समीचीन सनिवेश है।५० इन लघु कथाओं में जीवन-निर्माण, मनोरंजन, मानसिक क्षुधा की तृप्ति, जीवन और जागतिक सम्बन्धों के विश्लेषण एवं चिरन्तन और युग सत्यों के उद्घाटन की सामग्री प्रचुर रूप में विद्यमान है तथा सामान्य रूप से ये सभी कथाएँ, दृष्टान्त या उपदेश-कथाएं ही हैं।५१
इस प्रकार उपदेशपद में व्यक्त हरिभद्रसूरि के चिन्तन के महत्त्व को देखते हुए उसके साङ्गोपाङ्ग एवं तुलनात्मक अध्ययन की आज के सन्दर्भ में बहुत आवश्यकता है ताकि उनके विराट् व्यक्तित्व और चिन्तन का लाभ सर्वसाधारण को उपलब्ध हो सके। सन्दर्भ : १. जाइणिमयहरियाए रइता एतेउ धम्मपुत्तेणं।
हरिभद्दायरिएणं भवविरहं इच्छमाणेणं।। - उपदेशपद, १०३९. २. (क) तम्हा करेह सम्मं जह विरहो होइ कम्माणं। पञ्चाशक, ९४०
(ख) दुक्ख विरहाय भव्वा लंभतु जिण धम्म संबोधि। धर्मसंग्रहणी, १३६९. ३. उपदेशपद (उवएसपय) नामक मूल ग्रन्थ का प्रकाशन सन् १९२८ में श्री
ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम से पंचाशक, धर्मसंग्रहणी आदि आठ ग्रन्थों के साथ प्रकाशित हुआ है। उपदेशपद महाग्रन्थ नाम से दो भागों में श्री मन्मुक्तिकमल जैन मोहनभाला,
बड़ोदरा से क्रमश: १९२३ एवं १९२५ में प्रकाशित। ५. ग्रन्थाग्र० १४५०० सूत्र संयुक्तोपदेशपदवृत्तिश्लोकमानेन प्रत्यक्षरगणनया
उपदेशपदवृत्ति की प्रशस्ति का अन्तिम वाक्य, पृ. ४३४. उपदेशपदवृत्ति द्वितीयो भागः, आद्य वक्तव्य (भूमिका), पृ. ६-७. साहाय्यमत्र परमं कृतं विनेयेन रामचन्द्रेण। गणिना, लेखसंशोधनादिकं शेषशिष्यैश्च।। उपदेशपदवृत्ति, अन्तिम प्रशस्ति ८, पृ. ४३४. पूर्वैयद्यपि कल्पितेह गहना वृत्ति: ...... यत्नो यमास्थीयते। -उपदेशपदवृत्ति
(प्रारम्भिक), ३. ९-१०.जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-४, पृ. १९५. ११. उपदेशपद, गाथा १-२ की वृत्ति, पृ. २. १२. अइदुल्लहं च एयं चोल्लगपमुहेहिं अत्थ समयम्मि।
भणियं दिटुंतेहिं अहमवि ते संपाविक्खामि।।उपदेशपद।।४।।
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श्रमण / जुलाई-दिसम्बर २००२
चोल्लगपासगधण्णे- जुए रयणे य सुमिणचक्के या चम्मजुगे परमाणू - दस दिट्टंता मणुयलंभे | | उपदेशपद ॥ ५ ॥ १३. उपदेशपद, गाथा ६.
३४
:
१४. वही, गाथा ७, पृ. २१.
१५. धणे त्ति भरहधण्णे सिद्धत्थगपत्थखेव थेरीए ।
अवगिंचणमेलणओ एमेव ठिओ मणुयलाभो | | उपदेशपद || ८ || १६. रयणे त्तिभिन्नपोयस्स तेसि नासो समुद्दमज्झमि । अण्णेसणम्मि भणियं तल्लाहसमं खु मणुयत्तं ॥ १० ॥
१७. उपदेशपद, गाथा ३० - ३६.
१८. उप्पत्तिय वेणइया कम्मय तह पारिणामिया चेव ।
बुद्धी चउव्विहा खलु निद्दिट्ठा समयकेऊहिं । । उपदेशपद, गाथा ३८. १९. भरहसिलपणियरुक्खे खड्डगपडसरडकायउच्चारे। गयघयणगोलखंभे खुड्डगमग्गत्थिपइपुत्ते ।। उपदेशपद- ४०.
२०. नन्दिसूत्र, गाथा ७०-७२.
२१. उपदेशपद, गाथा ५२-७९.
२२. इत्थी वंतरि सच्चित्थितुल्ल तीयादिकहण ववहारे ।
हत्थाविस ठावण गह दीहागरिसणे णाणं ।। उपदेशपद - ९३. २३. कागे संखे वंचिय विण्णायड सट्ठि ऊण पवासाई ।
अण्णे घरिणिपरिच्छा णिहिफुट्टे रायण्णाओ | | उपदेशपद - ८५.
२४. उपदेशपदवृत्ति, गाथा ८४, पृ० ६१.
२५. उपदेशपद, गाथा १३, पृ० २१.
२६. वही, गाथा ११३, पृ० ८४.
२७. डॉ० नेमिचन्द शास्त्री, हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ. १८२.
२८. गोलग जउमयणक्के पवेसणं दूरगमणदुक्खम्मि |
तत्तसलागाखोहो सीयल गाढत्ति कड्डणया ।। उपदेशपद, ८९
२९. उपदेशपद, गाथा १०७ - १२०.
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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : ३५ ३०. हंसलिवी भूयलिवी जक्खी तरु रक्खसी य बोद्धव्वा।
उड्डी जवणि फुडुक्की कीडी दविडी य सिंधविया।।। मालविणी नडि नागरि लाडलिवी पारसी य बोद्धव्वा। तह अनिमित्ता णेया चाणक्की मूलदेवी य।। - उपदेशपदवृत्ति, गाथा
१०९/१-२, पृ. ८१. ३१. लेहे लिवीविहाणं वट्टक्खेड्डेणमक्खरालिहणं।
पिट्ठिम्मि लिहियवायण मक्खरविंदाइ चुयणाणं।। उपदेशपद, गाथा १०९. ३२. उपदेशपद, गाथा ११७, पृ. ९६ (हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य...,
पृ. १७७). ३३. वही, गाथा १२२-१२७. ३४. वही, गाथा १२८-१७०. ३५. वही, गाथा १३९, पृत्र १०९ (हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य....,
पृ. १७७). ३६. वही, गाथा २०२-२११. ३७. वही, गाथा २५८, पृ. १८०. ३८. वही, गाथा २२४, २३१-२३४. ३९. वही, गाथा २२३. ४०. वही, गाथा ३३५-३६०. ४१. अज्झप्पमूलबद्धं इत्तोणुट्ठाणमो सयं विति।
तुच्छमलतुल्लमएणं अण्णेवज्झप्प सत्थण्णू।। वही, गाथा ३६८. ४२. वही, गाथा ४०३-४२०. ४३. वही, गाथा ७३६-७६८. ४४. को धम्मो जीवदया, किं सोक्खमरोग्गया उ जीवस्स।
को हो सम्भावो, किं पंडिच्चं परिच्छेओ।। किं विसमं कज्जगती, किं लद्धं जं जणो गुणग्गाही। किं सुहगेझं सुयणो, किं दुग्गेझं खलो लोओ।।
- उपदेशपद, गाथा ५९८-५९९. ४५. वही, गाथा ९११-९१९. ४६. वही, गाथा ९८८-९९४.
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४७. वही, गाथा १०१८-१०३१. ४८. वही, गाथा १०३२-१०३३. ४९. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक
इतिहास, पृ. २७६-२७९. ५०. हरिभद्र का प्राकृत कथा साहित्य, पृ. १७७. ५१. वही, पृ. १८६.
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जैनाचार्यों का छन्द-शास्त्र को अवदान*
कु० मधुलिका भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। एक ओर उन्होंने काव्य की अनेक विधाओं में विशाल साहित्य की रचना की है तो दूसरी ओर व्याकरणशास्त्र, काव्यशास्त्र, अलङ्कारशास्त्र एवं छन्दशास्त्र जैसे लाक्षणिक विषयों पर भी सफलतापूर्वक अपनी लेखनी चलायी है।
छन्दशास्त्र के क्षेत्र में जैन-परम्परा का महान् अवदान है। जैनाचार्यों ने प्राकृत, संस्कृत, गुजराती और हिन्दी में छन्द-विषयक कृतियों की रचना की है। छन्दशास्त्रविषयक जैन आचार्यों के ग्रन्थों का परिचय देने से पूर्व यह उल्लेख करना असङ्गत नहीं होगा कि सभी जैन छन्दशास्त्रकारों का समय ज्ञात एवं निश्चित नहीं है। अत: कालक्रम से इन ग्रन्थों का परिचय देना सरल नहीं है। ग्रन्थों की भाषा के आधार पर इनका वर्गीकरण कर यथासम्भव कालक्रम से उनका परिचय देने का प्रस्तुत अध्याय में प्रयास किया गया है। उन कृतियों का परिचय देने से पूर्व इनका संक्षिप्त सर्वेक्षण प्रस्तुत करना समीचीन होगा। इस उद्देश्य से जैन छन्दशास्त्रविषयक कृतियों को भाषाक्रम से प्राकृत, संस्कृत, गुजराती और हिन्दी में वर्गीकृत किया गया है। संस्कृत छन्द-ग्रन्थ
संस्कृत छन्द-ग्रन्थों में सर्वप्रथम दिगम्बर आचार्य पूज्यपाद (वि०सं० छठी शताब्दी) की कृति छन्दशास्त्र प्राप्त होती है। तत्पश्चात् स्वयम्भू (छठी शताब्दी) का स्वयम्भूच्छन्दस् प्राप्त होता है। स्वयम्भू का काल प्रो० एच०सी० भायाणी के अनुसार छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। जयदेव ने जयदेवछन्दस् ९१० ई० में प्रणीत किया। इस पर हर्षट् (सन् ११२४ ई०) रचित और जिनचन्द्रसरि (१३वीं शताब्दी ई०) रचित दो वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं। ईसा की ११वीं शताब्दी में विरचित राजशेखरकृत छन्दःशेखर, जयकीर्तिकृत छन्दोऽनुशासन, अज्ञातकर्तृक रत्नमञ्जूषा और बुद्धिसागरसूरिकृत छन्दःशास्त्र उपलब्ध हैं। *. अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन के पूना में आयोजित ४१वें वार्षिक
अधिवेशन में पठित एवं मुनि पुण्यविजय स्मृति पुरस्कार से सम्मानित
आलेख **. शोधछात्रा, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.
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३८ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
बारहवीं से चौदहवीं शताब्दी के मध्य आचार्य हेमचन्द्रकृत छन्दोऽनुशासन (बारहवीं शताब्दी), आचार्य अमरचन्द्रसूरिकृत छन्दोरत्नावली (बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी), छन्दोऽनुशासन पर स्वोपज्ञवृत्ति, यशोविजयगणि और वर्धमानसूरिकृत टीकाएँ प्राप्त होती हैं। महाकवि वाग्भट्ट (१४वीं शताब्दी) कृत छन्दोऽनुशासन और रामविजयगणिकृत छन्दःशास्त्र नामक संस्कृत में रचित अन्य ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं।
१६वीं शताब्दी का एकमात्र ग्रन्थ मुनि कुशललाभकृत पिंगलशिरोमणि प्राप्त होता है। इस क्रम में उपाध्याय मेघविजयकृत वृत्तमौक्तिक, शीलशेखरगणिकृत छन्दोद्वात्रिंशिका (१७वीं शताब्दी) और उपाध्याय समयसुन्दरकृत आर्या-संख्याउद्दिष्ट-नष्ट-वर्तन विधि और मुनि बिहारीकृत प्रस्तार विमलेन्दु (अठारहवीं शताब्दी) ये छन्द-विषयक जैन संस्कृत कृतियाँ उल्लेखनीय हैं।
प्राकृत छन्द-ग्रन्थ
प्राकृत-भाषा में रचित छन्द-ग्रन्थों में कवि राजमल्लकृत छन्दोविद्या, विरहाङ्ककृत वृत्तजातिसमुच्चय, नन्दिताढ्यकृत गाथालक्षण, अज्ञातकर्तृक कविदर्पण, रत्नशेखरसूरिकृत छन्दःकोश, अज्ञातकर्तृक छन्दःकन्दली, धर्मनन्दनगणिकृत छन्दःस्तव, नागराजकृत पिङ्गलशास्त्र, अज्ञातकर्तृक प्राकृतछन्द और अज्ञातकर्तृक प्राकृत पिङ्गलशास्त्र समाहित हैं।
यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि कुछ ग्रन्थों में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश-भाषाओं का एक साथ प्रयोग हुआ है। जैसे- स्वयम्भूच्छन्दस्। इसी प्रकार रत्नशेखरसूरि ने भी प्राकृत और अपभ्रंश दोनों भाषाओं में छन्दकोश की रचना की है।
हिन्दी छन्द ग्रन्थ
जहाँ तक हिन्दी में उपलब्ध जैन छन्द-ग्रन्थों का प्रश्न है, उनकी संख्या अत्यल्प है। मात्र तीन हिन्दी ग्रन्थ प्राप्त होते हैं जिनमें से दो १८वीं शताब्दी और एक १९वीं शताब्दी का है। हरिरामदासजी निरञ्जनी द्वारा रचित छन्दरत्नावली और पिङ्गलरूपदीप भाषा अट्ठारहवीं शती की रचनाएँ हैं। माखन कवि द्वारा रचित पिङ्गलछन्द-शास्त्र उन्नीसवीं शताब्दी की कृति है। गुजराती छन्द ग्रन्थ
गुजराती-भषा में छन्दशास्त्र-विषय कोई भी जैन कृति नहीं है। मात्र एक वृत्ति प्राप्त होती है। अमरकीर्तिसूरि ने अट्ठारहवीं शताब्दी में छन्दकोश पर बालावबोध की रचना की है।
जैन छन्दशास्त्र-विषयक कृतियों का भाषानुसार संक्षिप्त परिचय इस
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प्रकार है
जैनाचार्यों का छन्द-शास्त्र को अवदान :
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(अ) संस्कृत कृतियाँ
स्वयम्भूच्छन्दस्'
प्राकृत में निबद्ध यह कृति आठ अध्यायों में विभक्त है। इसके प्रथम अध्याय में शक्री से उत्कृति तक १३ वर्गों में ६३ वर्ण वृत्तों, द्वितीय में १४ अर्धसमवृत्तों और तृतीय में विषम वृत्त का विवेचन है। चतुर्थ से अष्टम अध्याय तक अपभ्रंश छन्दों का प्रतिपादन है। चतुर्थ अध्याय में उत्साह, दोहा और उसके भेद, मात्रा - भेद, रड्डा, वदन, उपवदन, मर्डिला, सुन्दरी, हृदययिनी (हियालिया) धवल तथा मङ्गल छन्दों में छः पादों के २४ छन्दों की गणना जाति, उपजाति और अवजाति वर्गों के अन्तर्गत करते हुए की गयी है। षष्ठ अध्याय में ११८ प्रकार के चतुष्पदी छन्दों ( ११० अर्द्धसम और ८ सर्वसम) और ४० प्रकार के द्विपदी छन्दों के लक्षण तथा उनमें कुछ के उदाहरण उपलब्ध हैं। सप्तम अध्याय में १० चतुष्पदी छन्दों और द्विपदी छन्दों में केवल लक्षण वर्णित है। अन्तिम (अष्टम) अध्याय में उत्थक्क, मदनावतार, धुवक, ७ छड्डणिका - भेद, उद्धत्ता-भेद, पद्धडिका तथा द्विपदी छन्द उल्लिखित हैं। इनमें सभी लक्षित छन्द सोदाहरण नहीं हैं।
स्वयम्भू ने वर्णवृत्तों को हेमचन्द्र और विरहांक की भाँति अक्षर संख्या के अनुसार २६ वर्गों में विभाजित करने का अनुसरण तो किया किन्तु उन दोनों विपरीत इन छन्दों को संस्कृत का छन्द न मानकर प्राकृत काव्य से उनके उदाहरण दिये हैं।
उल्लेखनीय है कि स्वयम्भूच्छन्दसकार के विषय में आधुनिक विद्वानों में मतैक्य नहीं है। पं० राहुल सांकृत्यायन, प्रो० एच०डी० वेलणकर तथा प्रो० हीरालाल जैन ने इस विषय पर अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया है। सांकृत्यायन ने पउमचरिउकार स्वयम्भू को ही प्रस्तुत छन्द ग्रन्थ का कर्ता मानते हुए उनका समय ७९० ई० निर्दिष्ट किया है। प्रो० वेलणकर ने स्वयम्भूच्छन्दस् के लेखक को कवि स्वयम्भू से भिन्न मानते हुए उनका समय १०वीं शताब्दी अनुमानित किया है। प्रो० हीरालाल जैन ने भी हरिवंशपुराण और पउमचरिउ के कवि स्वयम्भू को ही प्रस्तुत छन्द ग्रन्थ का कर्ता स्वीकार किया है। समय निर्धारण की दृष्टि से प्रो० वेलणकर का अभिमत अधिक सङ्गत लगता है और तदनुसार स्वयम्भूच्छन्दस् का समय १० वीं शताब्दी के पूर्व निश्चित रूप से माना जा सकता है।
जयदेव छन्दस् (९१० ई०)
हलायुध और केदारभट्टकृत वृत्तरत्नाकर के टीकाकार सुल्हण (१९८९ ई० ) द्वारा जयदेव को 'श्वेतपट ' विशेषण से उल्लिखित करने से यह प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ के कर्ता श्वेताम्बर जैनाचार्य जयदेव थे। सम्भवतः जयदेव ने अपना छन्दोग्रन्थ
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४० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ संस्कृत-भाषा में पिङ्गल के आदर्श पर रचा है। उनकी तरह अपने ग्रन्थ के आठ अध्यायों में से प्रथम अध्याय में संज्ञाएँ, द्वितीय, तृतीय में वैदिक छन्दों का निरूपण और चतुर्थ से लेकर अष्टम अध्याय में लौकिक छन्दों के लक्षण दिये हैं। जयदेव ने अध्यायों का आरम्भ ही नहीं, उनकी समाप्ति भी पिङ्गल के अनुरूप की है। इस ग्रन्थ पर हर्ष (सन् १२२४ ई०) और श्रीचन्द्रसूरि (१३वीं शताब्दी) द्वारा रचित दो वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं। छन्दःशेखर (ईसा की ११वीं शती)
ठक्कुर दुद्दक और नागदेवी के पुत्र राजशेखर ने इस कृति की रचना की थी। ऐसा कहा जाता है कि यह ग्रन्थ भोजदेव को प्रिय था। हेमचन्द्राचार्य ने भी इस ग्रन्थ का उपयोग अपने छन्दोऽनुशासन में किया है। इस ग्रन्थ की एक हस्तलिखित प्रति वि०सं० ११७९ की मिलती है। छन्दोऽनुशासन-जयकीर्ति
इस ग्रन्थ के कर्ता दिगम्बर जैन मतावलम्बी जयकीर्ति (समय लगभग १००० ई०) कन्नड-प्रदेश के निवासी थे। उनका छन्दोऽनुशासन संस्कृत-भाषा में निबद्ध है
और पिङ्गल और जयदेव की परम्परा के अनुसार आठ अधिकारों में वर्गीकृत है। यह ग्रन्थ आद्योपान्त पद्यबद्ध है। सामान्य विवेचन के लिए अनुष्टुप, आर्या और स्कन्धइन तीन छन्दों का आश्रय लिया गया है किन्तु छन्दों के लक्षण पूर्णत: या अंशत: उन्हीं छन्दों में हैं, जिनके वे उदाहरण हैं। स्वतन्त्र रूप से उदाहरण नहीं दिये गये हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ में छन्दों का विवेचन, लक्षण और उदाहरण तादात्म्य शैली में किया गया है। संक्षेप में छन्दोऽनुशासन की विषयवस्तु इस प्रकार है
प्रथम अधिकार में संज्ञा वर्णन, द्वितीय अधिकार में उक्ता से लेकर उत्कृति जाति तक के सम वर्णित छन्दों का वर्णन, तृतीय अधिकार में अर्द्धसम वर्ण-वृत्त तथा चतुर्थ अधिकार में विषम वर्ण-वृत्त वणिर्त है। पञ्चम अधिकार में आर्या तथा मात्रासमक वर्ग के मात्रिक छन्द तथा षष्ठ अधिकार में वैतालीय वर्ग के मात्रिक छन्दों के अतिरिक्त द्विपदी, अंजनाल, कामलेखा, उत्सव, महोत्सव तथा रमा नामक छन्द और वर्णिक दण्डक प्रतिपादित है। सप्तम अधिकार ‘कर्णाट विषय भाषा जात्याधिकार' है, जिसमें कन्नड़ भाषा के छन्द निर्दिष्ट हैं। अष्टम अधिकार का सम्बन्ध प्रस्तारादि प्रत्ययों से है। ___ छन्द ग्रन्थों में अब तक अनुल्लिखित, मात्रिक छन्दों की दृष्टि से यह ग्रन्थ बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि जयदेव की तरह जयकीर्ति की प्रवृत्ति व्यावहारिक लोक प्रयोग के आधार पर छन्दोल्लेख की ओर है। जयकीर्ति ने ऐसे बहुत से मात्रिक छन्दों का उल्लेख किया है जो जयदेव के ग्रन्थ में नहीं हैं किन्तु ऐसे छन्दों में अधिकांश के प्रथमोल्लेख का गौरव विरहाङ्क को है। इसके बाद भी संस्कृत के लक्षणकारों में
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जैनाचार्यों का छन्द-शास्त्र को अवदान : ४१ से उनके प्रथम उल्लेख का श्रेय जयकीर्ति को ही है।
___जयकीर्ति द्वारा उल्लिखित नवीन मात्रिक छन्द हैं- द्विपदी,अञ्जनाल, कामलेखा, उत्सव, महोत्सव, रमा, लयोत्तरा।। रत्नमञ्जूषा अपरनाम छन्दोविचिति
इस अज्ञातकर्तृक संस्कृत रचना में आठ अध्याय हैं। मुख्यत: वर्णवृत्त विषयक इस कृति में कुल २३० सूत्र हैं। इसमें प्राप्त कुल छन्दों के नाम छन्दोऽनुशासन के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होते।
प्रथम अध्याय के २६ सूत्रों में ग्रन्थ में प्रयुक्त चिह्नों तथा पारिभाषिक शब्दों के निर्देश हैं। द्वितीय अध्याय के २८ सूत्रों में आर्या, गीति, आर्यागीति, गलितक तथा उपचित्रक वर्ग के अर्धसमवृत्तों का लक्षण प्रतिपादित है। तृतीय अध्याय के २८ सूत्रों में वैतालीय मात्रवृत्तों के मात्रासमक वर्ग गीतयामी, विशिखा, कुलिक, नृत्यगति और नटचरण के लक्षण वर्णित हैं। आचार्य हेमचन्द्र के अतिरिक्त नृत्यगति और नटचरण का निर्देश किसी अन्य छन्दशास्त्री ने नहीं किया है। चतुर्थ अध्याय के २० सूत्रों में ग्रन्थकार विषम वर्ण के उद्गाता, दामाबरा या पदचतुधव तथा अनुष्टुभवक्त्र का लक्षण प्रतिपादन तथा उदाहरण देता है। पञ्चम, षष्ठ और सप्तम अध्याय के क्रमशः ३७, ३८ और ३९ सूत्रों में समस्त वर्णवृत्तों का लक्षण तथा उदाहरण प्राप्त होता है। वर्णवृत्तों को छ:-छ: अक्षर वाले चार चरणों से युक्त गायत्री से लेकर उत्कृति तक के २१ वर्गों में विभक्त करके विचार किया गया है।
पञ्चम अध्याय के प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने समग्र वर्णवृत्तों को तीन वर्गों- समान, प्रमाण और वितान इनमें विभक्त किया है, परन्तु अध्याय पाँच से सात में उपलब्ध समस्त वृत्त वितान वर्ग के हैं। इस ग्रन्थकार द्वारा निर्दिष्ट ३५ वर्ण वृत्तों में से लगभग २१ से पिङ्गल और केदार दोनों अपरिचित हैं। ग्रन्थकार यहाँ हेमचन्द्राचार्य से प्रभावित प्रतीत होता है। अन्तिम आठवें अध्याय के १९ सूत्रों में प्रस्तार, नष्ट, उद्विष्ट, लमक्रिया, संख्यान और अध्वन् इन छ: प्रकार के प्रत्ययों का निरूपण है।
रत्नमञ्जूषा-भाष्य
रत्नमञ्जूषा पर अज्ञातकर्तृक वृत्ति रूप भाष्य उपलब्ध है। भाष्य के मङ्गलाचरण और उदाहरणों से भाष्यकार का जैन होना प्रमाणित होता है। इसमें प्राप्त ८५ उदाहरणों में से ४० उन-उन छन्दों के नाम सूचक हैं जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि छन्दों के यथावत् ज्ञान के लिए भाष्यकार ने उदाहरणों की रचना की है। छन्दों के नाम से रहित उदाहरण अन्य ग्रन्थकारों के प्रतीत होते हैं। रलमञ्जषा-भाष्य में अभिज्ञानशाकुन्तलम् (अङ्क १, श्लोक ३३) प्रतिज्ञायौगन्धरायण (२,३) इत्यादि
के पद्य उद्धृत किये गये हैं।
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४२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
अध्याय आठ के अन्तिम उदाहरण में निर्दिष्ट एकछन्दसि खण्ड---- मेरूमल: पुन्नाग चन्द्रोदितं! वाक्य से प्रतीत होता है कि इसके कर्ता शायद पुन्नागचन्द्र या नागचन्द्र हों। धनञ्जय कवि विरचित विषापहारस्त्रोत के टीकाकार का नाम भी नागचन्द्र है। अन्य प्रमाणों के अभाव में कर्तृत्व के विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। प्रशस्ति में उल्लिखित है कि बुद्धिसागरसूरि (११वीं शती) ने छन्दःशास्त्र की रचना की थी, परन्तु अभी तक यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो सका है। इनके द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण पञ्चग्रन्थी (सन् १०२३ ई०) का उल्लेख मिलता है। वर्द्धमानसूरि रचित मनोरमाकहा (सन् १०८३ ई०) की प्रशस्ति से भी बुद्धिसागरसूरि द्वारा व्याकरण, छन्द, नाटक इत्यादि विषयक ग्रन्थों की रचना का उल्लेख प्राप्त होता है। वर्धमानसूरि बुद्धिसागरसूरि के ज्येष्ठ भ्राता थे। छन्दोऽनुशासन
आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने शब्दानुशासन और काव्यानुशासन की रचना करने के बाद छन्दोऽनुशासन की रचना की है। यह छन्दोऽनुशासन आठ अध्यायों में विभक्त है, सूत्रों की संख्या इसमें ७६४ है। प्रथम अध्याय में सूत्रों की संख्या १६, द्वितीय अध्याय में ४०१, तृतीय अध्याय में ७३, चतुर्थ अध्याय में ९१, पञ्चम अध्याय में ४२, षष्ठ अध्याय में ३२, सप्तम अध्याय में ७३ और अष्टम अध्याय में सूत्रों की संख्या १७ है। कुल मिलाकर ७००-८०० (७४५) सूत्रों पर विचार किया गया है। यह ग्रन्थ संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के विविध छन्दों पर सर्वाङ्ग प्रकाश डालता है जिसमें तीन से अधिक अध्यायों में संस्कृत में प्रचलित वर्णिक वृत्तों का विवरण हैं। चतुर्थ अध्याय के उत्तरार्ध में प्राकृत छन्दों का विवरण दिया गया है। विशेषता की दृष्टि से देखा जाय तो वैतालीय और मात्रासमक के कुछ नये भेद, जिनका निर्देश पिंगल, जयदेव, विरहांक, जयकीर्ति आदि पूर्ववर्ती आचार्यों ने नहीं किया था, हेमचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत किये, जैसे- दक्षिणांतिका, पश्चिमांतिका, उपहासिनी, नटचरण, नृत्तगति। गलितक, खञ्जक और शीर्षक के क्रमश: जो भेद बताये गये हैं वे भी प्राय: नवीन हैं। मात्रिक छन्दों के लक्षण दर्शाने वाले हेमचन्द्र के छन्दोऽनुशासन का महत्त्व नवीन मात्रिक छन्दों के उल्लेख की दृष्टि से बहुत अधिक है। हेमचन्द्र ने अपने समय तक प्रचलित समस्त प्रसिद्ध तथा अप्रसिद्ध प्राकृत एवं अपभ्रंश छन्द विधाओं का विस्तार से विवेचन दिया है तथा उन्हें स्वोपज्ञ उदाहरणों से उदाहत भी किया है, जिनमें सर्वत्र छन्दोनाम एवं 'मुद्रालङ्कार' का प्रयोग किया गया है। हेमचन्द्र का छन्दोविवरण एक छन्दःशास्त्री विवरण है तथा उन्होंने समस्त छन्दः प्रकारों को अपने ग्रन्थ में समेटने की कोशिश की है। अपभ्रंश के मिश्रछन्दों के सम्बन्ध में अवश्य वे विस्तार से चर्चा नहीं करते तथा इतना ही संकेत करते हैं कि ये अनेक बनाये जा सकते हैं।
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जैनाचार्यों का छन्द-शास्त्र को अवदान : ४३ आचार्य हेमचन्द्र ने छन्दोऽनुशासन पर स्वोपज्ञ वृत्ति की भी रचना की है, जिसका अपर नाम छन्दश्चूणामणि है। छन्दोरत्नावली
आचार्य अमरचन्द्रसूरि (१३वीं शताब्दी) ने ७०० श्लोक प्रमाण इस छन्द ग्रन्थ की रचना की थी। छन्दोरत्नावली में ९ अध्याय हैं जिसमें संज्ञा, समवृत्त, अर्ध-समवृत्त, विषमवृत्त, मात्रावृत्त, प्रस्तार आदि प्राकृत छन्द व उत्साह आदि षट्पदी, द्विपदी आदि के उदाहरणपूर्वक लक्षण बताये गये हैं। इसमें कई प्राकृत-भाषा के भी उदाहरण हैं।
अमरचन्द्रसूरि आचार्य जिनरत्नसूरि के शिष्य थे और गुजरात के वघेलवंशीय राजा वीसलदेव (सन् ११८६ से १२०४ ई०) ने इन्हें वेणीकृपाण का विरुद प्रदान किया था। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। छन्दोऽनुशासन
इस छन्दोऽनुशासन के रचयिता महाकवि वाग्भट्ट (१४वीं शताब्दी) मेवाड़ देश में प्रसिद्ध जैनश्रेष्ठी नेमिकुमार के पुत्र और 'राहड' के अनुज थे। संस्कृत में विरचित यह ग्रन्थ पाँच अध्यायों में विभक्त है और इसका परिमाण ५४० श्लोक है। इसके प्रथम अध्याय में संज्ञा, द्वितीय अध्याय में समवृत्त, तृतीय अध्याय में अर्ध-समवृत्त, चतुर्थ में मात्रासमक और पञ्चम अध्याय में मातृक छन्द का विवेचन है। यह छन्द-विषयक अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। इस पर आचार्य ने स्वोपज्ञवृत्ति भी रची है। . यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। पिंगलशिरोमणि
उपाध्याय अभयधर्म के शिष्य खरतरगच्छीय मुनि कुशललाभ विरचित इस संस्कृत रचना के आठ अध्यायों में वर्णित विषय इस प्रकार हैं
१. वर्णावर्ण छन्दसंज्ञाकथन, २-३. छन्दोनिरूपण, ४. मात्राप्रकरण, ५. वर्ण प्रस्तार- उदिष्ट-नष्ट-निरूपताका-मर्कटी आदि षोडशलक्षण, ६. अलङ्कार-वर्णन, ७. डिंगलनाममाला और ८. गीत प्रकरण।
यह अभी तक प्रकाशित नहीं है।
इस छन्द ग्रन्थ में छन्दों के अतिरिक्त कोष और अलङ्कारों का भी वर्णन है। वृत्तमौक्तिक
सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न उपाध्याय मेघविजय ने इस छन्द ग्रन्थ की रचना संस्कृत में की है। वृत्त मौक्तिक में प्रस्तार-संख्या, उदिष्ट, नष्ट आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। विषय को स्पष्ट करने के लिए यन्त्र भी दिये गये हैं। कवि ने
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४४ : श्रमण / जुलाई - दिसम्बर २००२ इसकी रचना भानुविजय के अध्ययनार्थ की थी।
छन्दोद्वात्रिंशिका (शीलशेखरगणि) १२
संस्कृत श्लोकों में विरचित ३२ पद्यों में इस अतिलघु रचना में महत्त्वपूर्ण छन्दों के लक्षण प्रतिपादित हैं। छन्दशास्त्रकार का समय अज्ञात है। इनके विषय में अन्य कोई सूचना भी नहीं है ।
छन्दोद्वात्रिंशिका की हस्तलिखित प्रति (लगभग १७वीं शताब्दी की) लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर में प्राप्त होती है।
छन्दोवतंस' (सन् १७१४ ई०)
३
यह वाचक शान्तिहर्ष के शिष्य उपाध्याय लालचन्द्रगणि द्वारा संस्कृत में विरचित छन्द ग्रन्थ है। इसमें केदारभट्टकृत वृत्तरत्नाकर का अनुसरण किया गया है और उसमें से कुछ चुने हुए अति उपयोगी छन्दों का विस्तार से विवेचन है । यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है।
आर्या- संख्या- उद्दिष्ट - नष्टवर्त्तनविधि १४
उपाध्याय समयसुन्दर ( १७वीं शताब्दी) द्वारा विरचित इस छन्द ग्रन्थ में आर्या छन्द की संख्या और उद्दिष्ट नष्ट विषयों की चर्चा है। इन्होंने संस्कृत और प्राचीन गुजराती में अनेक कृतियों की रचना की है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है।
प्रस्तार विमलेन्दु १५
मुनि बिहारी (१८ वीं शताब्दी) ने इस छन्द - विषयक ग्रन्थ की रचना की है। ये अनेक ग्रन्थों के प्रतिलिपिकार थे। इनके विषय में अन्य कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती।
(ब) प्राकृत भाषा में रचित कृतियाँ
छन्दोविद्या"
यह कृति अध्यात्म, काव्य और न्यायशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित कवि राजमल्ल द्वारा विरचित है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी में निबद्ध इस ग्रन्थ की श्लोक संख्या ५५० है। इनमें प्राकृत और अपभ्रंश छन्द मुख्य हैं। इस ग्रन्थ के ८ से ६४ पद्यों में छन्दशास्त्र के नियम-उपनियम बताये गये हैं, जिसमें अनेक प्रकार के छन्द-भेद, उनका स्वरूप, फल और प्रस्तारों का वर्णन है । छन्दोविद्या में बादशाह अकबर के समय की अनेक घटनाओं का भी उल्लेख है।
छन्दोविद्या की रचना राजा भारमल्ल के लिए की गयी थी। इसमें छन्दों के लक्षण भारमल्ल को सम्बोधित करते हुए निबद्ध हैं। भारमल्ल श्रीमाल वंश के
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जैनाचार्यों का छन्द-शास्त्र को अवदान : ४५ श्रावकरत्न नागौरी तपागच्छीय आम्नाय के मानने वाले तथा नागौर देश के संघाधिपति थे। वे शाकम्भरी देश के शासनाधिकारी भी थे।
छन्दोविद्या की २८ पत्रों की हस्तलिखित प्रति दिल्ली के दिगम्बरशास्त्र भण्डार में उपलब्ध है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। इस ग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय 'अनेकान्तमासिक (सन् १९४१) में प्रकाशित हुआ है। वृत्तजातिसमुच्चय ७ या विरहलाञ्छन
विरहाङ्ककृत प्राकृत-भाषा में निबद्ध इस ग्रन्थ में मात्रावृत्त और वर्णवृत्त की चर्चा है। यह छः परिच्छेदों में विभक्त है- प्रथम परिच्छेद प्रास्ताविक है। इसमें वर्णित छन्दों की सूची तथा मात्रागणों की द्विविधि संज्ञायें दी गयी हैं। द्वितीय तथा तृतीय नियमों में उन द्विपदी छन्दों का क्रमश: उद्देश्य तथा लक्षणोदाहरण दिया गया है। चतुर्थ नियम के आरम्भ में संक्षेप में गाथा, स्कन्धक, गीति तथा उपगीति का सङ्केत किया गया है। तदनन्तर ८० के लगभग मात्रा वृत्तों का विवरण दिया गया है। ग्रन्थ के पञ्चम नियम में विरहाङ्क के उन ५२ वर्णिक छन्दों का लक्षण दिया है, जो प्राय: संस्कृत कवियों द्वारा प्रयुक्त किये जाते थे। इस नियम के लक्षण भाग की भाषा संस्कृत ही है। षष्ठ नियम में प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, लघुक्रिया, संख्यका तथा अध्वा इन छ: प्रकार के छन्दः प्रस्तारों की गण-प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
प्रस्तार के अन्तर्गत- (१) सूची, (२) मेरु, (३) पताका, (४) समुद्र, (५) विपरीत-समुद्र, (६) पाताल, (७) शाल्मली तथा (८) विपरीत शाल्मली- इन आठ भेदों की गणन-प्रक्रिया का उल्लेख है। छठे नियम के श्लोक ५२-५३ में एक कोष्ठक दिया गया है, जो इस प्रकार है४ अंगुल
१ राम ३ राम
१ वितस्ति २ वितस्ति
१ हाथ २ हाथ
१ धनुर्धर २००० धनुर्धर
१ कोश ८ कोश
१ योजन इसकी एक हस्तलिखित प्रति वि०सं० ११९२ की मिलती है। गाथालक्षण अपरनाम नन्दिताढ्यछन्दःसूत्र८
नन्दिताढ्य विरचित इस ग्रन्थ में ९६ प्राकृत गाथाएँ हैं। ग्रन्थ के प्रथम पद्य में गाथा लक्षण, ग्रन्थ और उसके रचयिता नन्दिताढ्य का उल्लेख है। नन्दिताढ्य द्वारा मङ्गलाचरण में नेमिनाथ, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर की वन्दना की गयी है।
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४६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ साथ ही, ग्रन्थ के मध्य में ब्राह्मीलिपि, जैनधर्म, जिनवाणी, जिनशासन व जिनेश्वर की स्तुति की गयी है। यद्यपि ग्रन्थकार का समय निश्चित नहीं है और न ही इसमें आन्तरिक या बाह्य साक्ष्य उपलब्ध हैं। सम्बन्ध में वे विरहाङ्क के समकालीन या उनके पूर्ववर्ती भी हो सकते हैं। यह ग्रन्थ मुख्यतया गाथा छन्द से सम्बद्ध है। इसके ४७ पद्यों में गाथा के विविध भेदों का लक्षण निरूपित है, शेष ४९ पद्यों में उदाहरण हैं।
इसमें मुख्य गाथा छन्द का विवेचन (गाथा २६-३०) है, अपभ्रंश का तिरस्कार, गाथा के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्गों का उल्लेख (३२ से ३७) तथा पूर्वोक्त गाथा भेदों की पुनरावृत्ति (गाथा ३८-३९) वर्णित है। तदनन्तर गाथा में प्रयुक्त लघु गुरु वर्गों की संख्या के अनुसार गाथा के २६ भेदों का कथन (परिसंख्या ४०-४४), लघु गुरु गणना विधि (गाथा ४५-४६), कुल मात्रा संख्या (४७), प्रस्तार संख्या (गाथा ४८-५१), अन्य छन्दों की प्रस्तार संख्या (५२) और गाथा-सम्बन्धी अन्य तथ्यों का विचार (५३-६२) है। गाथा ६३ से ७५ पर्यन्त गाथाओं में अपभ्रंश छन्दों के उदाहरण और लक्षण पर विचार (७६-९६), अपभ्रंश छन्द की रचना-पद्धति (७६-७७), मदनावतार या चन्द्रानन (७८-७९), द्विपदी (८०-८१), वस्तुक या सार्धच्छन्दस् (८२-८३), दोहा उसके भेद, उदाहरण और रूपान्तर (८४-९४) एवं अन्त में श्लोक (९५-९६) का निरूपण है।
भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, खण्ड १४, भाग १-२, पृष्ठसंख्या १ से ३८, पूना सन् १९३३ में एच०डी० वेलणकर द्वारा सम्पादित और प्रकाशित हुई है। इस पर रत्नचन्द्रमुनि ने एक वृत्ति की रचना की है। रत्नचन्द्रमुनि माण्डक्यपुरगच्छ के महाकवि देवानन्दाचार्य के शिष्य थे। महाकवि देवानन्दाचार्य १०८ प्रकरण ग्रन्थों के रचयिता थे। कविदर्पण
ईसा की लगभग १३वीं शताब्दी में प्राकृत में विरचित इस छन्दशास्त्र के ग्रन्थ के कर्ता और टीकाकार का नाम अज्ञात है। इसमें छ: उद्देश हैं। ग्रन्थकार का उद्देश्य सभी प्राकृत छन्दों का विवरण देना न होकर अपने समय में प्रचलित महत्त्वपूर्ण छन्दों का विवरण देना रहा है। कविदर्पण के प्रथम उद्देश में मात्रा, वर्ण और उभय के आधार पर छन्द के तीन वर्ग बताये गये हैं। द्वितीय उद्देश में मात्रा छन्द के ११ प्रकारों का वर्णन है। तृतीय उद्देश में सम, अर्धसम और विषम नाम के वर्ण छन्दों का स्वरूप प्रतिपादित है। चतुर्थ उद्देश में समचतुष्पदी, अर्धसाचतुष्पदी और विषमचतुष्पदी के वर्ण छन्दों का विवेचन है। पञ्चम उद्देश में उभय छन्दों और षष्ठ उद्देश में प्रस्तार और संख्या नाम के प्रत्ययों का प्रतिपादन है।
इस प्रकार छ: उद्देशात्मक इस ग्रन्थ में प्राकृत के २१ सम, १५ अर्धसर्म और
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जैनाचार्यों का छन्द-शास्त्र को अवदान : ४७
१३ संयुक्त छन्द विवेचित हैं। इस ग्रन्थ में ६९ उदाहरण हैं, जो सम्भवत: ग्रन्थकार विरचित हैं। छन्दों के लक्षण, निर्देश और वर्गीकरण में कविदर्पणकार की मौलिक दृष्टि का परिचय मिलता है। इसमें छन्दों के लक्षण और उदाहरण अलग-अलग प्राप्त होते हैं।
इस पर एक अज्ञातकर्तृक वृत्ति है। ग्रन्थ और वृत्ति दोनों में हेमचन्द्र के छन्दोऽनुशासन के उद्धरण प्राप्त होते हैं। छन्दोऽनुशासन के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में रत्नावलीनाटिका (श्रीहर्ष) तथा जिनचन्द्रसूरि, सूरप्रभसूरि और तिलकसूरि की कृतियों से उद्धरण प्राप्त होते हैं। साथ ही बारहवीं-तेरहवीं शती में विद्यमान सिद्धराज जयसिंह, कुमारपाल, समुद्रसूरि, भीमदेव, तिलकसूरि, शाकम्भरीराज और यशोघोषसूरि के नाम उपलब्ध होते हैं। कविदर्पणवृत्ति
कविदर्पण पर अज्ञात जैन विद्वान्कृत वृत्ति (सन् १३०८) प्राप्त होती है। इस वृत्ति में प्राप्त सभी ५७ उदाहरण अन्यकर्तक हैं। इसमें सूर, पिङ्गल और लोचनदास की संस्कृत कृतियों और स्वम्भ, पादलिप्तसरि, मनोरथ आदि विद्वानों की प्राकृत कृतियों से अवतरण दिये गये हैं। वृत्ति में रत्नसूरि, सिद्धराज जयसिंह, धर्मसूरि और कुमारपाल के नामों का उल्लेख है। छन्दःकन्दली
. अज्ञातकर्तृक प्राकृत-भाषा में निबद्ध इस ग्रन्थ में कविदर्पण की परिभाषा का उपयोग किया गया है। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। कविदर्पण की टीका में छन्दःकन्दली को तीन-चार बार उद्धृत किया गया है। छन्दःकोश२१
यह कृति नागपुरीय तपागच्छ के हेमतिलकसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि (लगभग १५वीं शती) द्वारा ७९ गाथाओं में विरचित है। छन्दशास्त्रकार का लक्ष्य अपभ्रंश कवियों द्वारा बहुलता से प्रयुक्त होने वाले अपभ्रंश छन्दों का लक्षण निबद्ध, करना था। इसमें उपलब्ध अनेक लक्षण पूर्ववर्ती छन्दकारों से लिए गये हैं। इस ग्रन्थ में पद्य १-४ तथा पद्य ५१-७४ परिनिष्ठित प्राकृत में निबद्ध हैं जबकि पद्य ८-५० भिन्न शैली में निबद्ध है। इनकी भाषा परवर्ती अपभ्रंश शैली की परिचयिका है। प्रो० वेलणकर का अभिमत है कि इनमें से अधिकांश को रत्नशेखर ने अन्य ग्रन्थकारों से उद्धृत किया है।
इस ग्रन्थ पर छन्दकोशवृत्ति (संस्कृत) और छन्दःकोश बालावबोध (गुजराती) उपलब्ध हैं।
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४८ :
श्रमण / जुलाई-दिसम्बर २००२
छन्दस्तव १३
अञ्चलगच्छीय धर्मनन्दनगणि द्वारा विरचित इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञवृत्ति भी मिलती है। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। इसकी पाण्डुलिपि छाणी के ग्रन्थ भण्डार में उपलब्ध है।
पिङ्गलशास्त्र २४ (नागराज)
पिङ्गलशास्त्र की रचना नागराज ने की है। इसकी भाषा प्राकृत है। इसका रचनाकाल अज्ञात हैं। इस ग्रन्थ की पूर्ण हस्तलिखित प्रति 'दिगम्बर जैन मन्दिर अभिनन्दन स्वामी, बूंदी' में उपलब्ध है।
प्राकृतछन्द
५
प्राकृतछन्द नामक ग्रन्थ के ग्रन्थकार का नाम अज्ञात है। इस छन्द ग्रन्थ की भाषा प्राकृत है और रचनाकाल अज्ञात है। इस ग्रन्थ की पूर्ण हस्तलिखित प्रति 'दिगम्बर जैन मन्दिर, अजमेर' में उपलब्ध है।
प्राकृतपिङ्गलशास्त्र -२६
इस छन्द ग्रन्थ के ग्रन्थकार का नाम अनुपलब्ध है। इस ग्रन्थ की भाषा प्राकृत है।
छन्दशास्त्र २७ (वि० सं० छठी शताब्दी)
इस कृति के कर्ता जैनेन्द्रव्याकरण के रचयिता दिगम्बराचार्य पूज्यपाद हैं। जयकीर्ति ने छन्दोऽनुशासन में जिस पूज्यपाद की कृति का उल्लेख किया है, यही पूज्यपाद हैं।
वे
(स) हिन्दी कृतियाँ
छन्दरत्नावली २८
छन्दरत्नावली के ग्रन्थकार का नाम हरिरामदासजी निरंजन है। राजस्थान (ग्रन्थ-सूची) भाग ५ के अनुसार इस ग्रन्थ की भाषा हिन्दी है और इस ग्रन्थ की रचना १७३८ में हुई है। यह ग्रन्थ भ० दि० जैन मन्दिर, अजमेर में पूर्ण रूप से उपलब्ध है । ग्रन्थ तथा ग्रन्थकार का वर्णन निम्न प्रकार है
ग्रन्थ छन्द रत्नावली सारथ याकौ नाम ।
भूषन सरतते ते भरयो कहे दास हरिराम ।।१०।। संवत सर नव मुनि शशि नभ नवमी गुस्मान । डीडवान दृढ़ कौ पतिहि ग्रन्थ जन्म भलै जानि । ।
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जैनाचार्यों का छन्द-शास्त्र को अवदान : ४९ पिङ्गलरूपदीपभाषा२९
इस छन्द ग्रन्थ के ग्रन्थकार का नाम अनुपलब्ध है। इस ग्रन्थ की भाषा हिन्दी है। राजस्थान (ग्रन्थ-सूची) भाग ५ के अनुसार इस ग्रन्थ का रचनाकाल १७१६ ई० है। इसकी पूर्ण हस्तलिखित प्रति दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ मन्दिर, इन्दरगढ़ (कोटा) में उपलब्ध है। पिङ्गलछन्दशास्त्र
इस छन्द ग्रन्थ के ग्रन्थकार का नाम माखन कवि है। इन्होंने हिन्दी-भाषा में इस ग्रन्थ की रचना की है। इनके रचना का समय १८०६ ई० है। इसमें ४६ से आगे पत्र नहीं हैं।
(द) गुजराती कृति छन्दःकोश-बालावबोध"
छन्दकोश पर आचार्य मानकीर्ति के शिष्य अमरकीर्ति ने गुजराती-भाषा में 'बालावबोध' की रचना की है। बालावबोध में इस प्रकार उल्लेख है
तेषां पदे सुविश्याताः सूरयो भरतकीर्तयः।
तैश्चक बालावबोधो यं छन्द कोशाभिधस्य वै।। इसका एक हस्तलिखित प्रति अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर में है। प्रति १८वीं शताब्दी में लिखी गयी प्रतीत होती है। सन्दर्भ सूची १. डॉ० शिवनन्दन प्रसाद, स्वयम्भूकृत स्वयम्भूच्छन्दस्, मात्रिक छन्दों का
विकास, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, पृ० ४५. २. जयदेवकृत जयदेवच्छन्दस्, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-५,
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी, द्वितीय संस्करण
१९९० ई०. ३. राजशेखरकृत छन्दःशेखर, न्यू कैटलॉगस कैटलॉगरम, भाग-७, डॉ०
कुझुनी राजा, मद्रास यूनिवर्सिटी, पृ० ९८. ४. डॉ० शिवनन्दन प्रसाद, जयकीर्तिकृत छन्दोऽनुशासन, मात्रिक छन्दों का
विकास. ५. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-५, पृ० १३०. ६. जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग-५, पृ० १३२.
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५० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ ७. आचार्य हेमचन्द्रसूरिकृत छन्दोऽनुशासन, एच०डी० वेलणकर, सिंघी जैन
ग्रन्थमाला, बम्बई. आचार्य जयचन्द्रसूरिकृत छन्दोरत्नावली, जि.नगनकोश, भाग १, एच०डी० वेलणकर, भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना १९४४ ई०,
पृ० १२७. ९. महाकवि वाग्भट्टकृत छन्दोऽनुशासन, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास,
भाग-५, पृ० १३७. १०. आचार्य कुशललाभकृत पिङ्गल शिरोमणि, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास,
भाग-५, पृ० १३८. ११. उपाध्याय मेघविजयकृत वृत्तमौक्तिक, जैनसत्यप्रकाश, वर्ष १२, अंक ५-६. १२. शीलशेखरगणिकृत छन्दोद्वात्रिंशिका, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास,
भाग-५, पृ० १४१. १३. उपाध्याय लालचन्द्रगणिकृत छन्दोऽवतंस, जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास,
खण्ड १, हीरालाल र० कापड़िया, मुक्तिकमल जैन मोहनमाला, बड़ौदा सन् :
१९५६. १४. उपाध्याय समयसुन्दरकृत आर्या-संख्या-उद्दि नष्टवर्तनविधि, जिनरत्नकोश,
हरिदामोदर वेलणकर, पूना-१९४४ ई०. १५. मुनि बिहारीकृत प्रस्तार विमलेन्दु, जैन साहित्य और इतिहास, नाथूराम, प्रेमी,
हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई १९४२ ईस्वी. १६. कवि राजमल्लकृत छन्दोविद्या, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-५,
पृ० १३८. १७. विरहाङ्ककृत वृत्तजातिसमुच्चय, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-५,
पृ० १४७. १८. डॉ० शिवनन्दन प्रसाद, नन्दिताढ्यकृत गाथालक्षण, मात्रिक छन्दों का
विकास. १९. कविदर्पण, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-५, पृ० १४८. २०. कविदर्पणवृत्ति, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-५, पृ० १४९. २१. छन्दाकन्दली, जिनरत्नकोश, पृष्ठ १२७. २२. रत्नशेखरसूरिकृत छन्दाकोश, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-५,
पृ० १४९-५०.
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जैनाचार्यों का छन्द-शास्त्र को अवदान : ५१ २३. धर्मनन्दनगणिकृत छन्दस्तव, जिनरत्नकोश, पृष्ठ १२८. २४. नागराजकृत पिङ्गलशास्त्र, राजस्थान के जैन ग्रन्थ भंडारों का सूचीपत्र,
भाग-५, श्री दिगम्बर जैन अं० क्षेत्र श्रीमहावीरजी, जयपुर, पृ० ५९४. २५. अज्ञातकर्तृक प्राकृतछन्द, राजस्थान के जैन ग्रन्थ भंडारों का सूचीपत्र,
भाग-४, पृ० ५९५. २६. पिङ्गलशास्त्र, राजस्थान के जैन ग्रन्थ....... भाग-४, पृ० ३१२. २७. पूज्यपादकृत छन्दःशास्त्र, न्यू कैटलागस कैटलागरम, भाग-७, पृ० ९६. २८. हरिरामदास जी निरंजनीकृत छन्दरत्नावली, राजस्थान के जैन ग्रन्थ......,
भाग-३, पृ० ८. २९. अज्ञातकर्तृक पिङ्गलरूपदीपभाषा, राजस्थान के जैन ग्रन्थ......., भाग-५,
पृ० ५९५. ३०. माखनकविकृत, पिङ्गलछन्दशास्त्र, राजस्थान के जैन ग्रन्थ......., भाग-४,
पृ० ३१२-१३. ३१. अमरकीर्तिसूरिकृत छन्दकोश बालावबोध, हीरालाल रसिकलाल कापड़िया,
जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, खण्ड १, भाग १, मुक्तिकमल जैन मोहन माला, बड़ोदरा १९५६ ई०, पृष्ठ १५१.
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'अग्रवाल' शब्द की प्राचीनता विषयक एक
और प्रमाण
वेद प्रकाश गर्ग
।
वैश्य-वर्णान्तर्गत अग्रवाल जाति का विशेष स्थान है। इस जाति का विकास 'अग्रोहा' नामक से हआ माना जाता है। यह स्थान हरियाणा राज्य में हिसार से १४ मील दूर दिल्ली-सिरसा मार्ग पर स्थित है। इस समय यह एक छोटा-सा उजड़ा हुआ गाँव मात्र है, किन्तु प्राचीन-काल में यह अत्यन्त विशाल और समृद्ध नगर था। इसका प्रमाण पुरातात्त्विक महत्त्व के वे टीले हैं, जो इसके निकट लगभग ७०० एकड़ भूमि में फैले हुए हैं। इनकी खुदाई से महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हुई है, जिससे इसके प्राचीन गौरव तथा 'आग्रेय गणराज्य' की स्थिति का पता चलता है। अग्रोहा इस गणराज्य का केन्द्र स्थान था।
__आग्रह गणराज्य अर्थात् अग्रोहा से निकास होने के कारण इस जाति को 'अग्रवाल' शब्द से अभिहित किया जाता है। संस्कृत में अग्रवालों के लिए 'अग्रोतकान्वय' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है और प्राकृत व अपभ्रंश में 'अयरवाल' शब्द से इनका उल्लेख है। 'अयरवाल' शब्द का प्राचीनतम उल्लेख श्रीधर कवि द्वारा सं० ११८९ (११३२ ई०) में दिल्ली में रचित पासणाहचरिउ में हुआ है। उस समय दिल्ली में तोमरवंशीय राजा- अनंगपाल 'तृतीय' का राज्य था। यह 'अयरवाल' शब्द अग्रवाल जाति का सूचक है। कुछ महानुभावों ने 'अयरवाल' एवं 'अग्रवाल' शब्द की एकरूपता को शंकास्पद माना है। परन्तु यह शंका निराधार है।
अग्रजनपद अर्थात् अग्रोहा निवासी (क्योंकि वही अग्रवाल जाति का मूल निकास स्थल था) तदनुसार 'अग्रवाल' शब्द में दो शब्द जुड़े हुए हैं- संस्कृत शब्द 'अग्र' और हिन्दी प्रत्यय 'वाल'। इसमें 'अग्र' शब्द अग्रोहा का द्योतक है और 'वाल' शब्द उसके पूर्व निवास का सूचक है। जिस प्रकार 'खंडेला' से 'खंडेलवाल', 'ओसिया' से 'ओसवाल', 'पाली' से 'पल्लीवाल' या 'पालीवाल' कहलाये, उसी प्रकार अग्रोहा से निकास होने से 'अग्रवाल' कहलाये। अग्रवाल बोलने में मुख सुख से "अगरवाल' हो जाता है। 'अगरवाल' शब्द का छोड़कर मात्र 'अग्रवाल' शब्द का
*.
१४, खटीकान, मुजफ्फरनगर, उ०प्र०.
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'अग्रवाल' शब्द की प्राचीनता विषयक एक और प्रमाण : ५३
प्राचीन उल्लेख डॉ० परमेश्वरी लाल गुप्त के अनुसार मौलाना दाऊदकृत अनफीकाव्य चन्दायन (रचना-काल वि०सं० १४२६, ईस्वी सन् १३६९) में हुआ है, किन्तु इससे पहले भी अग्रवाल शब्द का उल्लेख सं० १४११ (सन् १३५४ ई०) में सधारु कवि द्वारा रचित प्रद्युम्नचरित्र में मिलता है। उक्त रचना में कवि ने अपना परिचय देते हुए बतलाया है कि "मेरी जाति अग्रवाल है, जिसकी उत्पत्ति अगरोवे नगर से हुई। मेरी माता का नाम गुणवइ (गुणवति) और पिता का नाम शाह महाराज है। एयरछ नगर में बसते हुए मैंने इस चरित्र को सुनकर पुराण की रचना की।'३
इस परिचय में 'अग्रवाल' शब्द की प्राचीनता के साथ अग्रोहा से ही इस जाति की उत्पत्ति की धारणा पुष्ट होती है, जो वास्तविक है। सं० १४११ (सन् १३५४ई०) से प्राचीन 'अग्रवाल' शब्दोल्लेख की खोज करते हुए इससे पहले का 'अग्रवाल' शब्द का प्राचीन उल्लेख भी हस्तगत हुआ। यह उल्लेख एक जैन प्रतिमा लेख में मिला, जो वि० सं० १२३४ (ईस्वी सन् ११७७) का है। उक्त प्रतिमा लेख इस प्रकार है
"सं० १२३४ वर्षे मास कार्तिक सुदी १ गुरुवासरे भट्टारक आम्नाय सा० बुधमल अग्रवाल गर्गगोत्री प्रतिष्ठाणाम् मंगलं मंगलाणं विमल अष्टसिद्धि नवनिधिदायक बिंबस्थापनं। गुरु आचार्जकात्र।"
___ यह लेख मैनपुरी (कटरा) के दिगम्बर जैन मन्दिर में विराजमान भगवान् चन्द्रप्रभ की मूर्ति पर उत्कीर्ण है, जो सं० १४११ से १७७ वर्ष पहले का है। अभी तक की जानकारी के अनुसार इसी प्रतिमा-लेख में अग्रवालों के गोत्रों में से एक गोत्र ‘गर्ग' का प्राचीनतम उल्लेख मिला है।
उपर्युक्त प्रतिमा-लेख के आधार पर मैंने “अग्रवाल शब्द की प्राचीनता' शीर्षक लेख लखनऊ से प्रकाशित होने वाली शोध-पत्रिका शोधादर्श- २२ (मार्च १९९४ ईस्वी) में प्रकाशित कराया था। (देखें, उक्त अंक, पृष्ठ ६३)
अब इससे पूर्व के 'अग्रवाल' शब्दोल्लेख की खोज की जानी थी। मैं इस ओर प्रयासरत रहा और हर्ष की बात है कि मुझे इसमें सफलता हाथ लगी। यह उल्लेख भी एक जिन प्रतिमा पर उत्कीर्ण है, जो कोटा के राजकीय संग्रहालय में संरक्षित है। यह लेख वि०सं० ११८० (ईस्वी सन् ११२३ ई०) का है और धारा के परमारनरेश नरवर्मदेव के काल का है। नरवर्मदेव का शासन काल वि०सं० ११५१-११९० (ईस्वी सन् १०९४-११३३) तक है। लेख का मूल पाठ इस प्रकार है
__ "श्री नरवर्मदेव राज्ये संवत ११८० आषाढ़ वदि १ अग्रवालान्वय साधु जिनपालसुत यमदेव: पु......।"
उक्त लेख में 'अग्रवाल' के साथ संस्कृत शब्द 'अन्वय' का उल्लेख है।
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५४ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ 'अन्वय' के साथ वाले ऐसे शब्दोल्लेख और भी प्राप्त होते हैं। इस रूप में शब्द को संस्कृत रूपायित करने का प्रयास है। यह लेख सं० १२३४ से ५४ वर्ष पहले का और 'अयरवाल' शब्द से भी ९ वर्ष पूर्व का है।
इस प्रकार अभी तक की जानकारी के अनुसार 'अग्रवाल' शब्द की प्राचीनता में यह नवीनतम प्रमाण है। अब इससे पूर्व के 'अग्रवाल' शब्दोल्लेख की खोज की जानी आवश्यक है, जिससे प्राचीनता की जानकारी प्रमाण सहित अधिकाधिक रूप में हो सके। अत: इसके लिए अधिकाधिक प्रतिमा-लेख संग्रहों तथा प्रशस्ति-लेख संग्रहों व अन्यान्य सामग्री को टटोलने की आवश्यकता है, जिससे अग्रवाल (अयरवाल रूप में भी) शब्द की और भी प्राचीनता सामने आ सके। आशा है अग्रवाल समाज इस ओर ध्यान देगा। सन्दर्भ : १. जैनग्रन्थप्रशस्ति-संग्रह, द्वितीय भाग, पृ० ४५-४८ तथा प्रस्तावना,
पृ० ८४-८५। २. मंगल मिलन, वर्ष ८, अंक १२ (मार्च १९८१) पृ० १० पर लेखक का
"अयरवाल और अग्रवाल शब्द की एकरूपता' शीर्षक लेख। ३. हिन्दी अनुशीलन, वर्ष ९, अंक १-४, पृ० १६१। यह ग्रन्थ अब दिगम्बर
जैन अतिशय क्षेत्र महावीर जी से प्रकाशित हो चुका है। ४. बाबू कामता प्रसाद जैन, संपा०- प्रतिमालेखसंग्रह, (जैन सिद्धान्त भवन, आरा
वि०सं० १९९४), पृ० १२ व २९. ५. उपर्युक्त जानकारी के लिए मैं डॉ० शिवप्रसाद जी, पार्श्वनाथ विद्यापीठ,
वाराणसी, के प्रति अनुगृहीत हूँ, जिन्होंने मेरा निवेदन स्वीकार कर उक्त तथ्यों
से अवगत कराने की कृपा की। ६. महोपाध्याय विनयसागर, वल्लभ भारती, जयपुर १९७५ ई०, पृ० १०४.
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अर्बुद मण्डल में जैनधर्म
डॉ० सोहनलाल पाटनी
तीर्थाधिराज आबू संसार के दर्शनीय स्थानों में से एक है। यह तीर्थ भारतवर्ष का शृङ्गार है, सिरमौर है। विश्व का कोई भी पर्यटक आबू के कला-वैभव को देखे बिना हिन्दुस्तान के भ्रमण को अधूरा मानता है। आबू हमारा प्रागैतिहासिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक तीर्थस्थल है। हिन्दुओं का आदितीर्थ, जैनों का धर्म संस्कृति एवं कला का सङ्गम तथा अन्य धर्मों के लिए भी यह पावनभूमि है। प्राचीन युग में अर्बुद मण्डल का अपना एक राजनैतिक स्वरूप था। इसकी सीमाएँ पूर्व में मेदपाट, पश्चिम में भीनमाल, उत्तर में मरुवाटक एवं दक्षिण में गुजरात से लगती थी। चन्द्रावती इस परिमण्डल की राजधानी थी। भगवान् महावीर के अर्बुद मण्डल में विचरण के सन्दर्भ
___ आज के राजस्थान प्रदेश के इतिहास निर्माण में अर्बुद मण्डल की जैन-संस्कृति का स्थान महत्त्वपूर्ण है। यहाँ की संस्कृति एवं जैन मन्दिरों की स्थापत्यकला ने राजस्थान एवं गुजरात के इतिहास को प्रभावित किया है। साहित्य की रचना यहाँ विपुल परिमाण में हुई। धर्म धुरन्धर आचार्यों की जन्मस्थली एवं विचरण स्थानों का यह प्रदेश रहा है। ४४३ ई० पूर्व का एक प्राचीन शिलालेख राजस्थान के अजमेर जिलान्तर्गत बडली' ग्राम में मिला है। यह लेख भगवान् महावीर के निर्वाण के ८४ वर्ष के बाद का है, इसमें महावीर प्रभु के निर्वाण का उल्लेख है। भगवान महावीर का सैतीसवां चातुर्मास अर्बुद मण्डल के वरमाण (वर्द्धमान) गांव में हुआ था। यह गांव रेवदर तहसील में सिरोही-डीसा राजमार्ग पर स्थित है। यहाँ भगवान् महावीर का प्राचीन मन्दिर एवं सातवीं शताब्दी का एक भग्न सूर्य मन्दिर है। भगवान महावीर से सम्बन्धित जितने गांव आबू क्षेत्र में मिलते हैं उतने और कहीं नहीं। नाणा, दियाणा, नांदिया “जीवत स्वामी वांदिया" अर्थात् नाणा, दियाणा एवं नांदिया में भगवान् महावीर की जीवनकाल की स्थापित मूर्तियाँ हैं। नाणा पाली-सिरोही जिले का सीमान्त गांव है। दियाणा आबू की तलेटी में वासस्थानजी के पास है एवं नांदिया ब्राह्मणवाडा के पास है। ये गांव पुराने आबू पर्वत के मार्ग में पड़ते थे। इसके अतिरिक्त भी पिण्डवाडा तहसील के वीरोली #. निदेशक, अजित प्राच्य एवं समाज विद्या संस्थान, शान्तिनगर, सिरोही
(राजस्थान).
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५६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ (वीरकुलिका), वीरवाडा (वीरवाटक), उंदरा (उपनंद), नांदिया (नन्दीवर्द्धन), सानीगांव (षण्मानी गाँव- आबूपर्वत), कनखलाश्रम (स्वर्णखलाश्रम) आदि भगवान् महावीर के जीवनकाल के सन्दर्भो को व्याख्यायित करते हैं। भगवान् महावीर से सम्बन्धित कानों में कीलें ठोकने का उपसर्ग बामणवाडजी से सम्बन्धित माना जाता है। यहाँ पर कर्णकीलन उपसर्ग मन्दिर बना हुआ है। एक जनश्रुति यह भी है कि इन्द्रभूति गौतम का भगवान् महावीर से प्रथम मिलन इस ब्राह्मणवाटक में हुआ था। जहाँ वे यज्ञ में लीन थे। यहीं वे वैशाली के राजकुमार की तपस्या एवं त्याग से प्रभावित हुए थे। बाद में चम्पानगरी (बिहार) में उनका दीक्षा समारोह आयोजित हुआ।
भगवान् महावीर का अर्बुदगिरि की यात्रा के दौरान चण्डकौशिक नाग का उपसर्ग नांदिया में हुआ जहाँ आज भी पर्वत पर ग्रेनाइट की चट्टान पर चण्डकौशिक नाग उत्कीर्ण है। पास में भगवान् का पांव खुदा हुआ है। आबू का आज का पोलोग्राउण्ड राजस्व विभाग के अभिलेखों में सानीगांव है। यहीं पर षण्मानी गांव में प्रभु के पांवों पर खीर पकायी गयी थी। जैन-साहित्य में यह उल्लेख है कि भगवान् महावीर ने छद्मस्थ अवस्था में अज्ञात प्रदेश में विचरण किया था। वैशाली के राजकुमार को मगध देश में तो सब लोग जानते थे पर उन्हें अपनी साधना के लिए अज्ञात प्रदेश में विचरण करना था। मगध से बहुत दूर यही अर्बुदारण्य उस जमाने का आदिवासी बहुल इलाका था! भगवान् महावीर के विचरण-सम्बन्धी पुष्टि के दो शिलालेख अर्बुद मण्डल से प्राप्त हुए हैं। इनमें अर्बुद मण्डल के सीमावर्ती भीनमाल (श्रीमाल) का शिलालेख सं. १३३३ (ई. सन् १२७६) का बहुत महत्त्वपूर्ण है, जो भीनमाल की उत्तर दिशा में आई हुई गजनीखान की कब्र के पास के तालाब के समीप स्थित खण्डित जैन मन्दिर की भीत से प्राप्त हुआ था। लेख इस प्रकार है -
यः पुरात्र महास्थाने श्रीमाले स्वयमागतः। स देवः श्री महावीरो देया (द्वः) सुखसंपदं।।१।। पुनर्भवभवत्रस्ताः संतो यं शरणं गताः। तस्य वीर जिनेन्द्रस्य पूजार्थं शासनं नवं।।२।। थारापद्रमहागच्छे पुण्ये पुण्यैकशालिनाम्।
श्रीपूर्णचन्द्रसूरीणां प्रसादाल्लिख्यते यथा।।३।। मुनि जिनविजय, संपा०संग्रा०- प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखांक ४०२ का प्रारम्भिक अंश।
पूर्व में इस महास्थान श्रीमाल नगर में भगवान् महावीर स्वयं पधारे थे। वे महावीर आपको सुख सम्पत्ति दें। पुन: संसार के दुःखों से त्रस्त लोग उन प्रभु की शरण मेंगये। उन्हीं वीर जिनेन्द्र की पूजा के लिए नया मन्दिर बनाया गया। थारापद्रगच्छ के
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अर्बुद मण्डल में जैनधर्म : ५७ पुण्य से पुण्यशाली पूर्णचन्द्र सूरिजी की कृपा से यह लेख लिखा गया। दूसरा उल्लेख विविधतीर्थकल्प में मंगथला के विषय में है कि यह मन्दिर भगवान् महावीर के जीवनकाल में निर्मित हो गया था। मुंगथला के मन्दिर के स्तम्भों पर से नौ लेख प्राप्त हुए हैं। मूल गभारे की मंगलमूर्ति के पास के लेख से यहाँ भगवान् महावीर के विचरण की पुष्टि होती है।
पूर्व छउमथ्थकाले अर्बुदभुवि यमिनः कुर्वतः सविहारं सप्तत्रिंशे च वर्षे वहति भगवतो जन्मत: कारितास्ता: (सा)। श्री देवार्यस्य यस्योल्लसदुत्पलमयी पूर्णराजेन राज्ञा केशी सु (शिना) प्रतिष्ठः स जयति हि जिनस्तीर्थ मुण्डस्थलस्तु। सं (०) १४२६ संवत् श्री वीर जन्म ३७ श्री देवा जासू पू-न कारितम्।
पूर्व में छद्मस्थकालने में भगवान् महावीर स्वामी आबू की भूमि पर विहार करते थे। उनके जन्म के ३७वें वर्ष में उल्लास भरी पाषाण की प्रतिमा पूर्णराज नाम के राजा के काल में बनी थी एवं केशी गणधर ने उसकी प्रतिष्ठा की थी। मुण्डस्थल तीर्थ में रहे जिनेश्वर भगवान् जयवन्त हों। सं० १४२६ (ई०स० १३६९) वीर जन्म से ३७ वर्ष श्री देवा जासू ने भरवायी।
इस हकीकत के अनुसार श्री महेन्द्रसूरिजी ने संवत् १३०० (ई०स० १२४३) अपनी अष्टोतरीतीर्थमाला में इस प्रकार लिखा है
अब्बुयगिरिवर मूले, मुंड स्थले नंदीरूक्ख अहभागे। छउमत्थ कालि वीरो अचल सरीरो ठियो पडिम।।९७।। तो पुन्नरायनामा, कोइ महप्पा जिणस्स भत्तीए, कारइ पडिमं वरिसे। सगतीसे (३७) वीर जम्माओ।।९८।। किंचूणा अट्ठारस वास सयाए य पवरतित्थस्स। तो मित्थ घण समीरं, थुणोमि मुंडस्थले वीरं।। ९९।।
अर्बुद पर्वत के मूल में स्थित मुंगथला में नन्दीवृक्ष के नीचे छद्मस्थ अवस्था में महावीर ने कायोत्सर्ग अवस्था में तप किया।
उस समय पूर्णराय नाम के किसी राजा ने जिन भक्ति से प्रभावित होकर वीर जन्म के ३७वें वर्ष में इस मुण्डस्थल प्रवर तीर्थ में महावीर की प्रतिमा की स्थापना की, मैं उस मुण्डस्थल के वीर की वन्दना करता हूँ।
भीनमाल एवं मुंगथला के दोनों शिलालेखों की बात ही इस तीर्थमाला का विषय है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि भगवान् महावीर ने इस भूमि पर विचरण एवं चातुर्मास किया।
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भगवान् महावीर के जीवनकाल में स्थापित जीवंत स्वामी मन्दिरों के विषय में संवत् १४९७ (ई०स० १४४०) में जिनहर्षसूरि ने वस्तुपालचरित्र में लिखा है कि जीवित स्वामी की मूर्तियाँ भगवान् के जीवनकाल में निर्मित मानना चाहिए।
। भगवान् महावीर के राजस्थान प्रदेश में विचरण के विषय में दिगम्बरों एवं श्वेताम्बरों में अलग-अलग मान्यताएँ हैं, परन्तु १३वीं एवं १४वीं शताब्दी के शिलालेखों, पट्टावलियों, तीर्थमालाओं एवं वाचिक-परम्परा के सन्दर्भो के प्रकाश में विद्वानों को इस विषय में खोज करनी चाहिए।
_प्रसिद्ध जैन आचार्य यशोभद्रसूरि (८वीं शताब्दी) का जन्म बामणवाडजी के पास वर्तमान पलाई गांव में हआ था। प्रसिद्ध आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि का जन्म वर्तमान रेवदर तहसील के धवली गांव में हुआ था। अंचलगच्छ के संस्थापक आरक्षितसूरि का जन्म वर्तमान रेवदर तहसील के दंताणी गांव में हुआ था। जैनों के कई गच्छों का नामकरण सिरोही जिले के गांवों से माना जाता है। मण्डार से मडाहडगच्छ, जीरावला से जीरापल्लीगच्छ, काछोली से कच्छोलीवालगच्छ, पास के नाणा गांव से नाणकीयगच्छ एवं ब्राह्मणवाड से ब्रह्माणगच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। इस गच्छों में जीरावलागच्छ का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। विश्व के किसी भी स्थान पर जब किसी जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा होती है तो “ॐ ह्रीं श्री जीरावला पार्श्वनाथाय नमः" के मन्त्रोच्चार के साथ प्रतिमा की स्थापना होती है।
चन्द्रावती, आबू, काछोली, कासिन्द्रा, सिरोही एवं सानवाड़ा में कई ग्रन्थों की रचना हुई एवं नकलें तैयार हुईं। सिरोही में चित्रित स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र प्रसिद्ध है। प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्र ने शब्दानुशासन की रचना अजारी स्थित भगवती सरस्वती की आराधना के बाद की थी। अकबर प्रतिबोधक हीरविजयसूरि को आचार्य पदवी सिरोही नगर में दी गयी थी और श्रावकों में स्वर्ण मुहरों की प्रभावना की गयी थी।
संवत् १५१७ के आस-पास रचित उपदेशतरंगिणी में रत्नमन्दिरगणि ने आबू परिक्रमा के गांवों के विषय में एक महत्त्वपूर्ण सूचना दी है। गुजरात के एक राज्याधिकारी
और चन्द्रावती के शासक विमलशाह ने आबू के आदीश्वर भगवान् की नित्य स्नात्र पूजा और विधि-विधान के लिए आबू परिक्रमा के ३६० गांवों में जैनों को बसाया था और उन्हें सब प्रकार के करों से माफी देकर धनवान बना दिया था। यही जैन लोग क्रम से आबू के मन्दिरों की व्यवस्था करते थे।
स्थानकवासी-परम्परा
स्थानकवासी-परम्परा का प्रारम्भ सिरोही जिले के अरठवाडा गांव में जन्मे लोकाशाह ने किया। उन्होंने अहमदाबाद में १४५१ ई० में लोंकागच्छ की स्थापना
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अर्बुद मण्डल में जैनधर्म : ५९ की, जो बाद में स्थानकवासी-परम्परा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसकी पुष्टि में एक प्राचीन दोहा मिला है
लोकाशाही जनमिया सिरोही धरणा।
संता शूरां बरणिया भौसागर तरणा।। लोकागच्छ का प्रथम उपाश्रय सिरोही में स्थापित हुआ।
इस क्षेत्र के शासकों में जैनों के प्रति बहुत सद्भाव रहा है इसलिए पूरे इलाके में रावलों के पास ही जैन मन्दिर बने हुए हैं और इन शासकों ने मन्दिरों के प्रति अपनी
आस्था प्रकट करने के लिए ग्राम, भूमि, अरट अथवा उपज का भाग उन्हें अर्पित किया था। ऐसे दानपत्र अथवा शिलालेख आज भी इतिहास की धरोहर हैं। जैन मन्दिरों को दान का सबसे पुराना उपलब्ध शिलालेख झाडोली की बावड़ी का है, जो इस प्रकार है
संवत् १२४२ वर्ष फाल्गुन वदि १ महारान श्री केल्हणदेवराज्ये मण्डलिक श्री धारावर्ष पट्टराणी शृङ्गार देवी दत्त: राजल लूंढार्पित।
संवत् १२८७ के आबू के लूणवसही मन्दिर के शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि चन्द्रावती के परमार राजा सोमदेव और उसके पुत्र कान्हड़देव ने लुणवसही मन्दिर के निभाव के लिए डबाणी' गाँव सदा के लिए अर्पण किया था। संवत् १३४५ के दंताणी गांव के शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि गांव के ठाकुर प्रतापसिंह और हेमदेव ने यहाँ के मन्दिर के लिए दो खेतों का दान दिया था। इसी तरह महीपाल के पुत्र सुहडसिंह ने तीर्थङ्करदेव की यात्रा करके चार सौ द्रव्य की भेंट की थी। संवत् १३९१ के दियाणा गांव के शिलालेख से ज्ञात होता है कि वहाँ के ठाकुर तेजसिंह ने दियाणा मन्दिर को एक बावडी भेंट की थी। ऐसे कई उदाहरण अर्बुदाचल प्रदक्षिणा के जैन लेखों से ज्ञात होते हैं।
सिरोही के महाराव सहसमल ने सन् १४२५ में सिरोही की स्थापना की थी, क्योंकि अर्बुद मण्डल की राजधानी चन्द्रावती मुगल आक्रमणों से ध्वस्त हो गयी थी। सिरोही की स्थापना से पूर्व उन्होंने कुमारावस्था में महाराव शोभाजी के शासनकाल में सन् १४१८ में थूभ की वाड़ी भगवान आदिनाथ की सेवा-पूजा के लिए अर्पित की थी एवं उसके पश्चात् सिरोही दुर्ग का निर्माण कराया। शिलालेख की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं___महाराजाधिराज देवडा शोभाकेन, राजश्री सहसमलसहितेन सिरोही स्थाने देव श्री अदिनाथ पूजार्थ अरघट्टप्रदत्त:पालनीय। बहुभिर्वसुधा भुक्ता यस्य यस्य यदा भूमिः तस्य स्यात् तत्फलम्।
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भारतवर्ष में सिरोही की जैन मन्दिर गली बहुत ही विख्यात है जहाँ एक साथ १४ मन्दिरों की पंक्ति है। इस गली की विशेषता है कि मन्दिरों का उपदेश देने वाले भट्टारक गुरुओं की पौशाल (पाठशाला) भी इसी गली में है। मन्दिर बनाने वाले सेठ, शिल्पी सोमपुरे, पुजारी रावल इसी गली में रहते हैं। पास ही इन मन्दिरों की रक्षा करने वाला सिरोही दुर्ग है एवं रक्षण के लिए तलवार बनाने वाले लुहार और इन तलवारों पर म्यान चढ़ाने वाले जीनगर भी पास में ही बसे हुए हैं।
___ मध्यकाल और आजादी के पूर्व जैन श्रेष्ठी शासक वर्ग के मन्त्री पद का कार्य करते थे। इनमें मेहाजलजी, संघवी सीपाजी अकबरकालीन भारतवर्ष के जैन मन्त्रियों में विशेष स्थान रखते थे। इन्होंने सिरोही का सबसे ऊँचा चौमुखा मन्दिर बनवाया था।
सन्दर्भ
१. महोपाध्याय विनयसागर, संपा०- राजस्थान का जैन साहित्य, प्राकृत भारती,
जयपुर १९७७ ईस्वी, पृ० २३. २. कैवल्य प्राप्ति से पूर्व ३. डॉ० सोहनलाल पाटनी, हस्तिकुण्डी का इतिहास, द्वितीय संस्करण,
१९८३, पृ० २६. ४. अजितप्राच्य एवं समाजविद्या संस्थान के संग्रह से।
मुनिजयन्तविजय, संपा०- अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसन्दोह, लेखांक १५१, पृ० १०३.
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इतिहास की गौरवपूर्ण विरासत : काँगड़ा के
जैन मन्दिर
महेन्द्रकुमार मस्त
महाभारतकाल से वर्तमान तक, इतिहास के वैभव व गरिमा के प्रतीक तीर्थकाँगड़ा के जैन मन्दिर व भग्नावशेष उस गौरवपूर्ण विरासत की यादगार हैं जिन पर प्रत्येक व्यक्ति नाज़ कर सकता है। पिंजौर, नादौन, नूरपुर, कोठीपुर, पालमपुर और ढोलबाहा से मिले जैन चिह्न, तीर्थङ्कर प्रतिमाएं तथा मन्दिरों के अवशेषों से यह बात स्पष्ट है कि यह क्षेत्र अपने अतीत से विक्रम की १७वीं सदी तक जैन आचार्यों, मुनियों व श्रावकों के क्रिया-कलापों का केन्द्र रहा है।
सप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता पद्मश्री जिनविजयजी ने काँगड़ा को अष्टापद (कैलाश) की तलहटी माना है। (वर्तमान किन्नौर जिले को वहाँ के लोग अब तक 'किन्नर कैलाश' ही कहते हैं)। हिमाचल की देवभूमि के नैसर्गिक सौन्दर्य की सुरम्य घाटी में, काँगड़ा तीर्थ अपनी समृद्ध ऐतिहासिक व सांस्कृतिक गरिमा और धार्मिक महत्ता के कारण बरबस ही जन-जन के आकर्षण का केन्द्र रहा है। यहाँ के प्राचीन व कलात्मक मन्दिर अपने आपमें हजारों वर्षों के इतिहास को समेटे हुए हैं।
भारतीय पुरातत्व के पितामह सर अलेक्जेन्डर कनिंघम ने १८७२ ई० में काँगड़ा का निरीक्षण करके जो रिपोर्ट दी उसके अनुसार “काँगड़ा किले में भगवान् पार्श्वनाथ का एक मन्दिर है, जिसमें आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव की भव्य मूर्ति विराजमान है।" अपने अधखुले ध्यानस्थ नेत्रों, कन्धों तक गिरते केश तथा शान्त मुखमुद्रा वाली भगवान् ऋषभदेव की यह विशाल प्रतिमा, काँगड़ा किले की बुलन्दी से मानव सभ्यता के उत्थान और विकास का सदियों से निरन्तर आह्वान देती रही हैं। किले के अन्दर यत्र-तत्र बिखरे हुए विशाल जैन मन्दिरों के खण्ड, देहरियां, कमरे, पट्ट, स्तम्भ व तोरणों की शिलाएँ ई०सन् १९०४ के विनाशकारी भूकम्प की कहानी की याद बने हुए हैं। कुछ बची हुई दीवारों पर पत्थरों में उत्कीर्ण जिन-प्रतिमाएँ आज भी देखी जा सकती हैं। पुराना काँगड़ा के कुछ तालाबों व घरों पर भी मूर्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं।
सन् १९१५ में बीकानेर व पाटण के हस्तलिखित पुरातन ग्रन्थ भण्डार का *. २६३, सेक्टर १०, पंचकूला-१३४१०९ हरियाणा।
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६२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ निरीक्षण करते हुए मुनि जिनविजयजी को विक्रमी संवत् १४८४ में रचित विज्ञप्ति त्रिवेणी नाम का लघु ग्रन्थ मिला। उसमें प्राप्त वर्णन के अनुसार संवत् १४८४ में खरतरगच्छीय आचार्य जिनराजसूरि के शिष्य उपाध्याय मुनि जयसागर की निश्रा में सिन्ध (पाकिस्तान) के फरीदपुर नामक स्थान से एक यात्री संघ नगरकोट काँगड़ा की यात्रा करने आया है। रास्ते के स्थानों में निश्चिंदीपुर, जालन्धर, विपाशा (व्यास) नदी, हरियाणा (होशियारपुर के पास एक कस्बा) व काँगड़ा नगर के भगवान् शान्तिनाथ व महावीर स्वामी के मन्दिर, किले के मन्दिरों के वृतान्त और दर्शनपूजन का उल्लेख हैं। काँगड़ा के राज परिवारों के पूर्वज व वंशजों का भी इसमें उल्लेख है। यात्री संघ ११ दिन काँगड़ा में रुका। भगवान् आदिनाथ व माता अम्बिका की पूजा के बाद वापसी पर गोपाचलपुर (गुलेर), नन्दवनपुर (नादौन), कोटिलग्राम और कोठीपुर से होकर संघ फरीदपुर पहुँचा। प्राचीन प्रमाणों के आधार पर काँगड़ा नगर में विक्रम सं० १३०९ में निर्मित तीन व किले में दो जैन मन्दिर थे। नज़दीकी आंचलिक ग्रामों में गोपाचलपुर (गुलेर), नन्दवनपुर (नादौन) कोटिलपुर ग्राम व देवपालपुर पत्तन (ढोलबाहा) में भव्य मन्दिरों के उल्लेख व प्रमाण मिलते हैं। ढोलबाहा की खुदाई में तो अभी ४०-४५ वर्ष पहले ही अनेकों जैन मूर्तियां मिली हैं। . अन्य यात्री संघ
विक्रम संवत् १४८८ में एक यात्रीसंघ काँगड़ा तीर्थ की यात्रा को आया। संवत् १५६५ में एक यात्री संघ मरुकोट (राजस्थान) से भटनेर (हनुमानगढ़), जलंधर, नकोदर होता हुआ काँगड़ा की यात्रा को गया। वृतान्त में शिवालिक पर्वतमाला को सपादलक्षगिरि कहा गया है। विक्रम संवत् १४९७ में भटनेर से काँगड़ा गये यात्री संघ में सिरसा, वीहणहंडई (भटिण्डा), तलवण्डी, लोद्रहाणय (लुधियाना), लाहड़कोट, नन्दवणि (नादौन) और कोठीपुर के श्रावक शामिल हुए। संवत् १५८० में एक यात्री संघ महम (हरियाणा) से चलकर, हिसारकोट (हिसार), समियाणा (समाना), सींहनद (सरहिंद) और कोठीपुर होता हुआ काँगड़ा की यात्रा को गया।
वर्तमान में नये सिरे से इस तीर्थ का परिचय कराने का श्रेय जैन आचार्यश्री विजयवल्लभसूरि जी व साध्वी महत्तरा मृगावती श्रीजी को है। आचार्यश्री ईस्वी सन् १९३९ में होशियारपुर से पैदल यात्री संघ लेकर काँगड़ा पधारे व महत्तरा साध्वी जी ने ई० सन् १९७८ में लगातार आठ महीने काँगड़ा में रहते हए अपने अथक प्रयासों से किले में विराजित भगवान् आदिनाथ की सेवा, पूजा का अधिकार जैन समाज को दिलाया। इन्हीं साध्वी जी की प्रेरणा से किले के पास ही धर्मशाला के प्रांगण में कलात्मक, विशाल व नया जैन मन्दिर निर्मित हुआ। यहाँ होली के तीन दिनों में हर वर्ष सामूहिक यात्रा व मेले आयोजित होते हैं।
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अयोध्या से प्राप्त अभिलेख में उल्लिखित नयचन्द्र
रम्भामञ्जरी के कर्ता नहीं
शिवप्रसाद
तथाकथित रामजन्मभूमि/बाबरीमस्जिद के ध्वंसावशेषों में ऐतिहासिक महत्त्व की अनेक सामग्रियां प्राप्त हुई हैं। इनमें ५ फुट लम्बा और २.२५ फुट चौड़ा एक पाषाण फलक भी है जिस पर संस्कृत-भाषा और १२वीं शती की नागरी लिपि में एक लेख उत्कीर्ण है। वर्तमान में यह अभिलेख अयोध्या संग्रहालय में कड़ी सुरक्षा के बीच सीलबन्द अवस्था में रखा गया है। सन् १९९६ ई० में माननीय उच्चन्यायालय की विशेष अनुमति पर तीन सदस्यीय इतिहासकारों के एक दल को इस अभिलेख को देखने का अवसर प्राप्त हुआ और उन्होंने अपने-अपने ढंग से इसकी वाचना की।
इतिहासकार और पुरालिपिज्ञाता डॉ० ठाकुरप्रसाद वर्मा ने इस अभिलेख का विशद् अध्ययन किया है। उनके अनुसार उक्त अभिलेख से अनेक रोचक सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। अभिलेख के अनुसार यह गहड़वालों के सामन्त नयचन्द्र, जो आल्हण का पुत्र था, से सम्बन्धित है। नयचन्द्र का अनुज आयुष्चन्द्र इस लेख का रचनाकार कहा गया है। डॉ० वर्मा ने इस नयचन्द्र को रम्भामञ्जरी के कर्ता नयचन्द्रसरि से अभिन्न होने की सम्भावना व्यक्त की है। उन्होंने गोविन्दचन्द्र के वि०सं० ११८२/ई०स० ११२५ के कमौली ताम्रपत्र का भी इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है। इस ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण लेख के १५वें पंक्ति में आल्हण के पुत्र कीठण को लेख का रचयिता कहा गया है। चूंकि अयोध्या (जन्मभूमि) से प्राप्त अभिलेख में उल्लिखित नयचन्द्र और आयुष्चन्द्र के पिता का भी नाम आल्हण था और कमौली दानपत्र के रचयिता का भी यही नाम ऊपर हम देख चुके हैं, इस आधार पर उन्होंने यह अनुमान व्यक्त किया है कि केल्हण के तीन पुत्र थे और सभी साहित्यिक रुचि रखने वाले थे। चूंकि कमौली ताम्रपत्र की १३वीं पंक्ति में गोविन्दचन्द्र का नाम बिना किसी राजकीय उपाधि के मिलता है इससे उन्होंने यह विचार व्यक्त किया है कि अयोध्या अभिलेख गोविन्दचन्द्र की कुमारावस्था का है और इसे वि०सं० ११८२ के पूर्व का मानने में कोई आपत्ति नहीं है।
*. प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.
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६४ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
प्रस्तुत आलेख का उद्देश्यमात्र यही स्पष्ट करना है कि तथाकथित जन्मभूमि स्थल से प्राप्त शिलालेख में उल्लिखित नयचन्द्र और रम्भामञ्जरी नाटिका के रचनाकार नयचन्द्रसूरि दोनों अलग-अलग व्यक्ति हैं।
रम्भामञ्जरी के कर्ता के सम्बन्ध में निम्न बातें उल्लेखनीय हैं
नयचन्द्रसूरि एक जैन आचार्य थे और ये निर्ग्रन्थ दर्शन के श्वेताम्बर आम्नाय के कृष्णर्षिगच्छ से सम्बद्ध रहे। इनके गुरु का नाम प्रसन्नचन्द्रसूरि और प्रगुरु का नाम जयसिंहसूरि था जिन्होंने वि०सं० १४२२/ई० स० १३६६ में कुमारपालचरित की रचना की थी। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि नयचन्द्रसूरि ने इसकी प्रथमादर्शप्रति तैयार की थी। नयचन्द्रसूरि द्वारा रचित हम्मीरमहाकाव्य नामक एक कृति भी प्राप्त होती है। रम्भामञ्जरी का रचनाकाल वि०सं० १४४४/ई० सन् १३८७ के
आस-पास माना जाता है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि अयोध्या (तथाकथित जन्मभूमि) से प्राप्त अभिलेख में उल्लिखित नयचन्द्र और रम्भामञ्जरी के रचनाकार नयचन्द्रसूरि दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। दोनों के मध्य लगभग २५० वर्षों का दीर्घ अन्तराल है। एक सर्वसुविधा सम्पन्न सामन्त है तो दूसरा पूर्ण अपरिग्रही एक जैन आचार्य। सन्दर्भ १. T.P. Verma, "Studies in Epigraphy", SamskritiSandhan, Vol. VIII
1995, p. 114 २-४. Ibid, pp. 114-115. ५. शिवप्रसाद, 'कृष्णर्षिगच्छ का इतिहास', निम्रन्थ, जिल्द १, अहमदाबाद
१९९६ ईस्वी, हिन्दी खण्ड, पृ० २४-३५. ६-७. H.R. Kapadia, Descriptive Catalogue of Govt. Collection of Mss.
deposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. XIX,
Section II, Part I, B.O.R.I., Pune 1967, pp. 176-178. ८. हम्मीरमहाकाव्य, सम्पा० मुनि जिनविजय, राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला,
ग्रन्थांक ६५, जोधपुर १९६८ ई०. H.D. Velankar, Jinaratnakosha, B.O.R.I., Government Oriental Series, Class,C.No. 4, Poona 1944 A.D., p. 329.
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खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास
शिवप्रसाद निम्रन्थ-परम्परा के श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में चन्द्रकुल से उद्भूत प्रवर्तमान गच्छों में खरतरगच्छ का विशिष्ट स्थान है। प्राय: सभी मुख्य गच्छों से समय-समय पर विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं के रूप में अनेक गच्छों-उपगच्छों का उद्भव हुआ। खरतरगच्छ भी इसमें अपवाद नहीं है। इस गच्छ से भी कई शाखाएँ अस्तित्त्व में आयीं, इनमें रुद्रपल्लीयशाखा, खरतरगच्छ-लघु शाखा, पिप्पलकशाखा, आद्यपक्षीयशाखा आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। साम्प्रत निबन्ध में रुद्रपल्लीयशाखा के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
जैसा कि इसके अभिधान से स्पष्ट होता है, रुद्रपल्ली नामक स्थान से यह गच्छ अस्तित्व में आया होगा। रुद्रपल्ली को उत्तर प्रदेश में फैजाबाद के निकट स्थित वर्तमान रुदौली नामक स्थान से समीकृत किया जा सकता है। स्व० भंवरलाल जी नाहटा एवं महो० विनयसागर जी का भी यही मत है। चन्द्रकुल के आचार्य अभयदेवसूरि (नवाङ्गीवृत्तिकार) के प्रशिष्य और जिनवल्लभसूरि के शिष्य जिनशेखरसूरि खरतरगच्छ की इस शाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं। खरतरगच्छपट्टावली के अनुसार आचार्य जिनवल्लभसरि ने मुनि जिनशेखर को उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित कर उन्हें कुछ मुनिजनों के साथ रुद्रपल्ली भेजा। इस प्रकार खरतरगच्छ की एक शाखा के रूप में इस गच्छ के अस्तित्व में आने की नींव पड़ गयी और बाद में स्वतन्त्र गच्छ के रूप में वह भली-भाँति अस्तित्व में आ गया।
रुद्रपल्लीयशाखा में जिनशेखरसूरि, अभयदेवसूरि (द्वितीय), देवभद्रसूरि, श्रीतिलकसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, विमलचन्द्रसूरि, गुणभद्रसूरि, संघतिलकसूरि, सोमतिलक (अपरनाम विद्यातिलकसूरि), देवेन्द्रसूरि, गुणाकरसूरि, अभयदेवसूरि (तृतीय), पृथ्वीचन्द्रसूरि, वर्धमानसूरि आदि कई प्रसिद्ध ग्रन्थकार और विद्वान् मुनिजन हुए हैं।
खरतरगच्छ की इस शाखा के इतिहास के आकलन के लिए सम्बद्ध मुनिजनों की कृतियों की प्रशस्तियां तथा प्रतिमालेख आदि उपलब्ध हुए हैं जो १३वीं शती के प्रारम्भ से लेकर १७वीं शती के प्राय: मध्य तक मिल पाये हैं। इस शाखा की स्वतन्त्र रूप से कोई पट्टावली नहीं मिलती, किन्तु चूंकि यह खरतरगच्छ से ही उद्भूत *. प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.
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६६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ हुआ था, अत: खरतरगच्छ की पट्टावली में स्वाभाविक रूप से इसकी उत्पत्ति की चर्चा मिलती है जिसके अनुसार वि०सं० १२०४/ईस्वी सन् ११४८ में जिनशेखरसूरि से खरतरगच्छ की इस शाखा का प्रादुर्भाव हुआ।
अध्ययन की सुविधा के लिए सर्वप्रथम साहित्यिक साक्ष्यों तत्पश्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत है।
१. जयन्तविजयकाव्य' - यह रुद्रपल्लीयगच्छ के आचार्य अभयदेवसूरि (द्वितीय) द्वारा वि.सं. १२७८/ईस्वी सन् १२२२ में रची गयी कृति है। इसकी प्रशस्ति में स्वगच्छ का उल्लेख किये बिना ग्रन्थकार ने अपनी लम्बी गुरु-परम्परा तथा रचनाकाल आदि का उल्लेख किया है। इसकी प्रशस्तिगत गुर्णावली इस प्रकार है
वर्धमानसूरि
जिनेश्वरसूरि
अभयदेवसूरि (प्रथम) नवाङ्गीवृत्तिकार
जिनवल्लभसूरि
जिनशेखरसूरि
पद्मचन्द्रसूरि
विजयचन्द्रसूरि
अभयदेवसूरि (द्वितीय) वि.सं. १२७८/ई.सन् १२२२ में जयन्तविजयकाव्य
के रचनाकार २. गौतमपृच्छावृत्ति-- छह हजार गाथाओं में रचित यह कृति अभयदेवसूरि (द्वितीय) के पट्टधर देवभद्रसूरि के शिष्य श्रीतिलकसूरि की रचना है। इसकी प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपनी गुरु-परम्परा तथा अपनी शिष्य सन्तति आदि का भी विवरण दिया है, जो निम्नानुसार है----
जिनेश्वरसूरि
अभयदेवसूरि (प्रथम) नवाङ्गीवृत्तिकार ...
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श्रीचन्द्रसूरि
प्रभानन्दसूरि
चारुचन्द्र
T
विमलचन्द्रसूरि
I
गुणशेखरसूरि
खरतरगच्छ - रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास :
जिनवल्लभसूरि
1
जिनशेखरसूरि
संघतिलकसूरि
I
सोमतिलक
1
पद्मचन्द्रसूरि
1
विजयचन्द्रसूरि
जिनभद्र
गुणशेखर
( इन्हें श्रीतिलकसूरि ने उपाध्यायपद तथा श्रीचन्द्रसूरि ने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया)
1
अभयदेवसूरि (द्वितीय)
1
देवभद्रसूरि
विमलचन्द्रसूरि
३. षट्दर्शनसमुच्चयटीका – रुद्रपल्लीयशाखा के संघतिलकसूरि के शिष्य सोमतिलक अपरनाम विद्यातिलकसूरि ने वि० सं० १३९२ / ई० सन् १३३६ में उक्त कृति की रचना की। इसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुर्वावली तथा कृतिकाल आदि का उल्लेख किया है :
श्रीचन्द्रसूरि
श्रीतिलकसूरि
( गौतमपृच्छावृत्ति के रचनाकार)
६७
अपरनाम विद्यातिलकसूरि (वि.सं. १३९२ / ई० सन् १३३६ में षट्दर्शनसमुच्चयटीका के रचनाकार)
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६८ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
इनके द्वारा रचित वीरकल्प, कुमारपालचरित, शीलतरंगिणीवृत्ति, लघुस्तवटीका, कन्यानयनमहावीरप्रतिमाकल्प (कल्पप्रदीप अपरनाम विविधतीर्थकल्प के अन्तर्गत) आदि कृतियां मिलती हैं जिनके बारे में यथास्थान उल्लेख किया गया है।
४. सम्यकत्वसप्ततिकाटीका'- प्राकृत-भाषा में रची गयी यह कृति रुद्रपल्लीयशाखा के आचार्य गुणशेखरसूरि के शिष्य संघतिलकसरि की कृति है। इसकी प्रशस्ति में टीकाकार ने अपनी गुरु-परम्परा तथा प्रस्तुत कृति के रचनाकाल आदि का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है :
वर्धमानसूरि → जिनेश्वरसूरि → अभयदेवसूरि (प्रथम) → जिनवल्लभसूरि → जिनशेखरसूरि → पद्मचन्द्रसूरि → विजयचन्द्रसूरि → अभयदेवसूरि (द्वितीय) → देवभद्रसूरि → प्रभानन्दसूरि → श्रीचन्द्रसूरि → गुणशेखरसूरि → संघतिलकसूरि (वि.सं. १४२२/ई.सन् १३६६ में सम्यकत्वसप्ततिकाटीका के रचनाकार)
५. भक्तामरस्तोत्रवृत्ति - यह वृत्ति आचार्य गुणचन्द्र के शिष्य गुणाकरसूरि द्वारा रची गयी है। इसकी प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो निम्नानुसार है :
श्रीचन्द्रसूरि
विमलचन्द्रसूरि
जिनभद्रसूरि
गुणशेखरसूरि
श्रीतिलकसूरि
गुणचन्द्रसूरि
अजितदेवसूरि
गुणाकरसूरि (वि.सं. १४२६/ई, सन् १३७० में
भक्तामरस्तोत्रवृत्ति के रचनाकार) ६. मातृकाप्रथमाक्षरदोहा - यह अभयदेवसूरि के शिष्य पृथ्वीचन्द्रसूरि की कृति है, जो वि.सं. १४२६ के आस-पास रची मानी जाती है। इसकी प्रशस्ति में
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खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास : ६९ रचनाकार ने अपनी लम्बी गुरु-परम्परा का उल्लेख न करते हुए केवल अपने गुरु तथा गच्छ आदि का ही वर्णन किया है - अभयदेवसूरि
पृथ्वीचन्द्रसूरि (वि.सं. १४२६/ई. सन् १३७० के आस-पास मातृकाप्रथमाक्षर
दोहा के रचनाकार) ७. प्रश्नोत्तररत्नमालावृत्ति – यह संघतिलकसूरि के शिष्य देवेन्द्रसूरि की कृति है, जो वि.सं. १४२९ में रची गयी है। देवेन्द्रसूरि ने भी प्रशस्ति में मात्र अपने गच्छ और गुरु का ही नाम दिया है : संघतिलकसूरि
देवेन्द्रसूरि (वि.सं. १४२९ में प्रश्नोत्तररत्नमालावृत्ति के रचनाकार)
दानोपदेशमालाटीका (वि.सं. १४१८) भी इन्हीं की कृति है। (पीटर्सन, भाग ४, क्रमांक ५८१); जिनरलकोश, पृ. १७४.
८. आचारदिनकर - यह रुद्रपल्लीयशाखा के अभयदेवसूरि (तृतीय) के शिष्य वर्धमानसूरि की कृति है, जो वि.सं. १४६८/ई.सन् १४१२ में रची गयी है। इस ग्रन्थ में जिनप्रतिमा-सम्बन्धी शास्त्रीय लक्षणों का निरूपण किया गया है। इसकी श्लोकों की लम्बी प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपनी गुरु-परम्परा, ग्रन्थ के रचनाकाल आदि का विस्तार से उल्लेख किया है। प्रशस्तिगत गुर्वावली निम्नानुसार है :
वर्धमानसूरि (प्रथम)
जिनेश्वरसूरि अभयदेवसूरि (प्रथम) जिनवल्लभसूरि जिनशेखरसूरि
पद्मचन्द्रसूरि
विजयचन्द्रसूरि
अभयदेवसूरि (द्वितीय)
Page #75
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७० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
देवभद्रसूरि भद्रंकरसूरि
प्रभानन्दसूरि श्रीचन्द्रसूरि जिनभद्रसूरि
गुणचन्द्रसूरि अभयदेवसूरि (तृतीय)
जयानन्दसूरि
वर्धमानसूरि (द्वितीय) (वि.सं. १४६८/ई.सन् १४१२ में
आचारदिनकर के रचनाकार) ९. शीलवतीकथा - यह सम्बद्ध गच्छ के आनन्दसूरि के शिष्य आज्ञासुन्दरसूरि द्वारा रची गयी है इसका रचनाकाल वि.सं. १५६२/ई.सन् १५०६ बतलाया गया है। इसकी एक प्रति जैसलमेर के तपागच्छीय ग्रन्थ भण्डार में संरक्षित है। चूंकि इस भण्डार के हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ अभी प्रकाशित नहीं हो सकी हैं, अतः हम ग्रन्थकार के गच्छ और गुरु के नाम तथा रचनाकाल आदि के अतिरिक्त कोई विशेष बात ज्ञात नहीं कर पाते हैं।
आनन्दसुन्दरसूरि
आज्ञासुन्दरसूरि मुनियों के सुन्दरान्त नामों का प्रयोग सर्वप्रथम तपागच्छ में प्रारम्भ हुआ, बाद में खरतरगच्छ में भी इसका प्रयोग होने लगा जैसे सोमसुन्दर, भुवनसुन्दर, आनन्दसुन्दर आदि।
उक्त साहित्यिक साक्ष्यों द्वारा ज्ञात छोटी-बड़ी गुर्वावलियों के परस्पर समायोजन से इस गच्छ के मुनिजनों के गुरु-शिष्य-परम्परा की एक विस्तृत तालिका निर्मित होती है जो इस प्रकार है :
द्रष्टव्य- तालिका संख्या-१
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प्रशस्तिगत गुर्वावलियों के आधार पर खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा के मुनिजनों के गुरु-शिष्य परम्परा की तालिका-१
वर्धमानसूरि (प्रथम) चौलुक्यनरेश दुर्लभराज की सभा में वादविजेता
जिनेश्वरसूरि अभयदेवसूरि (प्रथम) नवाङ्गीवृत्तिकार जिनवल्लभसूरि
जिनशेखरसूरि (रुद्रपल्लीयशाखा के आदिपुरुष)
पद्मचन्द्रसूरि
विजयचन्द्रसूरि अभयदेवसूरि (द्वितीय) वि.सं. १२७८/ई. सन् १२२२ में जयन्तविजयकाव्य
। के रचनाकार देवभद्रसूरि
खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास : ७१
प्रभानन्दसूरि (वि.सं. १३११) प्रतिमालेख
श्रीतिलकसूरि (गौतमपृच्छावृत्ति के रचनाकार, चारुचन्द्र, जिनभद्र और
गुणशेखर को उपाध्याय पद देने वाले)
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श्रीचन्द्रसूरि विमलचन्द्रसूरि (चारुचन्द्र, जिनभद्र और गुणशेखर के ।
आचार्यपद प्रदान करने वाले)
७२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
चारुचन्द्र
जिनभद्रसूरि
गुणशेखरसूरि
श्रीतिलकसूरि
गुणचन्द्रसूरि संघतिलकसूरि
(वि.सं. १४२२ में सम्यअभयदेवसूरि (तृतीय) कत्वसप्ततिका के कर्ता)
गुणचन्द्रसूरि
सोमतिलकसूरि अपरनाम देवेन्द्रसूरि
विद्यातिलक (वि.सं. १४२९ में प्रश्नोत्तर(षट्दर्शनसमुच्चय तथा रत्नमालावृत्ति के रचनाकार) अन्य ग्रन्थों के रचनाकार)
जयानन्दसूरि
पृथ्वीचन्द्रसूरि (वि.सं. १४२६ के आसपास मातृकाक्षरचौपाई के रचनाकार)
वर्धमानसूरि (द्वितीय) (वि.सं. १४६८ में आचारदिनकर के कर्ता)
अजितदेवसूरि गुणाकरसूरि
(वि.सं. १४२६ में भक्तामरस्तोत्रवृत्ति के रचनाकार)
Page #78
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सन्दर्भग्रन्थ
खरतरगच्छ की इस शाखा से सम्बद्ध विभिन्न अभिलेखीय साक्ष्य मिले हैं, इनका विवरण इस प्रकार हैक्रमांक प्रतिष्ठावर्ष तिथि, वार प्रतिष्ठापक मुनि प्रतिमालेख/ प्रतिष्ठास्थान
का नाम परिकरलेख १. १२६० ज्येष्ठ सुदि २ अभयदेवसूरि महावीर की जलमन्दिर, पावापुरी
प्रतिमा पर
उत्कीर्ण लेख १३०२ मार्गशीर्ष वदि ९ अभयदेवसूरि के आदिनाथ की विमलवसही, आबू शनिवार पट्टधर देवभद्रसूरि प्रतिमा पर
उत्कीर्ण लेख ३. १३०२ ,,
नमिनाथ की
प्रतिमा का लेख ___ फाल्गुन सुदि १२ प्रभानन्दसूरि
शुक्रवार ५. १३२७ श्रीचन्द्रसूरि
चिन्तामणि जिनालय, बीकानेर
पूरनचन्द नाहर, सम्पा. जैनलेखसंग्रह, भाग-२, लेखांक २०२९ मुनि जिनविजय - सम्पा. प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखांक २१० वही, लेखांक २०९
खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास :
१३११
B. Bhattacharya, "The bhalesymbleofthejains"''
अगरचन्द नाहटा- सम्पा. बीकानेरजैनलेखसंग्रह, लेखांक १६९
७३
Page #79
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________________
६.
१३८६
पौष वदि ५ बुधवार जिनभद्रसूरि
१४२१
माघ वदि ६
जिनहंससूरि के पट्टधर जिनराजसूरि गुणचन्द्रसूरि
मुनिविशालविजय- सम्पा. कुंभारियातीर्थ, लेखांक ५० नाहर, पूर्वोक्त, भाग २, लेखांक १०५२ नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक १२७४ विजयधर्मसूरि-सम्पा. प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक ८१
१४२१
७४ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
९.
१४३२
फाल्गुन सुदि २ शुक्रवार
अभयदेवसूरि
आदिनाथ की नेमिनाथ जिनालय, प्रतिमा का लेख कुंभारिया शान्तिनाथ की शान्तिनाथ जिनालय, प्रतिमा का लेख उदयपुर कुन्थुनाथ की महावीर स्वामी का प्रतिमा का लेख मंदिर, बीकानेर शान्तिनाथ की आदिनाथ जिनालय, धातुको प्रतिमा पूना का लेख पार्श्वनाथ की जैन मन्दिर, चेलपुरी, धातु की प्रतिमा दिल्ली का लेख चन्द्रप्रभ की शांतिनाथ जिनालय, धातु की प्रतिमा हनुमानगढ़ का लेख आदिनाथ की चिन्तामणिजी का धातुप्रतिमा मन्दिर, बीकानेर का लेख
१४५४
देवसुन्दरसूरि
नाहर, पूर्वोक्त- भाग २, लेखांक ४६१
११.
१४७८
हर्षसुन्दरसूरि
वैशाख सुदि ३ शुक्रवार
नाहटा, पूर्वोक्त- लेखांक २५३५
१२.
१४८०
वैशाख सुदि ३
,
वही, लेखांक ६९७
Page #80
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________________
१३.
१४८७
वही, लेखांक १८३५
१४.
१४९४
वही, लेखांक ७७६
१४९४
वही, लेखांक ७७९
मार्गशीर्ष सुदि ५ हर्षसुन्दरसूरि के श्रेयांसनाथ की सोमवार - शिष्य देवसुन्दरसूरि धातु की प्रतिमा
का लेख ज्येष्ठ सुदि १० जिनहंससूरि नेमिनाथ की चिन्तामणिजी का मंगलवार
प्रतिमा का लेख मन्दिर, बीकानेर माघ सुदि ११ जयहंससूरि आदिनाथ की वही गुरुवार
प्रतिमा का लेख माघ सुदि ५ देवसुन्दरसूरि के अनन्तनाथ की वही शुक्रवार शिष्य सोमसुन्दरसूरि प्रतिमा का लेख माघ वदि ६ जिनराजसूरि सुमतिनाथ की वही बुधवार
प्रतिमा का लेख देवसुन्दरसूरि के आदिनाथ की जैन मन्दिर, अलवर शिष्य सोमसुन्दरसूरि प्रतिमा का लेख
१६.
१४९७
वही, लेखांक ७९७
१७. १५०१
वही, लेखांक ८५१
१८.
१५०१
नाहर, पूर्वोक्त- भाग १, लेखांक ९९०
खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास : ७५
१९.
१५०६
ज्येष्ठ सुदि ४
जिनहंससूरि के पट्टधर जिनराजसूरि
आदिनाथ जिनालय, भैंसरोडगढ़
विनयसागर- सम्पा. प्रतिष्ठा लेखसंग्रह, लेखांक ४०१
Page #81
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________________
२०. १५०६
नाह
२१.
१५०७
१५०८
७६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
२३.
१५०९
माघ सुदि १० देवसुन्दरसूरि के शान्तिनाथ की
नाहटा, पूर्वोक्त- लेखांक शिष्य लब्धिसुन्दरसूरि प्रतिमा का लेख
१६०७ वैशाख सुदि १२ देवसुन्दरसूरि के आदिनाथ की चिन्तामणिजी का वही, लेखांक ९१४ शुक्रवार शिष्य सोमसुन्दरसूरि प्रतिमा का लेख मन्दिर, बीकानेर मार्गशीर्ष वदि २ ,, सुविधिनाथ की वही
वही, लेखांक ९२७ बुधवार
प्रतिमा का लेख वैशाख सुदि ५ सोमसुन्दरसूरि आदिनाथ की पार्श्वनाथ जिनालय, विनयसागर, पूर्वोक्त-लेखांक सोमवार प्रतिमा का लेख बूंदी
४३८ चैत्र वदि ८ हरिभद्रसूरि कुंथुनाथ की वीर जिनालय, सांगानेर वही, लेखांक ४५४ बुधवार
प्रतिमा का लेख वही
वही, लेखांक ४५५ पद्मप्रभ की बड़ा मन्दिर, नागौर वही, लेखांक ४५६
प्रतिमा का लेख माघ सुदि २ देवसुन्दरसूरि के नमिनाथ की शान्तिनाथ जिनालय, विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त- लेखांक पट्टधर सोमसुन्दरसूरि धातु की प्रतिमा नवापुरा, सूरत २६४
का लेख
२४.
१५१०
२५. २६.
१५१० १५१०
२७.
१५११
Page #82
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________________
२८.
१५१२
आषाढ़ सुदि ७ रविवार माघ सुदि ७ बुधवार
२९.
१५१३
३०.
१५१६
कार्तिक वदि २ रविवार माघ वदि ५
१५१७
५७०
देवसुन्दरसूरि के आदिनाथ की
नाहटा, पूर्वोक्त- लेखांक शिष्य सोमसुन्दरसूरि प्रतिमा का लेख
२२४५ "
विमलनाथ की चौसठियाजी का मन्दिर, विनयसागर, पूर्वोक्त- लेखांक प्रतिमा का लेख नागौर
५२० एवं नाहर, पूर्वोक्त
भाग २, लेखांक १३१५ ,
आदिनाथ की महावीर जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त,भाग १, लेखांक
प्रतिमा का लेख माणेकतल्ला, कलकत्ता १२२ ,
श्रेयांसनाथ की बड़ा मन्दिर, नागौर विनयसागर, पूर्वोक्त- लेखांक
प्रतिमा का लेख ,
चन्द्रप्रभ की चिन्तामणि जी का नाहटा, पूर्वोक्त- लेखांक
प्रतिमा का लेख मन्दिर, बीकानेर १००४ . देवसुन्दरसूरि वासुपूज्य की सुमतिनाथ जिनालय, बुद्धिसागरसूरि - सम्पा. जैन प्रतिमा का लेख सीनोर .
धातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग
२, लेखांक ३६६ देवसुन्दरसूरि के कुंथुनाथ की शीतलनाथ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त, भाग १, पट्टधर सोमसुन्दरसूरि धातु की प्रतिमा बालोतरा, राजस्थान लेखांक ७३४
का लेख
३२.
१५१७
माघ सुदि ५ शुक्रवार माघ सुदि ४ रविवार
३३.
१५१९
खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास : ७७
३४. १५२५
मार्गशीर्ष वदि ९ शुक्रवार
Page #83
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________________
३५.
१५२५
३६.
१५२५
७८ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
३७.
१५२५
माघ सुदि ५ हेमप्रभसूरि चन्द्रप्रभ की खरतरगच्छीय आदिनाथ विनयसागर, पूर्वोक्त- लेखांक बुधवार
___पञ्चतीर्थी प्रतिमा जिनालय, कोटा ६६९
का लेख फाल्गुन सुदि ७ जिनराजसूरि के आदिनाथ की जैन मन्दिर, करेड़ा विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त लेखांक शनिवार पट्टधर जिनोदयसूरि धातु की प्रतिमा
३९२. का लेख फाल्गन सदि ७ जिनराजसरि के समतिनाथ की महावीर स्वामी का नाहटा पोंक्त- लेतांक शनिवार पट्टधर जिनोदयसूरि चौबीसी प्रतिमा मंदिर, बीकानेर १२५२
पर उत्कीर्ण लेख वैशाख सुदि २ गुणसुन्दरसूरि आदिनाथ की आदिनाथ जिनालय, वही, लेखांक २३४२ शनिवार
प्रतिमा पर राजलदेसर
उत्कीर्ण लेख ज्येष्ठ वदि ३ देवसुन्दरसूरि के पद्मप्रभ की यति किशन जी के नाहर, पूर्वोक्त- भाग १, रविवार शिष्य गुणसुन्दरसूरि प्रतिमा का लेख संरक्षण में रखी प्रतिमा लेखांक ५७९
पद्मप्रभ की पार्श्वचन्द्रगच्छ उपाश्रय, विनयसागर, पूर्वोक्त- लेखांक पञ्चतीर्थी प्रतिमा जयपुर
७४१ का लेख
३८.
१५२८
३९.
१५३२
Page #84
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________________
४१.
४२.
४४.
४३. १५४२
४५.
४६.
१५३६
४७.
१५३८
१५४२
१५४५
१५५३
१५५६
फाल्गुन सुदि ३ देवसुन्दरसूरि
रविवार
ज्येष्ठं सुदि २ मंगलवार
माघ सुदि २ शनिवार
माघ सुदि ५
फाल्गुन वदि ३
जिनदत्तसूरि के
पट्टधर देवसुन्दरसूरि
ज्येष्ठ वदि १२
जिनोदयसूरि के पट्टधर देवसुन्दरसूरि
ज्येष्ठ सुदि १२ हेमप्रभसूरि
गुरुवार
सोमसुन्दरसूरि के शिष्य हरिकलश
गुणसुन्दरसूरि
हर्षसुन्दरसूरि
कुंथुनाथ की
चौबीसी प्रतिमा का लेख
चौबीसी जिन
प्रतिमा का लेख
मुनिसुव्रत की
पञ्चतीर्थी प्रतिमा का लेख
धर्मनाथ की
पञ्चतीर्थी प्रतिमा का लेख
आदिनाथ की
प्रतिमा का लेख
चौबीसी पट्ट पर उत्कीर्ण लेख
हीरालाल चुन्नीलाल का देरासर, लखनऊ
खरतरगच्छीय बड़ा मन्दिर, तुलापट्टी,
कलकत्ता
सुमतिनाथ जिनालय,
जयपुर
विमलनाथ जिनालय,
सवाईमाधोपुर
नाहटा, पूर्वोक्त- लेखांक १४३९
बालावसही, शत्रुंजय, पालिताना
नाहर, पूर्वोक्त- भाग २, लेखांक १६२१
मुनि कान्तिसागर - सम्पा जैनधातुप्रतिमालेख, लेखांक
खरतरगच्छीय आदिनाथ वही, लेखांक ८४० जिनालय, कोटा
२४२
विनयसागर- पूर्वोक्त- लेखांक
८३०
वही, लेखांक ८७३
मुनि कान्तिसागर - सम्पा. शत्रुञ्जयवैभव, लेखांक २५६
खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास :
७९
Page #85
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________________
४८. १५५६
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक
४९.
१५५६
वही, लेखांक १६२६
५०.
१५६९
वही, लेखांक १४५५
८० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
५१.
१५७०
ज्येष्ठ सुदि ९ देवसुन्दरसूरि शीतलनाथ की चिन्तामणि जी का
प्रतिमा का लेख मन्दिर, बीकानेर ज्येष्ठ सुदि ५ सर्व्वसूरि सुमतिनाथ की रविवार
प्रतिमा का लेख श्रावण सुदि ५ आनन्दसूरि के ह्रींकारयंत्र पर
शिष्य चारित्रराज उत्कीर्ण लेख
एवं देवरत्न माघ वदि ५ गुणसमुद्रसूरि आदिनाथ की रविवार
प्रतिमा का लेख फाल्गुन सुदि ५ देवसुन्दरसूरि के तीर्थयात्रा विवरण विमलवसही, आबू मंगलवार शिष्य वाचक का उल्लेख
विवेकसुन्दर के शिष्य वाचक हेमरत्न के शिष्य वाचक सोमरत्न के शिष्य वाचक गुणरत्न एवं उनके गुरुबंधु लक्ष्मीरत्नगणि
वही, लेखांक १५३४
५२. १५९७
मुनि जयन्तविजय- सम्पा. अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, लेखांक २०१
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________________
५३.
५४.
मितिविहीन
१५९९
वैशाख सुदि ५ गुरुवार
गुणसुन्दरसूरि
गुणसुन्दरसूरि के
शिष्य गुणप्रभसूरि
आदिनाथ की प्रतिमा का लेख
आदिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख
चिन्तामणिजी का मन्दिर, बीकानेर
जैन मन्दिर, चेलपुरी, दिल्ली
नाहटा, पूर्वोक्त- लेखांक ८२५
नाहर, पूर्वोक्त- भाग १, लेखांक ५०१
अभिलेखीय साक्ष्यों की प्रस्तुत तालिका के लेखांक १ में वि०सं० १२६० में जलमंदिर, पावापुरी में महावीर स्वामी की प्रतिमा के प्रतिष्ठापक मुनि के रूप में अभयदेवसूरि का नाम आया है किन्तु उक्त प्रतिमालेख में उनके गच्छ का कोई निर्देश नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उन्हें किस आधार पर खरतरगच्छ की इस शाखा से सम्बद्ध माना जाये। चूंकि रुद्रपल्लीयशाखा में वि०सं० १२७८ में जयन्तविजयकाव्य के रचनाकार अभयदेवसूरि का ऊपर उल्लेख आ चुका है और इस काल में अभयदेव नामक किसी अन्य गच्छ में भी कोई अन्य आचार्य या मुनि नहीं हुए हैं अतः पावापुरी में महावीरस्वामी की प्रतिमा के प्रतिष्ठापक अभयदेवसूरि को समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर जयन्तविजयकाव्य के रचनाकार खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा के अभयदेवसूरि से अभिन्न मानने में कोई बाधा नहीं है।
खरतरगच्छ - रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास :
८१
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८२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
अभिलेखीय साक्ष्यों की उक्त सची के लेखों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। प्रथम वर्ग में वे लेख रखे जा सकते हैं जिनमें उल्लिखित मुनिजनों का साहित्यिक साक्ष्यों में भी नाम मिलता है। इनका विवरण इस प्रकार है :
वि.सं. १२९६ के प्रतिमा लेख११ में उल्लिखित अभयदेवसूरि के शिष्य देवभद्रसूरि समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर पुनर्गठित गुरु-शिष्य-परम्परा की तालिका के अभयदेवसूरि (द्वितीय) के पट्टधर देवभद्रसरि से अभित्र माने जा सकते हैं। ठीक यही बात वि.सं. १३०२ के प्रतिमालेख१२ में उल्लिखित देवभद्रसूरि के बारे में भी कही जा सकती है। इसी प्रकार वि.सं. १३२७ के प्रतिमालेख१३ में उल्लिखित श्रीचन्द्रसूरि समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर तालिका संख्या १ में उल्लिखित देवभद्रसूरि के प्रशिष्य तथा प्रभानन्दसूरि के शिष्य एवं पट्टधर श्रीचन्द्रसूरि से अभिन्न समझे जा सकते हैं। वि.सं. १४२१ के प्रतिमालेख.४ में उल्लिखित गुणचन्द्रसूरि भी समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर तालिका संख्या १ में उल्लिखित गुणाकरसरि और अजितदेवसूरि के गुरु गुणचन्द्रसूरि से अभिन्न मानने में कोई बाधा नहीं है। ठीक यही बात वि.सं. १४३२ के प्रतिमालेख.५ में उल्लिखित अभयदेवसूरि तथा साहित्यिक द्वारा ज्ञात अभयदेवसूरि (तृतीय) (वर्धमानसूरि, पृथ्वीचन्द्रसूरि आदि के गुरु) के बारे में भी कही जा सकती है।
लूणवसही के देहरी क्रमांक ११ की एक जिनप्रतिमा पर वि.सं. १४१७ का लेख उत्कीर्ण है१६ जिससे ज्ञात होता है कि यह प्रतिमा ज्ञानचन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी थी। लेख में पूर्णचन्द्रगणि और संघतिलकसूरि का भी उल्लेख मिलता है। लेख का मूलपाठ निम्नानुसार है :
संवत् १४१७ आषाढ सुदि ५ दिने श्रीसंघतिलकसूरिभिः पूर्णचन्द्रगणिना। ठ. जाकेन श्रीमहावीर बिंबं का.प्र. श्रीज्ञानचन्द्रसूरिभिः ।। ठ. मुंजाके. ॥
- ये तीनों मुनिजन किस गच्छ से सम्बद्ध थे, साथ ही साथ ये अलग-अलग गच्छों के थे या एक ही गच्छ के। इन बातों का उक्त लेख से ज्ञान नहीं हो पाता। इसके लिए हमें अन्यत्र प्रयास करना होगा।
उक्त लेख में उल्लिखित ज्ञानचन्द्रसूरि को समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर अर्बुदतीर्थोद्धारक धर्मघोषगच्छीय प्रसिद्ध आचार्य ज्ञानचन्द्रसरि१७ से जिनके द्वारा वि.सं. १३७४-१३९६ के मध्य प्रतिष्ठापित ४० से अधिक जिनप्रतिमाएँ अद्यावधि प्राप्त हो चुकी हैं, अभिन्न माना जा सकता है। ठीक यही बात उक्त लेख में उल्लिखित संघतिलकसरि और रुद्रपल्लीयशाखा के प्रसिद्ध आचार्य संघतिलकसूरि के बारे में भी कही जा सकती है। लेख में उल्लिखित तीसरे मुनि पूर्णचन्द्रगणि के
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खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास : ८३ बारे में जानकारी के अभाव में कुछ भी कह पाना कठिन है।
वि.सं. १५६९ के लेख१८ में उल्लिखित चारित्रराज एवं देवरत्नसूरि के गुरु आनन्दसुन्दर तथा शीलवतीकथा (रचनाकाल वि.सं. १५६२/ई.सन् १५०६) के रचनाकार आज्ञासुन्दरसूरि के गुरु आनन्दसुन्दर भी यदि एक ही व्यक्ति हों तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। इस प्रकार देवभद्रसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि द्वितीय', मुनिसुन्दरसूरि, संघतिलकसूरि, अभयदेवसूरि ‘द्वितीय' आदि का दोनों प्रकार के साक्ष्यों में उल्लेख मिल जाता है। जहां साहित्यिक साक्ष्य इनके पूर्वापर सम्बन्धों के बारे में मौन हैं वहीं अभिलेखीय साक्ष्यों से वे निश्चित हो चुके हैं। इस प्रकार साहित्यिक साक्ष्यों द्वारा निर्मित पूर्वप्रदर्शित तालिका को अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा जो नूतन स्वरूप प्राप्त होता है वह निम्नानुसार है- द्रष्टव्य तालिका क्रमांक-२
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तालिका-२
वर्धमानसूरि (प्रथम) जिनेश्वरसूरि अभयदेवसूरि (प्रथम) नवाङ्गीवृत्तिकार
जिनवल्लभसूरि
जिनशेखरसूरि (रुद्रपल्लीयशाखा के आदिपुरुष)
८४ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
पद्मचन्द्रसूरि विजयचन्द्रसूरि अभयदेवसूरि (द्वितीय) वि.सं. १२७८/ई.सन् १२२२ में जयन्तविजयकाव्य
के रचनाकार
देवभद्रसूरि (वि.सं. १२९८-१३०२) प्रतिमालेख
प्रभानन्दसूरि
श्रीतिलकसूरि (गौतमपृच्छावृत्ति के रचनाकार एवं चारुचन्द्र, जिनभद्र और गुणशेखर को
उपाध्याय पद प्रदान करने वाले)
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विमलचन्द्रसूरि
श्रीचन्द्रसूरि (चारुचन्द्र,जिनभद्र और गुणशेखर को
आचार्य पद प्रदान करने वाले)
चारुचन्द्र
गुणशेखरसूरि
जिनभद्रसूरि (वि.सं. १३८६) प्रतिमालेख
गुणचन्द्रसूरि अभयदेवसूरि (तृतीय)
जयानन्दसूरि
पृथ्वीचन्द्रसूरि (वि.सं. १४२६ के आसपास मासृकाक्षरचौपाई के रचनाकार)
वर्धमानसूरि (द्वितीय) (वि.सं. १४६८/ई.स. १४१२ में आचारदिनकर के कर्ता)
खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास : ८५
आनन्दसुन्दरसूरि
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आज्ञासुन्दरसूरि
देवरत्नसूरि
चारित्रराजसूरि
(वि. सं. १५६२/ई.स. १५०६ में
शीलवतीकथा के रचनाकार)
वि.सं. १५६९ के ह्रींकार यंत्रपर उत्कीर्ण लेख में उल्लिखित
८६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
संघतिलकसूर (वि.सं. १४२२ में सम्यकत्वसप्ततिका के रचनाकार)
श्रीतिलकसरि
सोमतिलकसूरि अपरनाम विद्यातिलक (षट्दर्शनसमुच्चय तथा
अन्य ग्रन्थों के कर्ता)
देवेन्द्रसूरि (वि.सं. १४२९ में प्रश्नोत्तररत्नमालावृत्ति के कर्ता)
गुणचन्द्रसूरि (वि.सं. १४२१) प्रतिमालेख
अजितदेवसूरि
गुणाकरसूरि (वि.सं. १४२६ में भक्तामरस्तोत्रवृत्ति के रचनाकार)
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खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास : ८७
द्वितीय वर्ग में उन प्रतिमालेखों को रखा जा सकता है जिनमें उल्लिखित मुनिजनों का केवल अभिलेखीय साक्ष्यों में ही उल्लेख मिलता है, किन्तु वहां उनकी गुरु-परम्परा के दो-एक नाम ज्ञात होने से कुछ छोटी-छोटी गुर्वावलियां संकलित की जा सकती हैं, जो निम्नानुसार हैं : (अ)
जिनहंससूरि
जिनराजसूरि (वि.सं. १४२१)
जिनहंससूरि (वि.सं. १४९४)
जिनराजसूरि (वि.सं. १५०१-१५०६)
जिनोदयसूरि (वि.सं. १५२५)
देवसुन्दरसूरि (वि.सं. १५४२)
हर्षसुन्दरसूरि (वि.सं. १४७८-१४८६)
देवसुन्दरसूरि (वि.सं. १४५४-१४८७)
लब्धिसुन्दरसूरि (वि.सं. १५०६)
सोमसुन्दरसूरि (वि.सं. १५०१-२५)
हरिकलश (वि.सं. १५४२)
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८८ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ (स)
देवसुन्दरसूरि (वि.सं. १५१९-१५३६)
प्रतिमालेख गुणसुन्दरसूरि
गुणसमुद्रसूरि (वि.सं. १५२८-१५५३) (वि.सं. १५५३-१५७०) प्रतिमालेख
प्रतिमालेख
गुणप्रभसूरि (वि.सं. १५९९)
प्रतिमालेख
(द)
जिनदत्तसूरि
देवसुन्दरसूरि (वि.सं. १५३८-१५५६)
प्रतिमालेख
(क)
देवसुन्दरसूरि
विवेकसुन्दरसूरि
हेमरत्नसूरि
सोमरत्नसूरि लक्ष्मीरत्नसूरि
गुणरत्नसूरि ___ उक्त छोटी-छोटी पांच गुर्वावलियों (अ, ब, स, द और क) में से व और क में परस्पर समायोजन सम्भव हो सकता है, और दोनों को संयुक्त रूप से निम्नानुसार रखा जा सकता है : द्रष्टव्य- तालिका क्रमांक ३
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खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास : ८९
तालिका क्रमांक-३
हर्षसुन्दरसूरि (वि.सं. १४७८-१४८६)
देवसुन्दरसूरि (वि.सं. १४५४-१४८७)
लब्धिसुन्दरसूरि (वि.सं. १५०६)
विवेकसुन्दरसूरि
सोमसुन्दरसूरि (वि.सं. १५०१-१५२५)
हरिकलश (वि.सं. १५४२)
हेमरत्नसूरि
सोमरत्नसूरि
गुणरत्नसूरि
लक्ष्मीरत्न (विमलवसही के वि.सं. १५९७ के लेख में उल्लिखित) तृतीय वर्ग में उन लेखों को रखा जा सकता है जिनमें प्रतिमाप्रतिष्ठापक मुनि एवं गच्छ का तो नाम है; किन्तु उनके गुरु का नहीं। इनका विवरण इस प्रकार हैवि.सं.
प्रतिष्ठापक मुनि का नाम . १५१०
हरिभद्रसूरि१९ १५२५, १५४५ हेमप्रभसूरि२० १५५६
हर्षसुन्दरसूरि२१ १५५६
सर्वसुन्दरसूरि२२ जिनपंजरस्तोत्र२३ के रचयिता कमलप्रभसूरि भी इसी शाखा के थे। उनके गुरु का नाम देवप्रभसूरि था। यह बात उक्त कृति की प्रशस्ति से ज्ञात होती है; किन्तु यह कृति कब रची गयी,रचनाकार के गुरु देवप्रभसूरि किसके शिष्य थे? इसी प्रकार वि.सं. १६५५ में करणराज२४ नामक ज्योतिष ग्रन्थ के रचनाकार मुनिसुन्दर भी खरतरगच्छ की इसी शाखा के थे। उनके गुरु का नाम जिनसुन्दरसूरि था। किन्तु ये जिनसुन्दरसूरि किसके शिष्य थे इस सम्बन्ध में न तो उक्त प्रशस्ति से और न ही किन्हीं अन्य साक्ष्यों से कोई जानकारी प्राप्त होती है। इस प्रकार ये प्रश्न अभी तो अनुत्तरित ही रह जाते हैं।
रुद्रपल्लीयशाखा से सम्बद्ध और अद्यावधि उपलब्ध अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के मुनिजनों के गुरु-परम्परा की कोई विस्तृत तालिका को संगठित कर पाना कठिन है, फिर भी इनसे यह स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर जैन समाज के
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९० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
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नमिनाथ की धातु की वि.सं. 1311 की लेख युक्त प्रतिमा
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खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास : ९१
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नमिनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण वि.सं. 1311 के लेख के मूल पाठ की फोटो प्रति
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९२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ एक बड़े वर्ग पर खरतरगच्छ की इस शाखा के मुनिजनों का लगभग ३०० वर्षों तक प्रभाव रहा है। श्री अगरचन्द नाहटा२५ ने वि.स. की १७वीं शती तक इस गच्छ का अस्तित्व बतलाया है। उसके बाद इस गच्छ से सम्बद्ध कोई सूचना प्राप्त नहीं होती, अत: यह माना जा सकता है कि रुद्रपल्लीय शाखा का १७वीं शताब्दी के बाद स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो गया होगा और इस गच्छ के अनुयायी साधु और श्रावक किन्हीं अन्य गच्छों विशेषकर खरतरगच्छ या उसकी किन्हीं शाखाओं में सम्मिलित हो गये होंगे। सन्दर्भ 3. P. Peterson; A Fourth Report of Operation in Search of Sanskrit
Mss in the Bombay Circle 1886-1892 A.D., Bombay 1896 A.D. No. 1248, pp. 87-89. A.P. Shah; Catalogue of Sanskrit and Prakrit Mss Muniraja Shree Punya Vijayalis Collection, Vol. I,L.D.Series No. 2, Ahmedabad,
1963 A.D., No. 3419, pp. 197-198. ३. Muni Punya Vijaya - Ed. New Catalogue of Sanskrit and Prakrit
Mss. : Jesalmer Collection, L.D. Series No. 36, Ahmedabad 1972
A.D.No. 1798, p. 325. 8. P. Peterson; A First Report of Operation in Search of Sanskrit Mss
in the Bombay Circle,. Bombay 1884 A.D., No. 351, pp. 92-94. हीरालाल रसिकलाल कापड़िया, भक्तामरकल्याणमन्दिरनमिऊणस्तोत्रत्रयम्, मुम्बई १९३२ ईस्वी, पृष्ठ १२२. P. Peterson; A Fifth Report of Operation in Search of Sanskrit Mss. in the Bombay Circle, Bombay 1896 A.D., No. 779, p. 207-208. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूजरकविओ, भाग-१, नवीन संस्करण,
सम्पा० - डॉ० जयन्त कोठारी, मुम्बई १९८६ ईस्वी, पृष्ठ ३७. 6. P. Peterson; A Sixth Report of the Operation in Search of Sanskrit ___Mss. in the Bombay Circle, Bombay 1894 A.D., No. 1299,
pp. 108-109. यह ग्रन्थ खरतरगच्छ ग्रन्थमाला, लालबाग, मुम्बई से १९२२ ईस्वी में दो भागों में प्रकाशित हुआ है। ग्रन्थ के अन्त में ३२ श्लोकों की लम्बी प्रशस्ति है जिसमें ग्रन्थकार के गुरु-परम्परा तथा रचनाकाल आदि का निर्देश है।
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खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास : ९३ ९. जौहरीमल पारेख, सम्पा० - जिनभद्रसूरिज्ञानभण्डार जैसलमेर के हस्त
लिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र, द्वितीय खण्ड, जिनदर्शन प्रतिष्ठान-ग्रन्थ क्रमांक
१, जोधपुर १९८८ ई०, विभाग ४-अ, क्रमांक ४१६, पृष्ठ २४०-२४१. १०. सं० १३११ फाल्गुन सुदि १२ शुक्रे श्री नमिनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं
रुद्रपल्लीयप्रभानन्दसूरिभिः।। B. Bhattacharya, "The bhale Symbol of the Jains", Barliner
Indologische Studien, Band 8, 1995, Plate XXII. ११. ओ० संवत् १२९६ वर्षे फागुण वदि ५ रवौ कीरग्रामे ब्रह्मक्षत्रगोत्रोत्पन्नव्यव.
मानूपुत्राभ्यां व्य. दोल्हणआल्हणाभ्यां स्वकारितश्रीमन्महावीरदेवचैत्ये।। श्रीमहावीरजिनमूलबिंबं आत्मश्रेयो (थ) कारितं। प्रतिष्ठितं च श्रीजिनवल्लभसूरिसंतानीयरुद्रपल्लीयश्रीमदभयदेवसूरिशिष्यैः श्रीदेवभद्रसूरिभिः।। G. Buhler, "The Jaina Inscription in the temple of Baijnatha at Kiragrame", Epigraphia Indica, Vol. I, Calcutta 1892 A.D., pp.
118-119. १२. द्रष्टव्य, लेख क्रमांक २. १३. लेख क्रमांक ४. १४. लेख क्रमांक ७.
१५. लेख क्रमांक ८. १६. मुनि कल्याणविजय, प्रबन्धपारिजात, जालोर १९६६ ई०, लेखांक १४,
पृष्ठ ३८१. १७. शिवप्रसाद, “धर्मघोषगच्छ का संक्षिप्त इतिहास', श्रमण, वर्ष ४१, अंक
१-३, पृष्ठ ५१. १८. द्रष्टव्य- लेख क्रमांक ४९. १९. लेख क्रमांक २३,२४,२५ २०. लेख क्रमांक ३४,४४ २१. लेख क्रमांक ४६. २२. लेख क्रमांक ४८. २३. श्रीरुद्रपल्लीयवरेण्यगच्छे, देवप्रभाचार्यपदाब्जहंसः।
वादीन्द्रचूड़ामणिदेव जैनो, जीयाद्गुरुः श्रीकमलप्रभाख्यः।।२५।। नमस्कारस्वाध्याय, सम्पा० मुनिश्री धुरन्धरविजयजी एवं जम्बूविजयजी, जैन
साहित्य विकास मण्डल, मुम्बई १९६२ ई०स०, पृष्ठ १८४-१८८. २४. अम्बालाल प्रेमचन्द शाह, जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, वाराणसी
१९६९ ई०, पृ० १८९. २५. अगरचन्द नाहटा, “जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश", यतीन्द्रसूरि
अभिनन्दन ग्रन्थ, आहोर १९५८ ई०, पृष्ठ १४५.
१२॥
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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप
दुलीचन्द जैन “साहित्यरत्न''
वर्तमान भारतीय शिक्षा
__ भारतवर्ष की वर्तमान शिक्षा-प्रणाली परतन्त्रता काल से ही अंग्रेजों द्वारा प्रचारित शिक्षा सिद्धान्तों पर आधारित है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के चौवन वर्षों के बाद भी उसमें कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हआ। एक विचारक ने ठीक ही कहा है कि वर्तमान भारतीय शिक्षा-प्रणाली न तो "भारतीय'' है और न ही वास्तविक “शिक्षा''। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि शिक्षा मात्र उन विविध-जानकारियों का ढेर नहीं है, जो हमारे मस्तिष्क में लूंस-ठूस कर भर दिये जाते हैं और जो आत्मसात् हुए बिना वहाँ जीवन भर रहकर गड़बड़ मचाया करते हैं। हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो ‘जीवन-निर्माण', 'मनुष्य-निर्माण' तथा 'चरित्र-निर्माण' में सहायक हों।' सहस्रों वर्षों से इस देश में तीर्थङ्करों, ऋषियों एवं आचार्यों ने मूल्य-आधारित शिक्षा प्रणाली का प्रचार किया। डॉ० अल्तेकर ने प्राचीन भारतीय शिक्षा के सन्दर्भ में लिखा है"प्राचीन भारत में शिक्षा अन्तज्योति और शक्ति का स्रोत मानी जाती थी, जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों के सन्तुलित विकास से हमारे स्वभाव में परिवर्तन करती और उसे श्रेष्ठ बनाती है ताकि हम एक विनीत और उपयोगी नागरिक के रूप में रह सकें।''२ स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा पद्धति में परिवर्तन करने हेतु अनेक आयोगों का गठन हुआ और उन्होंने भी चरित्र-निर्माणकारी जीवन-मूल्यों को शिक्षा में अन्तर्भूत करने पर जोर दिया। सन् १९६४ से सन् १९६६ तक डॉ० दौलत सिंह कोठारी, जो एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे, की अध्यक्षता में कोठारी आयोग का गठन हआ। इसने अपने प्रतिवेदन में कहा- “केन्द्रीय एवं प्रान्तीय सरकारों को नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा का प्रबन्ध अपनी अधीनस्थ संस्थाओं में करना चाहिए।' सन् १९७५ में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद् ने अपने प्रतिवेदन में कहा- “विद्यालय पाठ्यक्रम की संरचना इस ढंग से की जाय कि चरित्र निर्माण शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य बने।''
वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष है कि इसमें भारत के शाश्वत राष्ट्रीय जीवन मूल्यों पर आधारित शिक्षा-दर्शन पर सम्यक् विचार तथा उनका अनुपालन *. जैन इण्डस्ट्रीयल कार्पोरेशन, ३६, सेम्बूडास स्ट्रीट, चेनइ, ६०० ००१.
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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप : ९५
नहीं हुआ। अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा-व्यवस्था आज भी उसी प्रकार से प्रचलित है। उसके परिणामस्वरूप आज का विद्यार्थी दिशा - विहीन तथा बिना पतवार की नौका के समान भटकता दिखायी दे रहा है। शिक्षा क्षेत्र में चारों ओर अराजकता फैल गयी है। अनुशासनहीनता व्यापक रूप में फैल गयी है और उसका घातक प्रभाव हमारे सम्पूर्ण राजनैतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में भी फैला है। प्रसिद्ध चिन्तक डॉ० नेमिचन्द जैन
ठीक ही कहा है कि "आज देश के पास सब कुछ है, सिर्फ एक निष्कलंक, निष्काम और देशभक्त चरित्र नहीं है।" इस भयावह परिस्थिति का सबसे बड़ा कारण है- हमारी दिशा - विहीन दोषपूर्ण शिक्षा नीति । अतएव आवश्यकता है कि भारतीय जीवन मूल्यों को शिक्षा प्रणाली में अन्तर्भूत किया जाय। भारतीय अध्यात्म एवं पश्चिमी विज्ञान का समन्वय हमारे शिक्षा क्षेत्र में क्रान्ति लायेगा तथा उसका अनुकूल प्रभाव हमारे सारे राष्ट्रीय जीवन पर पड़ेगा । संविधान में " धर्मनिरपेक्षता” को हमारी नीति का एक अंग माना गया है। " धर्मनिरपेक्षता' शब्द ही भ्रामक है, क्योंकि भारतीय परम्परा के अनुसार हम 'धर्म' से निरपेक्ष नहीं रह सकते। धर्मनिरपेक्ष का अर्थमात्र इतना ही हो कि राज्य किसी विशेष धर्म का प्रचार नहीं करे, तब तक तो ठीक है, लेकिन इसका अर्थ धर्म से विमुख हो जाना कदापि नहीं है। हमारे देश में प्राचीनकाल से ही तीन धर्मों की धाराएँ मुख्य रूप से बहती रही हैं - वैदिक धर्म, जैनधर्म और बौद्धधर्म। बाद में सिक्खधर्म भी प्रारम्भ हुआ। इन चारों धाराओं ने कुछ ऐसे नैतिक व आध्यात्मिक मूल्य स्थापित किये, जिन्हें सनातन जीवन-मूल्य कह सकते हैं और वे प्रत्येक मानव पर लागू होते हैं। उनका हमारी शिक्षा प्रणाली में विनियोजन अत्यावश्यक है।
जैनागमों में शिक्षा
जैनागमों में शिक्षा एवं ज्ञान के बारे में विस्तृत चर्चाएँ मिलती हैं। वहाँ पर आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों प्रकार की शिक्षाओं का विवेचन एवं दिशा-निर्देश मिलता है। हमें अध्यात्म-विद्या एवं आजीविका की विद्या दोनों की आवश्यकता है। आगम में शिक्षा अथवा ज्ञान प्राप्ति के तीन उद्देश्य बताये गये -
" जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे । । "४
अर्थात् जिन शासन में उसी को ज्ञान कहा गया है जिससे तत्त्वों का बोध होता है, जिससे चित्त का निरोध होता है तथा जिससे आत्मा विशुद्ध होती है। यह आध्यात्मिक शिक्षा का स्वरूप है । दशवैकालिकसूत्र में शिक्षा के चार उद्देश्य बताये गये१. मुझे श्रुतज्ञान (आगम का ज्ञान ) प्राप्त होगा, अतः मुझे अध्ययन करना चाहिए।
२.
मैं एकाग्रचित्त होऊँगा, अतः अध्ययन करना चाहिए।
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९६ :
श्रमण / जुलाई-दिसम्बर २००२
मैं अपने आप को धर्म में स्थिर बनाऊँगा, इसलिए मुझे अध्ययन करना चाहिए। मैं स्वयं धर्म स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थिर बनाऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए | "
३.
४.
इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य मात्र अक्षर ज्ञान नहीं माना गया। शिक्षा द्वारा चित्त की एकाग्रता एवं बुद्धि की स्थिरता प्राप्त होनी चाहिए तथा शिक्षार्थी धर्म के जीवन-मूल्यों को अपनाने के योग्य बने। एकाग्रता के बिना व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता। एक व्यक्ति शिक्षित हो पर मानसिक एकाग्रता से शून्य हो, उसे शिक्षा की विडम्बना ही कहना चाहिए। इसी बात को स्वामी विवेकानन्द ने कहा"हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का निर्माण हो, मानसिक बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके।”६ यही भारतीय संस्कृति का उद्घोष हैं, जो सनातन काल से चला आ रहा है। उपनिषद् में कहा है- “या विद्या सा विमुक्तये" अर्थात् विद्या वही है जो हमें विमुक्त करती है। विद्या किस चीज से विमुक्त करती है ? तो कहा गया कि हममें जो दुःख की स्थिति है, आकुलता और व्याकुलता है, तनाव की स्थिति है, ये चाहे शारीरिक स्तर पर हो या मानसिक स्तर पर उनसे मुक्ति का साधन विद्या ही है।
प्राचीनकाल में विद्या के दो भेद कहे गये- विद्या और अविद्या अविद्या का अर्थ अज्ञान नहीं है, अविद्या का अर्थ है- भौतिक ज्ञान और विद्या का अर्थ है- आध्यात्मिक ज्ञान। जिस प्रकार से एक स्कूटर दो पहियों के बिना नहीं चल सकता है, वैसे ही विद्या और अविद्या दोनों का सामञ्जस्य नहीं हो तो जीवन की गाड़ी भी नहीं चलती । इस प्रकार हमारे देश के आचार्यों ने शिक्षा के सही संस्कारों का सारे देश में प्रचार-प्रसार किया। ये संस्कार हमारे राष्ट्र की सम्पदा हैं, अनमोल धरोहर हैं। हमारे देश में भौतिक ज्ञान की अवहेलना नहीं की गयी; किन्तु उसके साथ आध्यात्मिक ज्ञान को अपनाने पर अधिक जोर दिया गया। जैन आचार्यों ने शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए अध्यात्म विद्या को महाविद्या की संज्ञा प्रदान की। ऋषिभाषितसूत्र में आया हैइमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण उत्तमा । जं विज्जं साहइत्ताणं, सव्वदुक्खाण मुच्चती ।। जेण बन्धं च मोक्खं च, जीवाणं गतिरागतिं । आयाभावं च जाणाति, सा विज्जाया दुक्खमोयणी ।।'
७
अर्थात् वही विद्या महाविद्या है और सभी विद्याओं में उत्तम है, जिसकी साधना
करने से समस्त दुःखों से मुक्ति प्राप्त होती है। जिस विद्या से बन्ध और मोक्ष का, जीवों की गति और अगति का ज्ञान होता है तथा जिससे आत्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार होता है, वही विद्या सम्पूर्ण दुःखों को दूर करने वाली है।
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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप :
ज्ञान और चारित्र
जैन आगमों में आचार्य, उपाध्याय एवं श्रमण / श्रमणियों को विद्या प्रदान करने का अधिकार दिया गया। आचार्य श्रुत ज्ञान के प्रकाशक होते हैं। कहा हैजह दीवा दीवसमं, पईप्पए सो य दीप्पए दीवो । दीवसमा आयरिया, दिप्पंति अप्पं च परं च दीवंति । । '
अर्थात् जैसे एक दीपक से सैकड़ों दीपक जल उठते हैं और वह स्वयं भी जलता रहता है, वैसे ही आचार्य होते हैं, वे स्वयं प्रकाशमान रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते रहते हैं। बोधपाहुड़ में कहा गया है कि आचार्य वे हैं, जो कर्म को क्षय करने वाली शुद्ध दीक्षा और शुद्ध शिक्षा देते हैं। "
९७
जैनधर्म में श्रावक-श्राविकाओं को भी श्रुतज्ञान प्राप्त करने को कहा गया । श्रुत ज्ञान दो प्रकार से प्राप्त होता है- आचार्यों, उपाध्यायों या श्रमणों द्वारा अथवा अपने स्वयं की प्रेरणा द्वारा। लेकिन उस ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं, जो आचार में परिणत नहीं हो। आचार्य उमास्वाति ने कहा
" सम्यग्दर्शन- ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । ९०
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों की सम्मिलित आराधना द्वारा मोक्ष का मार्ग उपलब्ध होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं । । ११ अर्थात् सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चारित्रगुण निष्पन्न नहीं होता । चारित्रगुण के बिना मोक्ष (कर्मक्षय) नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण - परमशान्ति का लाभ नहीं होता। इसी बात को एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझाया गया है—
हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया।
पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो या अंधओ ।।
१२
अर्थात् क्रियाविहीन का ज्ञान व्यर्थ है। अज्ञानी की क्रिया व्यर्थ है। जैसे एक पंगु वन में लगी हुई आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है और अन्धा व्यक्ति दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है। आगे भी कहा गया कि "संजोगसिद्धीइ फलं वयंति१३ अर्थात् ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है।
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९८ :
श्रमण / जुलाई-दिसम्बर २००२
जैन आचार्यों ने चारित्र शुद्धि या आचार शुद्धि पर बहुत अधिक जोर दिया। शिक्षा द्वारा मनुष्य के उदात्त भावों की जागृति होनी चाहिए। उसमें प्रेम, करुणा, अनुकम्पा, परदुःखकातरता, क्षमा आदि मूल्यों का जागरण हो, वह मात्र जानकारियों तक सीमित नहीं रहे। आचाराङ्गनिर्युक्ति में कहा गया- "अंगाणं कि सारो ? आयारो। " १११४
अर्थात् अंग साहित्य का सार क्या है? उनका सार आचार है। शीलपाहुड में कहा गया- "सीलेण विणा विसया, णाणं विणासंति । १९५
अर्थात् शील के बिना इन्द्रियों के विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। इसी ग्रन्थ में कहा गया -- "सीलगुणवज्जिदाणं, णिरत्थयं माणुस जम्मं । १६ अर्थात् शील गुण से रहित व्यक्तियों का मनुष्य जन्म पाना निरर्थक ही है। मनुष्य चाहे कितना भी ज्ञान प्राप्त कर ले, बिना चारित्र के ज्ञान का कोई मूल्य नहीं । आवश्यकनियुक्ति में कहा गया
सुबहुपि सुमहीयं, किं काही? चरणविप्पहीणस्स । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडीवि । ।
१७
अर्थात् शास्त्रों का अत्यधिक अध्ययन भी चरित्रहीन के लिए किस काम का । क्या करोड़ों दीपक जल देने पर भी अन्धे को कोई प्रकाश मिल सकता है ? इस प्रकार जैन आचार्यों ने उस शिक्षा को ग्रहण करने का प्रतिपादन किया जो चारित्र को उन्नत करने वाली हो।
शिक्षाशील कौन ?
आगमशास्त्रों में शिक्षार्थी के गुणों-अवगुणों पर भी विचार किया गया। शिक्षा प्राप्ति की योग्यता किसमें है? इसका वर्णन उत्तर उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है-. वसे गुरुकुले निच्चं जोगवं उवहाणवं ।
पियंकरे पियंवाई से सिक्खं लडु मरिहई । । ८
अर्थात् जो सदा गुरुकुल में वास करता है, योगवान और तपस्वी होता है, मृदुल होता है तथा मधुर बोलता है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
इसी ग्रन्थ में बताया गया कि आठ कारणों या स्थितियों से व्यक्ति शिक्षाशील कहा जाता है
१. हँसी-मजाक नहीं करना, २ . इन्द्रिय और मन पर सदा नियन्त्रण रखना, ३. किसी का मर्म (रहस्य) प्रकट नहीं करना, ४ . शील-रहित (आचार-विहीन) नहीं
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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप : ९९ होना, ५. विशील-दोषों से कलुषित नहीं होना, ६. अति रस-लोलुप नहीं होना, ७. क्रोध नहीं करना एवं ८. सत्य में रत रहना।१९
जैन आगमों में शिक्षार्थी के लिए विनय, अनुशासन एवं प्रामाणिक जीवन पर बल दिया गया। इन्हीं गुणों से व्यक्ति का जीवन श्रेष्ठ बनता है। उपदेशमाला में कहा गया
विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे। विणयाओ दिप्पमुक्कक्स, कओ धम्मो कओ तवो? ।।२०
अर्थात् विनय जिन-शासन का मूल है। संजय और तप से विनीत बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप? दशवैकालिकसूत्र में भी कहा गया
विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणियस्स या।
जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छई।।१
अर्थात् अविनीत को विपत्ति और सुविनीत को सम्पत्ति- ये दो बातें जिसने जान ली है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। इसी सूत्र में यह भी कहा गया
एवं धम्मस्स विणओ मूलं, परमो से मोक्खो।
जेण कित्तिं सुयं सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छइ।। २२
अर्थात् इसी तरह धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम लक्ष्य है। विनय द्वारा ही मनुष्य बड़ी जल्दी शास्त्र-ज्ञान एवं कीर्ति का सम्पादन करता है। अन्त में निःश्रेयस् (मोक्ष) भी इसी के द्वारा प्राप्त होता है।
इसी प्रकार ओगम में विवेकसम्मत आचार पर जोर दिया गया। शिक्षार्थी प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक करे। कहा है
"चरदि जंद जदि णिच्चं, कमलं व जले णिरुवलेवो।"२३
अर्थात् यदि साधक (शिक्षार्थी) प्रत्येक कार्य यतना (विवेक) से करता है, तो वह जल में कमल की भांति जगत् में निर्लेप रहता है। आगम में वाणी के विवेक पर भी जोर दिया गया। कहा है
"हिअमिअअफरुसवाई, अणुवीईभासि वाइओ विणओ।"२४
अर्थात् हित-मित, मृदु और विचारपूर्वक बोलना वाणी का विनय है। इसी प्रकार कहा गया
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१०० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
पुव्वं बुद्धीए पासित्ता, ततो वक्कमुदाहरे।
अचक्खुओ व्व नेतारं, बुद्धिं अन्नेसए गिरा।। २५ अर्थात् पहले बुद्धि से परख कर फिर बोलना चाहिए। अन्धा व्यक्ति जिस प्रकार पथ-प्रदर्शन की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है। शिक्षा के साधक तत्त्व
नीचे दी हुई पन्द्रह प्रकार की प्रवृत्तियों का सेवन करने वाला व्यक्ति शिक्षा के योग्य कहा गया है
१. जो नम्र होता है, २. जो चपल नहीं होता, ३. जो मायावी नहीं होता, ४. जो कुतुहल नहीं करता, ५. जो किसी पर आक्षेप नहीं करता, ६. जो क्रोध को टिकाकर नहीं रखता, ७. जो मैत्री करने वाले के साथ मैत्री का व्यवहार करता है, ८. जो मन का मद नहीं करता, ९. स्खलना होने पर किसी का तिरस्कार नहीं करता, १०. मित्रों पर क्रोध नहीं करता, ११. अप्रियता रखने वाले मित्र की भी एकान्त में प्रशंसा करता है, १२. कलह और हाथापाई का वर्जन करता है, १३. कुलीन होता है, १४. लज्जावान होता है, १५. प्रतिसंलीन- इन्द्रिय और मन का संगोपन करने । वाला होता है।२६ शिक्षा के बाधक तत्त्व उत्तराध्ययनसूत्र में शिक्षा के बाधक तत्त्वों का भी वर्णन है
अह पंचहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्भई।
थंमा कोहा पमाएणं रोगेणाऽऽलस्सएण य।।२७ इसी प्रकार निम्न प्रकार की प्रवृत्तियों वाला अविनीत-शिक्षा के अयोग्य कहलाता है। वह निर्वाण-मानसिक शान्ति को प्राप्त नहीं होता
१. जो बार-बार क्रोध करता है, २. जो क्रोध को टिका कर रखता है, ३. जो मैत्री करने वाले के साथ भी अमैत्रीपूर्ण व्यवहार करता है, ४. जो ज्ञान का मद करता है, ५. किसी की स्खलना होने पर उसका तिरस्कार करता है, ६. मित्रों पर कुपित होता है, ७. प्रियता रखने वाले मित्र की भी एकान्त में बुराई करता है, ८. असम्बद्धभाषी है, ९. द्रोही है, १०. अभिमानी है, ११. लुब्ध है, १२. जितेन्द्रिय नहीं है, १३. संविभाग नहीं करता है, १४. विश्वसनीय अथवा प्रीतिकर नहीं है।२८ स्वाध्याय का महत्त्व
जैन साधना में स्वाध्याय को बहुत महत्त्व दिया गया है। स्वाध्याय शिक्षा का
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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप : १०१
अभिन्न अंग है। भगवान् महावीर ने कहा कि स्वाध्याय महान् तप है। बारह प्रकार के आन्तरिक व बाह्य तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है और न होगा। उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान् से पूछा गया- 'हे भगवान् स्वाध्याय करने से जीव किस बात का लाभ प्राप्त करता है ?" भगवान् ने उत्तर दिया
,,२९
"सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ । '
अर्थात् स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय (ज्ञान को रोकने वाले) कर्मों का नाश करता है।
भगवतीसूत्र में प्रभु महावीर ने बतलाया कि सही प्रकार से स्वाध्याय करने से मनुष्य अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात् परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। वह कथन निम्न है -
सवणे नाणे य विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे । अणण्ये तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी । । ३०
अर्थात् धर्म-श्रवण ( स्वाध्याय) से निम्न लाभ प्राप्त होते हैं
१. ज्ञान, २. विशिष्ट तत्त्व-बोध, ३. प्रत्याख्यान (सांसारिक पदार्थों से विरक्ति), ४. संयम, ५. अनास्रव (नवीन कर्मों का निरोध), ६. तप, ७. पूर्वबद्ध कर्मों का नाश, ८. सर्वथा कर्मरहित स्थिति व ९ सिद्धि (मुक्त स्थिति)
इससे ज्ञात होता है कि जीवन की साधना में स्वाध्याय का स्थान सर्वोपरि है। स्वाध्याय के अंग
जैनशास्त्रों में स्वाध्याय के बारे में विशद विवेचन मिलता है। प्राचीन काल में जब पुस्तकों का प्रचलन नहीं था तब भी स्वाध्याय किया जाता था। उस समय ज्ञान को कण्ठस्थ रखने का प्रचलन था। शिष्य गुरुजनों से शास्त्र श्रवण कर उन्हें अपनी स्मृति में संजोकर रखते थे। वेदों को "श्रुति" और आगम को "श्रुत" कहा गया यह इसी तथ्य का सूचक है। जैन आचार्यों ने स्वाध्याय के निम्न पाँच अंगों का विस्तृत विवेचन किया है
१९. वाचना— स्वाध्याय का पहला प्रकार वाचना है । गुरुजनों से ज्ञान ग्रहण करना, उनके प्रवचन सुनना 'वाचना' कहलाता है। बड़े-बड़े ज्ञानियों ने जो ज्ञान पुस्तकों में लिपिबद्ध किया है, उसे पढ़ना भी वाचना कहलाता है। पढ़ना और किसी से सद्वचन सुनना, यह दोनों वाचना के अन्तर्गत आता है।
२. पृच्छना - पढ़े या सुने हुए ज्ञान के बारे में कोई शंका हो या उसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो तो उसके बारे में जिज्ञासावृत्ति से प्रश्न पूछना ताकि विषय स्पष्ट हो जाये
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१०२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ 'पृच्छना' कहलाता है। इससे ज्ञान सम्यक् बनता है। जैन पद्धति में प्रश्नोत्तर को पृच्छना का अंग माना गया है।
३. परावर्तना-- पूर्व पठित ज्ञान के बार-बार स्मरण करना या उसका पुन: पुन: पारायण करना ताकि पाठ भूले नहीं "परावर्तना" कहलाता है। बार-बार याद करने से ज्ञान स्मृति में स्थायी रूप से स्थिर हो जाता है।
४. अनुप्रेक्षा- ज्ञान के बारे में निरन्तर चिन्तन-मनन करना तथा पठित ज्ञान को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझना “अनुप्रेक्षा'' कहलाता है। इससे ज्ञान में व्यापकता आती है। अनुप्रेक्षा द्वारा स्वाध्यायी ज्ञान में गम्भीरता प्राप्त करता है।
५. धर्मकथा-- जब स्वाध्यायी ज्ञान को ग्रहण कर उसे निशंक कर लेता है तब उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने निर्मल ज्ञान के स्रोत से अन्य लोगों को ज्ञान देकर उनके ज्ञान में अभिवृद्धि करे। साधक वार्ता, चर्चा, प्रवचन, अध्यापन, प्रश्नोत्तर इत्यादि द्वारा अपने ज्ञान को भी सुदृढ़ करता है एवं समाज को भी लाभान्वित करता है। जीवन का सर्वाङ्गीण विकास
उपरोक्त विवेचन से यह कदापि न समझना चाहिए कि भारतीय शिक्षा ने जीवन के भौतिक अंगों की उपेक्षा कर दी, ऐसी बात नहीं है। हमारे यहाँ शास्त्रों में जीवन का समग्र अंग लिया गया है अर्थात् मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा की पूर्ण उद्भावना है। चतुर्विध पुरुषार्थ का विकास करना शिक्षा का उद्देश्य है। चतुर्विध पुरुषार्थ में ही मनुष्य-जीवन के सम्पूर्ण विकास की उद्भावना है। इसको स्पष्ट करने के लिए हम एक नदी का उदाहरण लें। अगर नदी के दोनों किनारें, दोनों तटबन्ध मजबूत होते हैं तो उस नदी का पानी पीने के, सिंचाई के, उद्योग-धन्धों आदि के काम आता है, उसमें जीवों का कल्याण होता है। लेकिन जब उसके किनारे कमजोर पड़ जाते हैं तो नदी बाढ़ का रूप धारण कर लेती है और वही अनेक गाँवों को जलमग्न कर देती है, अनेक मनुष्य और पशु उसमें बह जाते हैं, भयंकर त्राहि-त्राहि मच जाती है। इसी प्रकार मनुष्य का जीवन धर्म और मोक्ष के दो किनारों की तरह है। इन दो तटों . की मर्यादा में अर्थ और काम का सेवन किया जाए तो मनुष्य का जीवन स्वयं के लिए एवं अन्यों के लिए भी उपयोगी और कल्याणकारी सिद्ध होता है। हमारे यहाँ पर जगत और जीवन की उपेक्षा नहीं की गयी, लेकिन संयममय, मर्यादानकल जीवन के व्यवहार पर जोर दिया गया। हमारे यहाँ पर पारिवारिक जीवन में इसी धर्म भावना को विकसित करने को कहा गया। शास्त्रों में पत्नी को “धर्मपत्नी” कहा गया जो धर्म-भावना को बढ़ाने वाली होती है। वह वासना की मूर्ति नहीं है। आगम में पत्नी के बारे में बड़ा सुन्दर वर्णन आता है
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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप : १०३
भारिया धम्म-सहाइया, धम्म-विइज्जिया।
धम्माणुरागरत्ता, समसुह-दुक्ख-सहाइया।।३१ अर्थात् पत्नी धर्म में सहायता करने वाली, साथ देने वाली अनुरागयुक्त तथा सुख-दुःख को समान रूप में बांटने वाली होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम दुनिया की सभी सूचनाएँ प्राप्त करें, विज्ञान व भौतिक जगत् का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें, सारी उपलब्धियाँ प्राप्त करें। लेकिन इन सबके साथ धर्म के जीवन-मूल्यों की उपेक्षा नहीं करें। उस स्थिति में विज्ञान भी विनाशक शक्ति न होकर मानव जाति के लिए कल्याणकारी सिद्ध होगा। तीन प्रकार के आचार्य
राजप्रश्नीयसूत्र में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है- कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य। कलाचार्य जीवनोपयोगी ललितकलाओं, विज्ञान व सामाजिक ज्ञान जैसे विषयों की शिक्षा देता था। भाषा और लिपि, गणित, भूगोल, खगोल, ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीत और नृत्य इन सबकी शिक्षाएँ कलाचार्य प्रदान करता था। जैनागमों में पुरुषों की ६४ और स्त्रियों की ७२ कलाओं का विवरण मिलता है। दूसरी प्रकार की शिक्षा शिल्पाचार्य देते थे जो आजीविका या धन के अर्जन से सम्बन्धित थी। शिल्प, उद्योग व व्यापार से सम्बन्धित सारे कार्यों की शिक्षा देना शिल्पाचार्य का कार्य था। इन दोनों के अतिरिक्त तीसरा शिक्षक धर्माचार्य था, जिसका कार्य धर्म की शिक्षा प्रदान करना व चरित्र का विकास करना था। धर्माचार्य शील और सदाचरण का ज्ञान प्रदान करते थे। इन सब प्रकार की शिक्षाओं को प्राप्त करने के कारण ही हमारा श्रावक समाज बहुत सम्पन्न था। सामान्य व्यक्ति उनको श्रेष्ठी और साहूकार जैसे आदरसूचक सम्बोधन से पुकारता था। भगवान् महावीर ने कहा है- "जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा'' अर्थात् जो कर्म में शूर होता है, वही धर्म में शूर होता है। चरित्र को उन्नत बनाएं
आज सूचना तकनीक का द्रुतगामी विकास हुआ है। रेडियो, टी०वी०, कम्प्यूटर, इण्टरनेट आदि द्वारा विश्व का सम्पूर्ण ज्ञान सहजता से उपलब्ध हो रहा है, लेकिन अगर बालक के चरित्र निर्माण पर ध्यान नहीं दिया गया तो ये वैज्ञानिक साधन उसे पतित कर सकते हैं। आज विश्व के सर्वाधिक समृद्ध राष्ट्र अमेरिका का एक विद्यार्थी १८ वर्ष की उम्र तक कम से कम १२००० हत्याएँ, बलात्कार आदि के दृश्य टी.वी. आदि पर देख लेता है। उस विद्यार्थी के कोमल मस्तिष्क पर इसका कितना भयंकर प्रभाव पड़ता है? आज यही तकनीकी हमारे देश में भी सुलभ हो गयी है। अनेक प्रकार के चैनल व चलचित्र टी०वी० पर प्रदर्शित होते हैं जो २४ घण्टे चलते रहते हैं। उनमें से अनेक हिंसा एवं अश्लीलता को बढ़ावा देने वाले और
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१०४ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ हमारे पारिवारिक जीवन को विखण्डित करने वाले होते हैं। हमारी सरकार भी अधिक आय के लालच में उन्हें बढ़ावा देती है। इसलिए समाज का यह दायित्व है कि जो व्यक्ति शिक्षणशालाएँ चलाते हैं, उनके द्वारा विद्यार्थियों को चरित्र-निर्माण के संस्कार दिये जाएँ। हमें विद्यालयों में जैन संस्कारों का भी ज्ञान देना होगा यथा माता-पिता की भक्ति, गुरु-भक्ति, धर्म-भक्ति एवं राष्ट्र-भक्ति। इसी प्रकार से विद्यार्थियों को मानव मात्र से प्रेम, परोपकार की भावना, जीव रक्षा के संस्कार देने होंगे। उसे यह महसूस कराना कि कोई दुःखी व्यक्ति है तो उसको यथाशक्य मदद देना, सामान्य-जन के सुख-दुःख में सम्मिलित होना, किसी के भी प्रति द्वेष नहीं रखना आदि संस्कार जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जाते हैं। आज विश्व का बौद्धिक विकास बहुत हुआ पर आध्यात्मिक विकास नहीं हुआ। महाकवि दिनकर ने बड़ा सुन्दर कहा है
बुद्धि तृष्णा की दासी हुई, मृत्यु का सेवक है विज्ञान। चेतता अब भी नहीं मनुष्य, विश्व का क्या होगा भगवान् ?
मनुष्य की बुद्धि तृष्णा की दासी हो गयी है। तृष्णा निरन्तर बढ़ती जा रही है। विज्ञान का भी उपयोग अधिकांशत: विध्वंसक अस्त्रों के सर्जन में हो रहा है। ऐसी स्थिति में मनुष्य को सुख और शान्ति कैसे प्राप्त होगी? जैन शिक्षा का आदर्श
भारत में शिक्षा का आदर्श माना गया भौतिक ज्ञान के साथ-साथ आध्यात्मिक ज्ञान का समन्वय। जैन शिक्षा के तीन अभिन्न अंग हैं- श्रद्धा, भक्ति और कर्म। सम्यग्दर्शन से हम जीवन को श्रद्धामय बनाते हैं, सम्यग्ज्ञान से हम पदार्थों के सही स्वरूप को समझते हैं तथा सम्यक् चारित्र से हम सुकर्म की और प्रेरित होते हैं। इन तीनों का जब हमारे जीवन में विकास होता है तभी हमारे जीवन में पूर्णता आती है। शिक्षा द्वारा बौद्धिक विकास के साथ-साथ शिक्षार्थी का आन्तरिक व्यक्तित्व भी बदलना चाहिए। यही जैन शिक्षा का सन्देश है- हम अप्रमत्त बनें, संयमी बनें, जागरूक बनें, चारित्र-सम्पन्न बनें। तभी हमारे राष्ट्र का तथा विश्व का कल्याण सम्भव है। सन्दर्भ-सूची १. स्वामी विवेकानन्द, शिक्षा, प्रकाशक- रामकृष्ण मठ, नागपुर, पृष्ठ ७. २. अनन्त सदाशिव अल्तेकर, प्राचीन भारत में शिक्षा, पृष्ठ १२. ३. शाकाहार-क्रान्ति, (मासिक, नवम्बर-दिसम्बर २००१), पृष्ठ ६. ४. मूलाचार, गाथा २६७. ५. दशवैकालिकसूत्र, गाथा २६७.
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६. शिक्षा, स्वामी विवेकानन्द, पृष्ठ ८.
७.
इसि भासियाइंसूत्र, गाथा १७/१-२. उत्तराध्ययन सूत्रनिर्युक्ति, गाथा ८.
८.
९. बोधपाहुड, गाथा १६.
१०. तत्त्वार्थसूत्र, गाथा १.
११. उत्तराध्ययनसूत्र, २८/३०. १२. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा १०१.
१३. वही, गाथा १०२.
१४. आचाराङ्गनिर्युक्ति, गाथा १६. १५. शीलपाहुड, गाथा २.
१६. वही, गाथा १५.
१७. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा ९८.
१८. उत्तराध्ययनसूत्र, ११ / १४. १९. वही, गाथा ११ / ४-५.
२०. उपदेशमाला, ४ / ३४१.
२१. दशवैकालिकसूत्र, ९/२/२१.
२२ . वही, गाथा ९/२/२.
जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप :
गाथा ७६.
२६. उत्तराध्ययनसूत्र, १० /१३.
२७. वही, ११/३.
२८. वही, ११/६-९.
२९. वही, २९ / १९.
३०. भवगतीसूत्र, २/१११.
३१. उपासकदशाङ्गसूत्र, ७/२२७.
२३. प्रवचनसार, गाथा ३/१८.
२४. दशवैकालिकनिर्युक्ति, गाथा ३२२.
२५. व्यवहारभाष्यपीठिका, संपादिका समणी कुसुमप्रज्ञा, लाडनूं १९९६ ई.,
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जैन आगम - साहित्य में नरक की मान्यता
डॉ० मनीषा सिन्हा
जैन आगम विपाकसूत्र में कर्म फलों पर प्रकाश डाला गया है। व्यक्ति के बुरे कर्मफल प्रायः उसके द्वारा किये गये पाप कर्मों पर आधारित होता है। स्थानाङ्गसूत्र में पापकर्म के नौ कारण स्पष्टत: बताये गये हैं- प्राणितिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया और लोभ । ' जो प्राणी रौद्रकर्म, वचन, विचार एवं आकृति से भयंकर होता है और अपने सुख एवं विलासयुक्त जीवनयापन करने के लिए हिंसा, चोरी, डकैती, लूटपाट, विश्वासघात आदि भयंकर पापकर्म का सम्पादन करता है। जो मद्यपान, मांसाहार, शिकार, मैथुन आदि की प्रवृत्ति को स्वाभाविक कहकर निर्दोष बताने की धृष्टता करते हैं जिनकी कषाय अग्नि कभी शान्त नहीं होती, जो जानवरों की हत्या एवं मछलियों का वध करके अपनी जीविका चलाते हैं ऐसे पापकर्मी मूढ़ जीव अपने किये हुए पापकर्मों का फल भोगने के लिए नरक में जाते हैं। जैन आगमों के अनुसार व्यक्ति नरक में अपने दुष्कर्म का फल भोगने जाता है।
नरक-सम्बन्धी धारणा लोगों के बुरे कर्मों को नियन्त्रित करती थी । इसलिए उन्हें नैतिक मार्ग पर चलाने के लिए नरक के दारुण दुःख-पीड़ा से स्पष्टतः अवगत कराया गया। व्यक्तियों के पापकर्म, फल तथा दण्ड निर्धारण के लिए नरकों का भेद-प्रभेद भी स्थापित किया गया है जिसे सात मुख्य नरक, छह अतिकृष्ट महानरक, छह अयक्रान्त महानरक, पाँच महानरक तथा दो अन्य नरकों में विभाजित किया गया है। साथ ही भयंकर यातनादायी नरकपाल एवं नरक की विषम परिस्थितियों का भी उल्लेख है।
सूत्रकृताङ्ग तथा जीवाजीवाभिगमसूत्र' से सात नरकों का नाम प्राप्त होता है। यथा— रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, तमप्रभा, तमःप्रभा, महातमप्रभा । ये सातों नरक भूमियाँ एक दूसरे के नीचे असंख्य योजनों के अन्तर पर धनोदधि, धनवात, तनुवात और आकाश के आधार पर स्थित हैं। ये नरक भूमियाँ क्रमश: तीस लाख, पच्चीस लाख, बीस लाख, पन्द्रह लाख और दस लाख आवासों में विभक्त हैं। इन नरकों का क्षेत्र विशाल एवं विस्तृत है। इसकी भित्तियाँ वज्रमय हैं। उन भित्तियों में कोई सन्धि छिद्र नहीं है न ही बाहर निकलने के लिए कोई द्वार है ।
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प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास, श्री अग्रसेन कन्या स्वायत्तशासी पी० जी० कालेज, वाराणसी
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जैन आगम-साहित्य में नरक की मान्यता : १०७
नरक की भूमियाँ मृदता रहित कठोर हैं। इन नरकों का कारागार इतना विषम है कि कोई बाहर नहीं आ सकता। आयु पूर्ण होने तक नरकगामी व्यक्तियों को वहाँ रहना पड़ता है और घोर वेदना के कारण क्रन्दन करते हुए ये सहायता के लिए एक दूसरे को सम्बोधित करते रहते हैं। नरकों में हमेशा घोर अन्धकार व्याप्त रहता है। यहाँ सूर्य, चन्द्र या नक्षत्रों का लेशमात्र भी प्रकाश नहीं होता।
___ जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग में, रत्नप्रभा पृथ्वी में भी छह अतिकृष्ट महानरक स्थित हैं। यथा- लोल, लोलुप, उदग्ध, निर्दग्ध, जरक, प्रजरक। इसी प्रकार चौथे नरक पंकप्रभा की पृथ्वी में और छह अपक्रान्त महानरक- आर, वार, मार, रौर, रौरुक एवं खाडखण्ड स्थित हैं। जहाँ प्राणियों को उनके कर्मों के अनुसार दण्ड दिया जाता है। इनके अतिरिक्त महानरक सूत्र से पापकर्मियों को दण्ड प्रदान करने वाले पाँच महानरकों के नाम वर्णित हैं--- काल, महाकाल, रोरुक, महारौरुक, अप्रतिष्ठाना
सूत्रकृताङ्ग में असूर्य१० तथा संतक्षण नामक नरक का उल्लेख है।११ असूर्य नरक महाताप से युक्त तथा घोर अन्धकारपूर्ण एवं अत्यन्त विस्तृत है। इसमें ऊपर-नीचे एवं तिरछी सर्वदिशाओं में प्रज्वलित आग निरन्तर जलती रहती है जिसके कारण पापकर्मी किसी भी स्थिति में बच नहीं पाता और असह्य कष्ट भोगा करता है। संतक्षण नरक में बुरे कर्म करने वाले व्यक्तियों को नरकपाल कुल्हाड़ी से अंग-प्रत्यंग काट डालते हैं।
इन नरकों में सैकड़ों यातनाओं को सहने के बाद भी व्यक्ति आत्महत्या नहीं कर सकता, क्योंकि नरक की भूमि का नाम संजीवनी है।१२ वह औषधि के समान जीवन देने वाली है जिसका रहस्य यह है कि मृत्यु-सा दुःख पाने पर भी आयुष्य शेष रहने के कारण पापकर्मी चूर-चूर किये जाने या पानी की तरह अलग-अलग कर दिये जाने पर भी मरते नहीं अपितु पारे के समान बिखर कर पुन: मिल जाते हैं।१३
नरक में बहने वाली वैतरणी नदी का जल भी रक्त के समान खारा तथा गर्म बताया गया है। नदी की जलधारा उस्तरे की तरह तेज है। इसकी तीक्ष्ण धारा के लग जाने से नारकों के अंग कट जाते हैं। यह नदी बहुत गहन एवं दुर्गम है। नारकीय पापकर्मी जीव अपनी प्यास बुझाने के लिए इसमें कूदते हैं लेकिन उन्हें भयंकर दुःखों का सामना करना पड़ता है। १४
नारकीय जीवों को कष्ट देने वाले को परम अधार्मिक देव कहा गया है तथा जमपुरिस (यमपुरुष) के नाम से सम्बोधित किया गया है। इनके पन्द्रह प्रकार मिलते हैं। अपने स्वभाव के अनुसार ये नारकीय जीवों को भयंकर यातना प्रदान करते हैं। इनकी आकृति भी अशुभतर होती है और शरीर के छोटे-बड़े विविध रूप बना लेते हैं।१५
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श्रमण / जुलाई-दिसम्बर २००२
अम्ब- ये नरकीय जीवों को खींच कर उनके स्थान से गिराता है।
अम्बरीष- ये नारक को गड़ासों से काट-काट कर भाड़ में पकाने योग्य टुकड़े-टुकड़े करते हैं।
१०८ S
श्याम- ये नारकों को हाथ के प्रहार तथा कोड़ों की सहायता से मारते-पीटते हैं।
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शबल- ये नारक के शरीर को चीड़-फाड़ कर अंग-प्रत्यंग निकाल देते हैं। ये नारकीय जीवों को भाले बर्छे आदि से छेदकर ऊपर
रुद्र- उपरुद्र
लटकाते हैं।
ये नरकपाल नारकों को कड़ाही आदि में पकाते हैं। महाकाल— ये नारकीय जीवों के टुकड़े-टुकड़े करके खाते हैं।
असिपत्र- ये नरकपाल सेमल वृक्ष का रूप धारण कर अपने नीचे छाया निर्मित कर नीचे आने वाले नारकों को तलवार की धार के समान तीक्ष्ण पत्ते गिरा कर उन्हें कष्ट प्रदान करते हैं।
काल
धनुष- ये तीक्ष्ण नुकीले बाणों से नारकीय जीवों के अंगों का छेदन - भेदन कर देते हैं।
कुम्भ- ये आग की तपती कुम्भ में व्यक्तियों को पकाते हैं।
बालुका- ये बालु का आकार बना लेते हैं तथा उष्ण बालू में गर्म भाड़ के चने के समान नारकीय प्राणियों को भूनते हैं।
वैतरणी - ये रक्त आदि वीभत्स वस्तुओं से भरी जल नदी का रूप धारण कर प्यास से पीड़ित नारकों को पीड़ा पहुँचाते हैं।
खरस्वरये काले वज्रमय कण्टकाकीर्ण सेमल वृक्ष पर नारकों को बार-बार चढ़ाते उतारते हैं।
महाघोष - ये भय से भागते हुए नारकीय जीवों को बाड़ों में घेर कर उन्हें नानाप्रकार की यातनाएँ देते हैं और तीसरी पृथ्वी तक जा कर नारकों को भयंकर पीड़ा पहुँचाते हैं। "
नरकपाल लोगों को दण्ड प्रदान करने के लिए विभिन्न शस्त्र का प्रयोग करते हैं जो इस प्रकार हैं- मुद्गर, मुसुंदि, करवत, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, कुन्त (भाला), तोमर (बाण का एक प्रकार), शूल, लकुट (लाठी), भिण्डिमाल (पाल), सद्धल (एक विशेष प्रकार का भाला), पट्टिस, द्रुघण (वृक्ष को गिराने वाला
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जैन आगम-साहित्य में नरक की मान्यता :
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शस्त्र विशेष), मौष्टिक, मुष्टिप्रमाण, असिखेटक (तलवारसहित फलक), कप्पिणी, कर्तिका (कैंची), वसुला (लकड़ी छीलने का औजार), परशु (फरसा) तथा टंक (छेनी)।१७
प्राय: नरक में व्यक्तियों को पूर्वजन्म के पाप का स्मरण कराकर गेंद के आकार वाली कुन्दकुम्भी में डालकर पकाया जाता है।५८ शरीर की चमड़ी उधेड़ कर तीखी चोंच वाले पक्षी, जंगली जानवर आदि खा जाते हैं। व्यक्तियों का हाथ-पैर बाँधकर तेज धार वाले उस्तरा से पेट चीरा जाता है। लोग सन्तापनी नरककुम्भी में चिरकाल तक सन्ताप भोगते हैं। इस भूमि का स्पर्श ही इतना कष्टकर होता है, मानों हजार बिच्छुओं के डंकों का एक साथ स्पर्श हुआ हो। कहा गया है कि ---
तहाँ भूमि परसत दुख इसो, वीहू सहस डसें तन तिसो।''१९
नरक से प्राप्त होने वाले महादुःख को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है- परस्परकृत, क्षेत्रजन्य तथा परअधार्मिक देवकृत।२०
जैन आगम साहित्य के नरक-सम्बन्धी मान्यताओं को देखकर प्रतीत होता है कि नरक दुराचारियों, असत्यवादियों का स्थान है जहाँ अधम अन्धकार है और पापकर्म के आधार पर नरकपाल नारकीय जीवों को असहनीय कष्ट प्रदान करते हैं। यह सामान्य जनमानस के लिए भी एक सन्देश था कि वो पापकर्म से बचे और सद्मार्ग का चुनाव कर मृत्युपरान्त प्राप्त होने वाले इन दण्डों से अपनी रक्षा करे। सन्दर्भ-सूची १. स्थानाङ्गसूत्र, नवम स्थान, प्रथम उद्देशक, पृ० ६६९ (सम्पा० मधुकर मुनि),
व्यावर, १९८३ ई०. २-३. सूत्रकृताङ्ग, पञ्चम अध्ययन (प्रथम उद्देशक नरकविभक्ति), पृ० ५७२-७३,
सम्पा० अमरमुनिजी, पंजाब १९७९ ई०. ४. सूत्रकृताङ्ग, पञ्चम अध्ययन (प्रथम उद्देशक- नरकविभक्ति), पृ० ५७४. ५. जीवाजीवाभिगमसूत्र, तृतीय प्रतिपति उद्वर्तना, द्वितीय उद्देशक, पृ० २५१
(सम्पा० - मधुकर मुनि), व्यावर, १९८९ ई०. ६-७. प्रश्नव्याकरण, प्रथम श्रुतस्कन्ध, प्रथम अध्ययन, पृ० २८-२९ (सम्पा०
मधुकर मुनि), व्यावर १९८३ ई०. ८. स्थानाङ्गसूत्र, सम्पा० - मधुकर मुनि,तृतीय उद्देशक, पञ्चम स्थान, पृ० ५५२. ९. वही, तृतीय उद्देशक, पञ्चम स्थान, पृ० ५१६. १०. सूत्रकृताङ्ग, प्रथम उद्देशक, पञ्चम अध्ययन, पृ० ५९०
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११० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ ११. वही, पृ० ५९३. १२-१३. वही, द्वितीय उद्देशक, पञ्चम अध्ययन, पृ० ६१५. १४. वही, प्रथम उद्देशक, पञ्चम अध्ययन, पृ० ५७५. १५. वही, पृ० ५७६, प्रश्नव्याकरण, प्रथम श्रुतस्कन्ध, प्रथम अध्ययन, पृ० ३०. १६. सूत्रकृताङ्ग, प्रथम उद्देशक, पञ्चम अध्ययन, पृ० ५७६-७८. १७. प्रश्नव्याकरण, प्रथम श्रुतस्कन्ध, पञ्चम अध्ययन, पृ० ३६-३७. १८. वही, पृ० ३०. १९. वही, पृ० २९. २०. सूत्रकृताङ्ग, प्रथम उद्देशक, पञ्चम अध्ययन, पृ० ५७५;
प्रश्नव्याकरण, प्रथम श्रुतस्कन्ध, प्रथम अध्ययन, पृ० ३७.
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सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं का
समाधान : अनेकान्त
डॉ० हेमलता बोलिया
आज का सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य किसी से अछूता नहीं है। वर्तमान में समाज और राजनीति की जो स्थिति है उससे वातावरण न तो स्वस्थ ही कहा जा सकता और न शान्त। समाज की लघुतम इकाई परिवार है, परिवारों के समूह को मोहल्ला, एक समान धर्म-आचार और विश्वासों तथा कर्म वाले परिवारों का समूह जाति या समुदाय कहलाता है। यही समुदाय परस्पर आवागमन, सांस्कृतिक पर्यों के आयोजन, आर्थिक विनियोजन के माध्यम से समाज का स्वरूप ग्रहण करता है। वह परस्पर सामञ्जस्य और शान्तिमय जीवन के लिए कुछ नियम या आचार संहिता बनाता है, इस के माध्यम से वह अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करता है।
__परिवार या परिवारों के वातावरण का सामूहिक रूप ही सामाजिक वातावरण है; किन्तु विडम्बना यह है कि आज प्रत्येक परिवार में भौतिक सुख-समृद्धि के होते हुए भी तनाव का दृश्य दिखायी देता है। व्यक्ति जो कुछ सोचता या चाहता है वैसा लाभ या अपेक्षा की पूर्ति परिवार के अन्य सदस्यों से न होने के कारण उसकी सोच की प्रक्रिया तेज होकर नसों में खिंचाव पैदा कर देती है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति अवरुद्ध हो जाती है, परिणामस्वरूप परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति उसके मन में क्रोध उत्पन्न होता है। यही क्रोध जब झुंझलाहट में बदलता है तो परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति विश्वास में कमी और टकराहट उत्पन्न करता है। यथा- सासबहू के प्रति और बहू सास के प्रति सशंक हो उठती है। शंका की स्थिति उन्हें कुछ छिपाने को बाध्य करती है, एक दूसरे के बढ़ते आरोप-प्रत्यारोप परिवार में विघटन-अलगाव पैदा करते हैं। फलत: दोनों ही पक्ष अपने आपको असहाय अनुभव करते हैं। उस असहायता की अनुभूति में उन्हें अर्थ मात्र- अर्थ अपना अवलम्बन प्रतीत होता है। सास चाहती है, अर्थ पर उसका आधिपत्य रहे, उसकी योजनानुसार कार्य हो, बहू भी यही अपने पक्ष में चाहती है। यही द्वन्द्व अलगाव और रिश्तों की टूटन को जन्म देता है। फलस्वरूप एकल परिवार अधिकाधिक अर्थार्जन को अपना लक्ष्य *. संस्कृत-विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
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११२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ बना लेता है, उसे इस धुन में उचित-अनुचित का विवेक भी नहीं रहता और शुरु हो जाती है भ्रष्टाचार, बेईमानी, ऐश्वर्य प्रदर्शन की ललक, पारिवारिक हिंसा, दहेज प्रताड़न, उत्पीड़न, नैतिक मूल्यों का ह्रास, वृद्धों की उपेक्षा, नारी के जीवन पर द्विधा, बढ़ता बोझ, धार्मिक उन्माद आदि। यही क्रम परिवार के समूहस्वरूप समुदाय और सामाजिक गतिविधियों में दृष्टिगत होता है।
राजनीति का परिदृश्य भी कुछ ऐसा ही है। राजनीति का अर्थ है---- 'राज्ञ: नीति' अर्थात् शासक या शासन संचालन की नीति। राजनीति में प्रचलित 'राजन' शब्द का लोकतन्त्रात्मक शासन-पद्धति में अर्थ होगा ‘सत्ता या सत्तारूढ़ दल की नीति', उसके अपने सिद्धान्त, जिनको केन्द्र में रखकर वह शासन संचालन हेतु दिशा-निर्देश देता है, कर्मचारीतन्त्र को आदेश देता है। राजनीति का आदर्श व्यवस्थाओं का नियमन, राष्ट्र की सुरक्षा और प्रजा की समृद्धि होना चाहिए। सभी दल अपना आदर्श भी यही बताते हैं; किन्तु यथार्थ कुछ और ही दृश्य दिखाता है। सत्ता यहाँ चरम लक्ष्य बन गया है। सिद्धान्त दिखाने के दांत रह गये हैं। हर दल अपनी सत्ता हेतु सभी तरह के हथकण्डे अपनाते हैं। फलत: कल तक जो समूह एक दल के समर्थन में था वह दूसरे पल पक्षद्रोह कर दूसरे दल को समर्थन दे देता है, इस अन्धी दौड़ में शासन में अस्थिरता, परस्पर अविश्वास, अर्थ को अनावश्यक महत्त्व, घोटाले, भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण, भाई-भतीजावाद, राष्ट्र-विमुखता, सांस्कृतिक द्रोह और राष्ट्रद्रोह की देहलीज पारकर शत्रुओं और विदेशी कम्पनियों के दस्तक तक बनने की शृङ्खला शुरु हो जाती है।
भगवान् महावीर के आविर्भाव के समय भी कुछ स्थितियाँ ऐसी ही रही होंगी तभी उन्होंने अनेकान्त को व्याख्यायित किया। ‘अनेक अन्त: धर्मा यस्य स अनेकान्त:' अर्थात् वस्तु में विद्यमान अनन्त धर्मों का युगपत् स्वीकार अनेकान्त है। वस्तु एक है उस पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से विचार करने पर उसकी पृथक्-पृथक् विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। अत: अनेकान्त का अर्थ है विभिन्न कोणों या पहलुओं से वस्तु की अखण्ड सत्ता का आकलन।
स्याद्वादमञ्जरी में आचार्य मल्लिषेण ने अनेकान्त का लक्षण किया है
'अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसपपादम्' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म हैं, पदार्थों में अनन्त धर्म माने बिना वस्तु की सिद्धि नहीं होती।
भगवतीसूत्र में कहा गया है कि अस्तित्व और नास्तित्व परस्पर विरोधी नहीं हैं अपितु दोनों सहभावी हैं। दोनों साथ में रहकर ही वस्तु को वास्तविकता प्रदान करते हैं। इस प्रकार अनन्त कोणों का होना विरोध नहीं है। उनका हमारी बुद्धि की पकड़ में न आना विरोध प्रतीत होता है। यथा- किसी वस्तु के विषय में एक दृष्टि से कही
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. सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं का समाधान : अनेकान्त : ११३ गयी बात सच है तो उसी वस्तु के विषय में दूसरे दृष्टिकोण से देखी गयी बात भी उतनी ही सत्य हो सकती है। एक दृष्टिकोण से जो बात सत्य है, दूसरे दृष्टिकोण से वह बात असत्य भी हो सकती है। इस तरह एक ही वस्तु के विषय में सात नयों से कही गयी सात बातें एक साथ सत्य, असत्य और सत्यासत्य हो सकती हैं। यही दृष्टिकोण स्याद्वाद, सप्तभंगीनय या अनेकान्त कहलाता है। हो सकता है जो बात हम कह रहे हैं, वह दूसरे के समझ में न आये अथवा जो बात दूसरा कह रहा है वह हमारी समझ में न आये। सामान्यतया आदमी अपनी बात को सत्य और दूसरे की बात को असत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। अत: तत्त्वचिन्तक आचार्य ने सलाह दी
तत्रापि न द्वेष कार्यों विषयवस्तु यत्नतो मृग्यः।
तस्यापि च सद्वचनं सर्वं यत्प्रवचनादन्यत्।। अर्थात् हमारे वचन से अन्यथा बात कहने वाले व्यक्ति से भी द्वेष नहीं करना चाहिए, वस्तु पर विशेष ध्यान देकर विचार करना चाहिए। हो सकता है उसका वचन भी सद्वचन हो।
भगवान् महावीर द्वारा प्रवर्तित अनेकान्त एकदम नवीन हो ऐसी बात भी नहीं है, इसके बीज हमें वैदिक-साहित्य में भी मिलते हैं, जहाँ उषा को ‘पुरातनी युवतिः' कहा गया हैं। ब्रह्म को अनेक देवों के रूप में व्याख्यायित एक ही तत्त्व मानते हुए कहा है--
एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति। इन्द्रं यमं मातरिश्वानमाहुः।।
किन्तु महावीर ने साढ़े बारह वर्षों की कठोर साधना और तपस्या के बाद प्राप्त सत्य के दर्शन को सर्वत: देखकर यह अनुभूति की और यही अनुभूति उन्होंने अपने शिष्यों को दी कि दूसरों की बात को भी सुनो, सुनो ही नहीं ध्यानपूर्वक सुनो। हो सकता है उसमें भी कोई तथ्य हो और शान्ति-धैर्य और विश्वास से उसकी बात सुनकर अपनी बात कहो। इस जीवन संचालन की पद्धति को एक दृढ़ स्तम्भ के रूप में स्वीकार कर दर्शन में सम्मिलित किया है। इस प्रकार अनेकान्त का सिद्धान्त मौलिक नहीं है। मौलिक है एक वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों का स्वीकार और प्रतिपादन। इसीलिए आज यह भगवान् महावीर और जैनधर्म-दर्शन का पर्याय बन गया है।
वर्तमान सामाजिक और राजनैतिक अराजकता, उलझाव और टूटन के युग में यदि इस सिद्धान्त का व्यापक समझ के साथ उपयोग हो तो पारस्परिक अविश्वास, वैमस्य और आपाधापी के इस झंझावात की गति में अवरोध आ सकता है। विद्वेष, अनाचार और कदाचार की आंधी रुक सकती है। परिवार में सास यदि यह समझ ले
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११४ :
श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
कि दूसरे के घर से आयी बहू जो कुछ कह रही है, वह उस घर के पारिवारिक वातावरण जहाँ से वह आयी है उस दृष्टिकोण से सही हो सकता है। बहू यह समझ ले कि सास जो कुछ कह रही है वह अपने पति-परिवार के खट्टे-मीठे अनुभव के आधार पर कह रही है। दोनों द्वेष छोड़कर वस्तुनिष्ठ विचार करें, एक-दूसरे के विचार को सम्मान दें तो प्रतिदिन के कलह टाले जा सकते हैं। कलह के अभाव में परस्पर प्रेम और विश्वास बना रहेगा, परिवार एक रहेगा तो अलग होने की स्थिति में बसाये जाने वाले
अनेक सामानों के स्थान पर एक-एक समान से ही काम चलेगा, अर्थ व्यय कम होगा और साधनों का अनावश्यक आकर्षण कम होगा, अर्थ मोह की कमी से अनेक दुष्चक्र रुक जायेंगे। कार्य के ठीक उत्तरदायित्वपूर्ण विभाजन से द्विधा बोझ कम होगा
और परस्पर प्रसन्नता व शान्ति रहेगी। यही शान्ति और समृद्धि परिवार से समुदाय में और समुदाय से समाज तक जायेगी। . राजनीतिक पटल पर भी मत-वादों एवं स्व-सिद्धान्त प्रसार के आग्रह के कारण फैलते झगड़े कम होंगे, एक दूसरे द्वारा कही हुई बात का बुरा मानने के स्थान पर दूसरे को सम्मान देते हुए उसका आदर करते हुए अपनी बात कही जायेगी और दूसरे को भी यदि यह विश्वास होगा कि मेरी उचित बांत हमेशा मानी जायेगी तो सत्ता मोह कम होगा, सत्ता मोह का अभाव पारस्परिक 'आयाराम- गयाराम' की नीति को हतोत्साहित करेगा, शासन में स्थिरता आयेगी। राष्ट्र तथा संस्कृति रक्षण सर्वोपरि आदर्श होंगे। फिर हमें विदेशियों के हाथों कठपुतली नहीं बनना पड़ेगा।
उद्योग एवं कर्मचारीतन्त्र में फैलती परस्पर अविश्वास की खाई, यूनियनों के परस्पर झगड़े एवं कर्मचारी वर्ग पर प्रभुत्व जमाने की राजनीति के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। सरकार अनेक बार यह समझती है कि कर्मचारियों की यह आवश्यकता उचित है, उसे देना भी चाहती है, फिर भी वह चाहती है कि इस सुविधा को दिलाने का श्रेय अमुक संगठन को देना है तो वह स्वयं संकेत करती है, हड़ताल होती हैं, देय सुविधा दी जाती है और अदेय सुविधाओं के न मिलने का दोष दूसरे संगठनों पर डालती है। उसका राजनीतिक लाभ चुनाव में लेती है। यदि सरकार सत्ता मोह से हटकर देय सुविधाएँ बिना परेशान किये दे दे तो अव्यवस्थायें दूर हो सकती हैं। साथ ही कर्मचारी वर्ग भी यह समझें कि सरकार जिस कार्य के लिए पैसा देती है, हमें वह कार्य निष्ठा से करना है और राजस्व की बहती सरिता में से अपने घर की ओर कुल्यायें न निकाले तो शायद सरकार के पास भी आर्थिक तंगी न हो। फिर परस्पर तोड़-फोड़ की नौबत न आये। यह तभी हो सकता है जब राजनेता और जनसामान्य के जीवन का अंग महावीर की अनेकान्त दृष्टि बने।
अन्त में निष्कर्ष के रूप में सिद्धसेन दिवाकर के शब्दों में कहा जा सकता है कि “सिन्धु में जैसे सरिताएँ मिलती हैं वैसे ही अनेकान्त दृष्टि में सारी दृष्टियाँ आकर
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- सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं का समाधान : अनेकान्त : ११५ मिल जाती हैं।"५
अत: आज आवश्यकता इस बात को हृदयङ्गम करने की है कि “सत्य शब्दातीत होता है, वह अनुभूति का ही विषय है वाच्यता में उसका एक अंश ही ग्राह्य होता है। बहुधा व्यक्ति एक अंश को ही पूर्ण मानकर आग्रहशील हो जाता है। इसीलिए महावीर ने श्रोता और वक्ता, दोनों के वाच्य अंश को अन्य अंशों से निरपेक्ष न करने का चिन्तन दिया। इसका फलितार्थ है जो मेरा है केवल वही सत्य नहीं अपितु दूसरे के पास जो है वह भी सत्य हो सकता है। पूर्ण सत्य अनुभूति का विषय है।"६
अन्त में आचार्य तुलसी के शब्दों में- "हमारी सबसे बड़ी गलती यही रही है कि तत्त्व की व्याख्या में हमने अनेकान्त को जोड़ा पर जीवन की व्याख्या में उसे जोड़ना भूल गये, जबकि महावीर ने जीवन के हर कोण के साथ अनेकान्त को जोड़ने का प्रयत्न किया है।''
___ अब हमें भी महावीर की भांति जीवन के हर पहलू को अनेकान्त के साथ जोड़ने का सतत् प्रयत्न करना चाहिए। यदि इस दिशा में हम गतिशील होंगे तो समस्याओं के समाधान स्वत: ही हो जायेंगे। इससे अच्छा उपाय और क्या हो सकता है ?
अनेकान्त का इन्द्रधनुष, चिन्तन ने जहाँ छुआ है।
महावीर का जीवन-दर्शन, सार्थक वहीं हुआ है।। सन्दर्भ-सूची १. कारिका-२२. २. द्रष्टव्य, १/१३३-८८ ३. अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम्।
आदेशभेदोदितसप्त भङ्गमदीदृशस्त्वं बुधरूपवेद्यम्।। स्याद्वादमञ्जरी, कारिका-२३. ४. मूल उद्धरण षोडशक १६/१९.
कर्मयोगी केसरीमल सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ, चतुर्थ खण्ड, पृ० २६२. ५. द्रष्टव्य- मुनि नथमल, श्रमण महावीर, पृ० १७८. ६. मुनि महेन्द्र कुमार 'प्रथम', महामानव महावीर, महावीर जयन्ती स्मारिका,
रुड़की १९९४ ई०. ७. समणी कुसुम प्रज्ञा, गुरुदेव तुलसी, पृ० १७६.
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जैन संस्थाएँ एवं समाज में उनका योगदान
डॉ० शैलबाला शर्मा
जैन-समुदाय अत्यधिक छोटा समुदाय है। सम्पूर्ण भारत में जैनों की जनसंख्या लगभग ४० लाख है। यद्यपि ये अल्पसंख्यक हैं तथापि सम्पूर्ण भारत में इनकी अनेकों संस्थाएँ स्थापित हैं जो धार्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक व अन्य धर्मार्थ कार्यों को ध्यान में रखकर स्थापित की गयी हैं। मूलत: ये संस्थाएँ दो प्रकार की हैं प्रथम वे जो दान-धर्म से सम्बन्धित हैं तथा दूसरी वे जो जैन जाति के उत्थान एवं उद्धार हेत स्थापित की गयी हैं। जैन-समुदाय में धनाढ्य लोगों की अधिकता होने के कारण ये सम्पूर्ण भारत में काफी संख्या में संस्था व संगठन के संचालन में समर्थ हैं। संस्था के संचालन हेतु धन की व्यवस्था सुगमतापूर्वक हो जाती है। जो संस्थाएँ बिना किसी भेद-भाव के मानव जाति की सेवा एवं कल्याण में लगी हैं उनका मूल उद्देश्य अन्य जातियों को अपने धर्म के महत्त्व को समझाना है। जैनधर्म के अनुयायियों का विस्तार करना भी इस संस्थाओं का उद्देश्य है। जैन-समदाय के लोग छ: प्रकार के कर्त्तव्यों को महत्त्व देते हैं जो उन्होंने दूसरों के उद्धार हेतु बनाये हैं। इन कर्त्तव्यों को ये चार भागों में विभाजित करते हैं। ये चार प्रकार के दान क्रमश: भोजन, रक्षा, औषधि एवं ज्ञान हैं। इन्हें क्रमश: आहारदान, अभयदान, औषधिदान व शास्त्रदान के नाम से जाना जाता है। सामाजिक संस्थाएँ
. सामाजिक संस्थाएँ सम्पूर्ण मानव जाति के हितों को ध्यान में रखकर स्थापित की गयी हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है- धर्मशालाएँ एवं विश्रामगृह। भारत के प्रत्येक शहर एवं धार्मिक स्थलों में जैन-समुदाय द्वारा धर्मशालाएँ एवं विश्रामगृहों का निर्माण किया गया है। ये सम्पूर्ण सुख-सुविधाओं से युक्त हैं तथा इनको मुफ्त या अत्यधिक कम दरों पर यात्रियों को उपलब्ध कराया जाता है। यद्यपि इन धर्मशालाओं और विश्रामगृहों की संख्या कितनी है यह ज्ञात नहीं है, परन्तु अनुमानत: सम्पूर्ण भारत में इनकी संख्या हजारों में है। इनकी व्यवस्था एवं देखरेख में होने वाला व्यय जैन * शोध अधिकारी, त्रिलोक उच्चस्तरीय अध्ययन एवं अनुसन्धान संस्थान, जवाहर
रोड, कोटा- ३२४००५ (राजस्थान).
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जैन संस्थाएँ एवं समाज में उनका योगदान : ११७
समाज द्वारा वहन किया जाता है।
पशुओं के संरक्षण हेतु "पिंजरापोल " नामक संस्था जैन समुदाय द्वारा देश के विभिन्न शहरों में स्थापित की गयी है। सामान्यतः बीमार एवं अनुपयोगी पशु जिनको इनके मालिकों द्वारा छोड़ दिया जाता है तथा वे पशु जिनको बूचड़खाने ले जाने के पूर्व पकड़ा जाता है, उनको यहाँ रखा जाता है। यहाँ उनके इलाज एवं चारे की समुचित व्यवस्था की जाती है। इनके खर्च की सारी व्यवस्था जैन संस्थाओं द्वारा की जाती हैं। इसके लिए जैन समुदाय द्वारा जीवदया जनप्रसारक मण्डल की स्थापना की गयी है।
सभी शहरों एवं गांवों में औषधालय एवं अस्पतालों का निर्माण भी जैन संस्थाओं द्वारा किया जाता है। यहाँ सभी जाति, धर्म एवं सम्प्रदायों के लिए निःशुल्क चिकित्सा की व्यवस्था की जाती है। इसके साथ ही मुफ्त या अत्यधिक कम दामों में दवाइयों की व्यवस्था की जाती है। जैन संस्थाएँ सामान्यतः आयुर्वेदिक चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराती हैं। साधन सम्पन्न जैनबन्धु इन संस्थाओं को दान देकर इनकी व्यवस्था में सहायता प्रदान करते हैं। शैक्षणिक संस्थाओं जैसे— स्कूलों, महाविद्यालयों, पुस्तकालयों आदि का निर्माण एवं संचालन भी जैन संस्थाओं द्वारा किया जाता है। ये संस्थाएँ अनुदान की राशि पर आधारित होती हैं। ये अनुदान स्वेच्छा से धनाढ्य लोगों द्वारा प्रदान किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त आपातकालीन परिस्थितियों जैसे बाढ़, दुर्भिक्ष, अकाल एवं किसी दुर्घटना आदि में भी ये संस्थाएँ यथासम्भव आर्थिक सहायता एवं मदद प्रदान करती हैं। इस प्रकार की एक संस्था बम्बई में 'भगवान् महावीर कल्याण केन्द्र' के नाम से स्थापित की गयी है। इसके माध्यम से भारत के विभिन्न स्थानों जैसे राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, कर्नाटक आदि में कई उपयोगी कार्य किये जा रहे हैं । ४
धार्मिक संस्थाएँ
कुछ संस्थाएँ पूर्णतः धार्मिक प्रवृत्ति की होती हैं। इनका पूर्ण सामाजिक एवं शैक्षणिक आधार जैनधर्म एवं जैन ग्रन्थों पर आधारित होता है। इन संस्थाओं का प्रथम उद्देश्य धार्मिक पुस्तकों एवं ग्रन्थों का संरक्षण करना होता है। इनको ग्रन्थ भण्डार के नाम से जाना जाता है। सम्पूर्ण भारत में जैनों के बहुत बड़ी संख्या में हस्तलिखित ग्रन्थ हैं जिनके संरक्षण हेतु कई जैन संस्थाएँ वर्षों से कार्यरत हैं। कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र एवं राजस्थान में अनेक जैन-ग्रन्थ भण्डार हैं। इनमें संरक्षित पाण्डुलिपियों के प्रकाशन हेतु ये संस्थाएँ कार्यरत हैं। प्रारम्भ में जैन ग्रन्थों का प्रकाशन धर्म विरुद्ध माना जाता था। पुस्तकों का प्रकाशन एवं प्रकाशित पुस्तकें मन्दिर में ले जाना वर्जित था। जो व्यक्ति पुस्तकों को प्रकाशित करवाता उनको जैन समाज से निष्कासित कर
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११८ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ दिया जाता था। धीरे-धीरे जैनों ने इन विचारों को बदलना प्रारम्भ किया तथा कई जैन केन्द्रों की स्थापना की गयी, जहाँ इन अलभ्य, हस्तलिखित ग्रन्थों के प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ किया गया। आज सम्पूर्ण भारत में अनेकों जैन प्रकाशन संस्थान स्थापित हैं जो जैन ग्रन्थों के सम्पादन एवं प्रकाशन में पूर्णरूप से संलग्न हैं।६
राजस्थान में महावीर कल्याणक केन्द्र की ओर से एक शोध संस्थान का संचालन लगभग ४५ वर्षों से हो रहा है। प्रारम्भ में इसका नाम आमेर शास्त्र भण्डार था तत्पश्चात् अनुसन्धान विभाग, साहित्य शोध विभाग नाम पड़ा। वर्तमान में इसका नाम जैन विद्या शोध संस्थान है। यह जयपुर में स्थापित है। इनके अतिरिक्त जयपुर में महावीर ग्रन्थ अकादमी, जैन इतिहास प्रकाशन संस्थान, प्राकृत-भारती अकादमी, अपभ्रंश-साहित्य अकादमी आदि प्रमुख अकादमिक संस्थान हैं। इनके अतिरिक्त राजस्थान में जैन विश्व भारती (लाडनूं), आगम-अहिंसा, समता एवं प्राकृत संस्थान (उदयपुर), प्राकृत अध्ययन प्रसार संस्थान (उदयपुर), जैन विद्या संस्थान (श्री महावीर जी) आदि प्रमुख शैक्षणिक शोध संस्थान हैं।
उपरोक्त संस्थाओं के अतिरिक्त श्री देवकुमार जैन शोध संस्थान (आरा), पार्श्वनाथ विद्यापीठ (वाराणसी), वीर सेवा मन्दिर (नई दिल्ली), प्राकृत ज्ञान भारती (बैंगलोर), जैन-साहित्य शोध संस्थान (आगरा), दिगम्बर जैन शोध संस्थान (उ०प्र०), गणेशवर्णी शोध संस्थान (वाराणसी), प्राकृत जैन शास्त्र एवं अहिंसा शोध संस्थान (बिहार), लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर (अहमदाबाद), भोगीलाल लहेरचन्द भारतीय संस्कृति संस्थान (दिल्ली), कुन्दकुन्द भारती (नयी दिल्ली), श्रीमती रमा जैन शोध संस्थान (कर्नाटक), सेठ बख्तावर रिसर्च इन्स्टीट्यूट (मद्रास), आचार्य विद्यासागर शोध संस्थान (मध्य प्रदेश), अनेकान्त (कुम्भोज), मुनि विद्यानन्द शोध संस्थान (उ०प्र०), रत्नत्रय शिक्षा एवं शोध संस्थान (दिल्ली), स्यादवाद शोध संस्थान (मध्य प्रदेश), कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ (म०प्र०), भगवान महावीर रिसर्च सेण्टर (महाराष्ट्र), रिसर्च फाउण्डेशन फॉर जैनोलॉजी (मद्रास), प्राकृत एवं जैन विद्या विकास फण्ड (अहमदाबाद), दिगम्बर जैन शोध प्रतिष्ठान (मध्य प्रदेश), आदि प्रमुख जैन शोध संस्थाएँ सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैली हुई हैं जिनके माध्यम से जैन विद्या के विभिन्न पक्षों पर उच्चस्तरीय शोधकार्य किया जा रहा है।
शोध एवं प्रकाशन संस्थान के साथ-साथ सम्पूर्ण भारत में कई पुस्तकालयों का भी जैन संस्थाओं द्वारा निर्माण किया गया जिनके माध्यम से प्रकाशित जैन पुस्तकें आम जनता तक पहुँचायी जा सकें। अपने धर्म के विस्तार का जो उत्साह जैन-समुदाय में देखने को मिलता है वह अन्यत्र दिखाई नहीं देता। अपने साहित्य के प्रचार-प्रसार हेतु ये तीव्र गति से प्रयासरत हैं।
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जैन संस्थाएँ एवं समाज में उनका योगदान : ११९ २०वीं शताब्दी से पूर्व धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टि से जैनधर्म में कोई संगठन नहीं था। सामान्यत: १९वीं शताब्दी तक भट्टारकगण समाज के संचालक थे, जिनकी स्थापना प्राय: मध्यकाल में हुई थी। सम्भवत: मुस्लिम शासकों ने जब जैन मुनिजनों के विरुद्ध नग्नता विरोधी अभियान शुरु किया तभी धर्म की रक्षा हेतु भट्टारकों का उद्भव हुआ। भट्टारक ही धार्मिक समस्याओं का समाधान किया करते थे। सामाजिक क्षेत्र में भी इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती थी। ये न केवल धर्म सन्देश का अपितु जैन-समुदाय को संगठित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी करते थे। परन्तु २०वीं शताब्दी में भट्टारकों का प्रभाव लगभग नगण्य हो गया और इनका स्थान स्थानीय पंचायतों ने ले लिया। जैन-समुदाय द्वारा कुछ धार्मिक संस्थान स्थापित किये गये हैं जिनमें जैनधर्म-सम्बन्धी शिक्षा प्रदान की जाती है। इन संस्थानों का स्वयं का शिक्षा बोर्ड होता है जो परीक्षाएँ आयोजित करता है। यद्यपि वर्तमानकाल में धार्मिक शिक्षा पर आधारित संस्थानों का महत्त्व कम हो गया है तथापि कुछ संस्थाएँ जैसे श्री स्यादवाद महाविद्यालय, (वाराणसी), जैन विश्व भारती संस्थान, (लाडनूं, राजस्थान) धार्मिक शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। शैक्षणिक संस्थाएँ
जैन-समुदाय द्वारा अनेक शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना की गयी जिसमें शिक्षा के साथ-साथ धर्म का भी समावेश किया गया। देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जैनविद्या विभाग हैं। इसमें जैन अनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर (राजस्थान), जैनविद्या एवं प्राकृत-विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय (उदयपुर), जैनविद्या विभाग, कर्नाटक विश्वविद्यालय (धारवाड़), श्रमण विद्या संकाय, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय (वाराणसी, उ०प्र०), जैन-दर्शन विभाग, (संस्कृत-विद्या धर्म-विज्ञान संकाय), काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उ०प्र०), संस्कृत प्राकृत-विभाग, पूना विश्वविद्यालय (महाराष्ट्र), पालि-प्राकृत-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय (हरियाणा), प्राकृत-विभाग, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर (म०प्र०), जैनविद्या-विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मैसूर (कर्नाटक), पालि-प्राकृत-विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय (महाराष्ट्र), जैनविद्या-विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय (मद्रास) तथा प्राकृत-विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद (गुजरात) आदि प्रमुख हैं। लौकिक एवं धार्मिक शिक्षा एक साथ प्रदान करने हेतु जैन-समुदाय द्वारा कई आवासीय स्कूल एवं विद्यालयों की स्थापना की गयी है। इनको 'गुरुकुल' के नाम से जाना जाता है। यद्यपि इसमें विश्वविद्यालयों की भांति ही विषयों का अध्ययन कराया जाता है तथापि इसके साथ-साथ जैनधर्म की निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जाती है। जिन स्थानों पर गुरुकुल उपलब्ध नहीं है वहाँ बोर्डिंग हाउस एवं छात्रावास की सुविधाएँ विद्यार्थियों को प्रदान की गयी हैं। भारत के लगभग समस्त बड़े शहरों में जो शिक्षा के केन्द्र
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१२० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ हैं वहाँ जैन छात्रावास एवं बोर्डिंग सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। यहाँ जैन विद्यार्थियों को ही मुफ्त आवासीय सुविधाएँ दी जाती हैं। जो विद्यार्थी इनमें निवास करते हैं वे किसी भी विद्यालय या विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण करने हेतु स्वतन्त्र होते हैं; किन्तु इनको जैनधर्म-सम्बन्धी शिक्षा भी प्राप्त करना अनिवार्य होता है। इसमें प्रतिदिन मन्दिर जाना एवं रात्रि भोजन का त्याग आवश्यक है।१२
___ जो विद्यार्थी शिक्षा का खर्च वहन करने में असमर्थ होते हैं उनके लिए जैन संस्थाओं द्वारा छात्रवृत्ति एवं ऋण देने का प्रावधान भी है। इसके लिए एक शैक्षणिक फण्ड की व्यवस्था होती है जिसके अन्तर्गत गरीब विद्यार्थियों को आर्थिक सहायता दी जाती है। दात्रवृत्ति देते समय यह ध्यान रखा जाता है कि विद्यार्थी जैन ज्ञाति का और साथ ही धार्मिक रुचि वाला भी हो। ये संस्थाएँ गरीब व अनाथ बच्चों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। ये संस्थाएँ कई प्रकार की होती हैं एक वे जो सिर्फ दिगम्बर जैनों के लिए हैं दूसरी श्वेताम्बर जैनों हेतु एवं कुछ ऐसी भी होती हैं जो सभी जातियों के विद्यार्थियों को सहायता प्रदान करती हैं। ऋण लेने वाले विद्यार्थियों को यह सुविधा प्रदान की जाती है कि अपनी शिक्षा समाप्ति के पश्चात् वे थोड़ी-थोड़ी किस्तों में ऋण की राशि चुका सकें।१३ जैन समाज के उत्थान हेतु स्थापित संस्थाएँ
जैन समाज के उत्थान हेतु अनेक जैन संस्थाएँ जैनों द्वारा स्थापित की गयी हैं। ये संस्थाएँ सामान्यतः दो प्रकार की हैं- प्रथम धर्म पर आधारित संस्थाएँ, दूसरीज्ञाति विशेष से सम्बन्धित संस्थाएँ। धर्म पर आधारित सम्पूर्ण दिगम्बर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी आदि प्रमुख हैं। जातीय संगठनों से सम्बन्धित संस्थाओं में खण्डेलवाल जैन महासभा, सेतवाल जैन महासभा, गोलापुर जैन महासभा आदि हैं।१४
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा ..२०वीं शताब्दी में दिगम्बर जैन समाज ने अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने
के लिए अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा का गठन किया। इसका मुख्य उद्देश्य जैन समाज में नवचेतना जागृत करना तथा पूरे समाज में अशिक्षा, अन्धविश्वास, बालविवाह जैसी कुरीति को समाप्त करना है।५ अखिल भारतीय दिगम्बर जैन परिषद्
इसकी स्थापना २६ जनवरी १९२३ को दिल्ली में की गयी। जैन-ग्रन्थों के प्रकाशन तथा जनगणना में स्वयं को जैन लिखवाने के कार्यों में परिषद् ने महत्त्वपूर्ण - योगदान दिया है। इन्होंने सम्पूर्ण समाज में अपना सन्देश प्रसारित करने हेतु 'वीर'
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जैन संस्थाएँ एवं समाज में उनका योगदान : १२१
नामक पत्रिका के प्रकाशन प्रारम्भ कर सफलतापूर्वक लम्बे समय तक इसका संचालन किया। १६
श्री दिगम्बर जैन महासमिति
इसकी स्थापना सन् १९७५ में की गयी। इसका मुख्य उद्देश्य दिगम्बर जैन समाज में एकता, समन्वय एवं पारम्परिक प्रेम की भावना जागृत करना है। यह दिगम्बर जैन समाज का सबसे बड़ा एवं सशक्त प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन और जैन समाज की एकता का प्रतीक है। १७
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शान्तिवीर सिद्धान्त संरक्षिणी सभा
इस संस्था का निर्माण मुख्य रूप से धार्मिक क्रिया-कलापों एवं गतिविधियों के संचालन हेतु किया गया। इसी संस्था से " जैनदर्शन" नामक पत्र के प्रकाशन भी प्रारम्भ किया गया । १८
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रि परिषद्
इसकी स्थापना सन् १९२० में हुई। इसका मुख्य उद्देश्य सम्पूर्ण दिगम्बर जैन विद्वानों को एक मंच पर लाना तथा उनमें धर्म, संस्कृति एवं साहित्य की सेवा की भावना जागृत करना है।
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद्
इसकी स्थापना २ फरवरी १९४८ में कलकत्ता में हुई। इस संस्था का मूल उद्देश्य दिगम्बर विद्वानों को एकसूत्र में बांधना, उनमें साहित्यिक अभिरुचि तथा समाज में जागृति पैदा करना है। १९
भारतवर्षीय दिगम्बर जैनतीर्थ क्षेत्र कमेटी
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के अंग के रूप में २४ नवम्बर १९३० में भारतवर्षीय तीर्थ संरक्षिणी महासभा की स्थापना हुई । २° दिगम्बर जैनतीर्थ क्षेत्रों, जिन मन्दिरों, प्रतिमाओं, जैन कलाकृतियों एवं धर्म आयतनों की रक्षा एवं व्यवस्था ही इस संस्था का मूल उद्देश्य है। तीर्थ क्षेत्रों के संरक्षण एवं जीर्णोद्धार का सम्पूर्ण कार्य इस संस्था द्वारा संचालित किया जाता है।
अखिल भारतवर्षीय संस्थाओं के अतिरिक्त २०वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जिन जातीय महासभाओं की स्थापना हुई उसमें खण्डेलवाल जैन महासभा प्रमुख है। इसकी स्थापना २८ फरवरी १९१९ को बम्बई में हुई। इसका मुख्य उद्देश्य अपनी ज्ञाति का संगठन, जाति सुधार, शिक्षा का प्रचार-प्रसार एवं जातीय संगठनों के नाम से विद्यालयों
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१२२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ की स्थापना करना है। इसी संस्था द्वारा 'खण्डेलवाल जैन हितेच्छु' पत्र के प्रकाशन का कार्य भी प्रारम्भ किया गया था।२१
२०वीं शताब्दी में जैन समाज, संस्कृति, दर्शन व धर्म के उत्थान हेतु अनेक जैन पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का कार्य भी प्रारम्भ हो गया। इनमें जैन गजट (१८९५), जैन मित्र (१९००), जैन हितैषी (१९०४), जैनसिद्धान्त भास्कर (१९१२), जैन महिलादर्श (१९२१), श्रमण (१९३९), जैन सन्देश, तीर्थङ्कर, शोधादर्श, अहिंसा सन्देश, अनेकान्त, वीरवाणी, तुलसीप्रज्ञा, तित्थयर, अर्हतवचन आदि प्रमुख हैं। ये पत्र-पत्रिकाएँ सजग प्रहरी की भांति जैन समाज एवं संस्कृति के उत्थान एवं प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं।२२ ।
पिछले कुछ वर्षों में जैन-समुदाय ने एक सामुदायिक संगठन एवं संस्था की स्थापना की है। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य जरूरतमन्द व्यक्तियों को आवास उपलब्ध कराना है। इस प्रकार की संस्था का प्रारम्भ सर्वप्रथम बम्बई एवं अहमदाबाद में हुआ। अब धीरे-धीरे लगभग समस्त भारत में इनका विकास हो रहा है। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य जैनों को सस्ते एवं उपयुक्त दरों पर आवास उपलब्ध कराना है। यह संस्था पूर्णत: जातीय एवं क्षेत्रीय आधार पर विकसित की गयी है। कुछ स्थानों में बैंकिंग संस्थाएँ भी स्थापित की गयी हैं, परन्तु अभी इनका पूर्ण विकास नहीं हो सका है। उच्चस्तरीय साहित्य के प्रकाशन हेतु 'भारतीय ज्ञानपीठ' नामक संस्था की स्थापना फरवरी १९४४ में की गयी।२३ इसके पूर्व जैन-साहित्य प्रकाशन की कोई उच्चस्तरीय प्रकाशन संस्था नहीं थी। इस संस्था द्वारा जैन धर्म-दर्शन, साहित्य और कला के क्षेत्र में प्रमाणिक साहित्य के प्रकाशन का कीर्तिमान स्थापित किया गया।
सारांशत: कहा जा सकता है कि २०वीं शताब्दी में जैन समाज को सही राह दिखाने में जैन संस्थाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इन संस्थाओं के माध्यम से ही जैन समाज गतिशीलता एवं प्रगतिशीलता के पथ पर अग्रसर हो सका। जैसे-जैसे जैन समाज की आर्थिक समृद्धि में वृद्धि हुई वैसे-वैसे जैन-समुदाय का दृष्टिकोण व्यापक एवं प्रगतिशील बनता गया। इसी दृष्टिकोण ने अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं धार्मिक संस्थाओं को जन्म दिया। जैन समाज के समृद्ध व्यक्तियों ने मुक्त हस्त से इन संस्थाओं के विकास एवं विस्तार हेतु अनुदान प्रदान किया। इन संस्थाओं के माध्यम से जैन समुदाय ने एक ओर इतर जैनों का अपने प्रति सद्भाव अर्जित किया वहीं दूसरी ओर इन्होंने साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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जैन संस्थाएँ एवं समाज में उनका योगदान : १२३ सन्दर्भ-सूची १. विलास, ए. संगवे, जैन कम्युनिटी, ए सोशल सर्वे, द्वितीय संस्करण, बम्बई
१९८० ईस्वी, पृ० २६६. रिपोर्ट ऑफ महावीर कल्याण केन्द्र, बम्बई १९७० ईस्वी, जैन श्वेताम्बर डायरेक्टरी, अंक १-२, पृ. ५ २२.
विलास ए० संगवे, पूर्वोक्त, पृ. २६७. ४. एम०बी० झवेरी, हिस्टॉरिकल फैक्ट्स एबाउट जैनिज्म, १९२५ ईस्वी,
पृ० १७-१८. परमेष्ठीदास जैन, 'जैन समाज के बीसवीं सदी के प्रमुख आन्दोलन' प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, टीकमगढ़ १९४६ ईस्वी, पृ० ६५३. सी०डी० दलाल एवं एल० बी० गांधी, डिस्क्रिप्टिव कैटलॉग ऑफ
मैन्युस्क्रिप्टस् इन जैन भण्डार ऐट जैसलमेर, बडोदरा १९२३ ई०. ७. कपूरचन्द जैन, प्राकृत एवं जैनविद्या शोध सन्दर्भ, खतौली १९९१.
त्रिलोकचन्द कोठारी, भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ, कोटा, २००१ ई०, पृ० ९४-११४ एवं विद्याधर जोहरापुरकर, भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० ७-१७. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जैन समाज का बृहद् इतिहास, जयपुर १९९२ .
ई०, पृ० १०. १०. डॉ० कपूरचन्द जैन, प्राकृत एवं जैन विद्या शोध सन्दर्भ, पूर्वोक्त, पृ०
१९-२३. ११. वेद वीर शिक्षा विशेषांक, १९६७, अंक ३६, पृ० ३७-४१, ६२-७०. १२. विलास ए० संगवे, पूर्वोक्त, पृ० २७४-७५. १३. वही, पृ० २७५. १४. वही, पृ० १०-११. १५. हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४१८-४२२. १६. कासलीवाल, पूर्वोक्त, पृ० १०. १७. त्रिलोकचन्द कोठारी, दिगम्बर जैन समाज, वैचारिक विकास एवं
सामाजिक दर्शन : बीसवीं शताब्दी का समीक्षात्मक अध्ययन,
शोधप्रबन्ध १९९९-२०००, पृ० २१३. १८. वही, पृ० २२०.
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१२४ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ १९. पं० फूलचन्द शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ, वाराणसी १९८५ ई०, पृ०
५१७-५२०. २०. कोठारी, पूर्वोक्त, पृ० २२० एवं प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार त्रैमासिक पत्रिका,
वर्ष ३, अंक १४, अप्रैल २००२, पृ० ५३. २१. संगवे, पूर्वोक्त, पृ० २७१ एवं कासलीवाल, पूर्वोक्त, पृ० १२. २२. त्रिलोकचन्द कोठारी, भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक
सन्दर्भ, कोटा २००१ ई०, पृ० १९१. २३. कासलीवाल, पूर्वोक्त, पृ० २२.
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Jaina Kosa Literature
Dr. Ashok Kumar Singh*
Nature & Scope
Kośa, also spelled as Kosa, means in literary sense a dictionary, lexicon or a poetical collection, of sentence. The meaning of the Kośa brings under its fold lexicons, encyclopaedia, concordance, glossary, gazetteer, thesaurus and index. Its meaning collection of sentences and poetical collections makes it considerably broad-based, especially in the context of Ancient Indian literature. A large number of texts have come out in form of Nāmamālā, Nāmamālākośa, Nāmamālikā (glossary), Nighanţa, Nighanti, Nighanțuka (collection of word, Vocabulary), Samuccaya (collection), Sangraha (collection), Ratnamālā (collection of various works) and Ratnākara. If works ending with above-mentioned titles are included in this section, the number of works will fairly increase because collections of Subhāṣitas (anthologies), Kathāgranthas (narrative literature) and stotras have to be treated herein. Hence, those collections dealing with narratives etc. have to be dealt in their respective sections.
Classification of Kośas (Dictionaries):
Strictly speaking, the compiling of dictionaries, termed lexicography, is regarded as a branch of applied linguistics. The study of words, their meanings, forms, derivations and development is called lexicon. These vary widely in size, comprehensiveness, purpose and quality. These may be sorted out into several categories, not necessarily mutually exclusive, such as, etymological, technical, specialised, dialect, bilingual and polyglot, and general purpose. A number of dictionaries are devoted to etymology. Bilingual works are generally of this sort. A number of polyglot lexicons are also available, containing terms pertaining to special field in several languages. Technical and special lexicons include of terms used in Philosophy, Mathematics, Astronomy and Astrology etc. The general-purpose dictionary is often encyclopaedic. * Senior Lecturer, Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi.
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126 : Sramana/July-December 2002
The scholars have attempted to present a classification of the dictionaries. The Kośas, mainly ancient and mediaeval and to some extent modern, may be termed as Ekārtha (synonymous)- listing words with the same meaning and Anekārtha and Nānärtha (homonymous)- listing words with the different meanings (Anekārtha and Nānārtha). However, important synonymous dictionaries have homonymous sections as well. In neither of the two is followed the alphabetical order. It was not felt essential because the Kośas were to be kept in memory any way. That does not imply that the arrangement of the words in them is arbitrary. It follows other principles. The longer articles are treated first and the shorter ones later. The common final endings or beginnings may decide their grouping, so may the common gender. The words generally appear in the nominative, singly or the compound as per the exigencies of the metre, as also the meanings, except in the locative. i.gain, if not mentioned, it is indicated by the use of the word in that gender. Some dictionaries have a section on gender at the end. Occasionally the compilers of dictionaries give rather long explanations of words. Normally clubbing of an unfamiliar word with a familiar one indicates the meaning.
Encyclopaedia Britannica classified dictionaries, prepared after 17th cent. onward as Historical- scholarly dictionaries, pronouncing dictionaries, Technical and specialised dictionaries and General purpose dictionaries. Modern linguists also attempted to classify the Kośa literature. An eminent Indian linguist Dr. Bhola Nath Tiwari first pointed out the basis for the classification viz.: (1) Objective, (2) Language, (3) Entries, (4) Period, (5) Meaning, (6) Arrangement of Entries and (7) Specific purposes. To elaborate (1) Objective, the main objectives of the Kośas may be to provide meaning, Pratisabda (substitute words), Synonyms, Antonyms, Introduction, Analysis, Usage, Etymology, Pronunciation and Collection. There are meanings in the dictionaries, substitute word in comparative technical dictionaries of two or more than two languages, synonyms and antonyms in dictionaries of synonyms and antonyms, respectively. Etymology and Pronunciation are contained in their respective dictionaries, Usage in dictionary of usage, Introduction in encyclopaedic dictionary while Introduction and Discussion in subject dictionaries. Collection contains extracts, Anthologies and word indexes. Some
dictionaries may serve the multi- purpose, combining two or more
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Jaina Kośa Literature : 127 purposes at a time i.e. a single dictionary dealing with meaning, etymology and introduction. (2) Language, the dictionaries may be Uni-lingual, Bi-lingual and Polyglot. (3) Entries, the nature of dictionaries may differ as per the entries of words (general words, technical words, geographical, historical and mythological proper names, idioms and proverbs. (4) Period, some may deal with the words of a specific period while others in historical perspective showing evolution. (5) Meaning, dictionaries may deal with words of similar meanings, antonyms, single meanings etc. (6) Arrangement of Entries, mostly the dictionaries of modern period are arranged in alphabetical order while a few ones list words as per the number of syllables in the words. A few ones also have arrangement of words in reverse order. Again, some contain words arranged according to the alphabet of the roots. All the allied words pertaining to a root are clubbed under the particular root and (7) Specific Purpose, from this view -point the dictionaries may be twofold: General and Linguistics.
According to Prof. Tiwari, the Kośas or dictionaries may be broadly divided into three categories: (1) Dictionary of words, (2) Dictionary of Subject and (3) Others. (1) The former category Dictionary of words may again be sub-classified into that of (i) words of a particular work, (ii) words of a work or works of a particular author, (iii) words of a particular genre e.g. prose or poetry, Purāņa, Campū etc. (iv) particular period, (v) dialects, (vi) languages, (vii) Synonym, (viii) Antonym, (ix) Abbreviation, (x) Homonyms, (xi) Usage, (xii) Index, (xiii) Technical terms, (xiv) Word- family, (xv) Roots, (xvi) Rhythms, (xviii) Descriptive Dictionary, (xviii) Historical Dictionary, (xix) Comparative Dictionary, (xx) Pronunciation Dictionary and (xxi) Etymological dictionary. (2) Second category Visayakoșas or Dictionaries of subject may be classified into that of (A) single subject: (i) Koșa, (ii) Encyclopaedia, (iii) Technical and (iv) Collection of Anthology, (B) Multi-subject: (i) Encyclopaedia, (ii) Dictionary of Proper names and (iii) Collection of anthology.
Most of the above sub-types are self-explanatory making the explanation superfluous. However, the nature of some of these is given henceforth for better comprehension. The Dictionary is a
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general name for an alphabetically ordered wordbook, consisting of words and usually idiomatic phrases, combining forms and affixes, customarily listed in alphabetical order and followed variously, by information about their grammatical forms and functions, etymologies, meanings, synonyms, antonyms and illustrative quotations, sometimes dated to show the earliest known uses in specified senses. Although the dictionary is thus a general name for an alphabetically ordered wordbook, the term is distinguished from encyclopaedia, concordance, glossary, gazetteer, thesaurus and index. An encyclopaedia is a publication often in many volumes, containing articles of essential information about vis, ially all areas of knowledge, or about a particular area of knowledge, comprehensively treated. These articles are usually arranged alphabetically by topic and cross-references are ordinarily employed, together with an index. A dictionary that contains information characteristic of an encyclopaedia is called encyclopaedic. A concordance is an alphabetic list of the locutions; usually the principal words in a book. A glossary is a collection or list, usually in alphabetic order, of textual glosses or of terms relating to a particular area of knowledge or usage, often followed by definitions, annotations or both. A gazetteer is a dictionary of geographical names. A reference book of alphabetically ordered names of eminent persons, followed by informative articles about them, and is usually called a biographical dictionary. An index is a list, usually of alphabetic, of locutions, topics, names, titles; etc. especially of those dealt with or mentioned in a particular publication to which it refers.
History of dictionaries: The earliest form of the dictionaries is available in the form of dictionary of words or lexicon. Today, the art of making dictionary comes under the purview of lexicographythe compiling or writing of the dictionaries. Among the oldest works in lexicography in Sanskrit are the collections of Vedic terms, explained by Yāska in his etymological treatise, the Nirukta. These collections differ in many respects from the dictionaries, the Kośas of latter period. Firstly, as regards the purpose, that of the Nighantu was the interpretation of the sacred texts. In the case of the Košas, it was to supply words to poets and writers and to acquaint them with their precise meanings and gender. The second pertains to their being
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Jaina Kosa Literature : 129
restricted to any particular subject or ott. "wise. The Nighantus are limited to a particular text, while the Kośas do not have any such restriction, drawing words as they do from all types of works. The third, pertains to their form, the Nighantus are in prose and Kośas are in verse, mostly in the Anustubh and sometimes in the Aryā metre. The Kośas were purposely written in verse probably because of their being more conducive to memorisation. Placing sufficient vocabulary at the disposal of a perspective writer was the prime motive of Kośa writers.
Just as in grammar, Pāṇini has stolen the limelight so among lexicographers, Amarsingh, the compiler of the celebrated Nāmalingānusāsana, known as Amarakośa after his name. There did precede him lexicographers like Bhāguri (sabdakośa), Vyāļi (Utpalini), Kātyāyana, credited with the compilation of the Nāmamālā, Vācaspati and Vikramaditya, the compilers of sabdārņava and Sańsārāvarta, respectively. Nevertheless, these Kośa works are not available today. The great indologist AC 'Woolner may be credited to provide for the first time the details of Sanskrit Kośa works. In the commentary on Śivakośa of Sivadatta, there is mention of Kosa works and Kośakāras, 51 in aggregate, namely Śabdārņava, Mediniviśva, Dhanvantari, Bhāvamiśvaksta by Simha, Rājanighantu, Amaramālā by Keyadeva, Abhidhāna Cūdāmaņi, Amara, Ajaya Dallana, HỊdayadipaka, Vācaspati, Vāpyacandra, Ashokamalla, Vāgbhața, Madanavinoda, Trikāndaśeșa, Haima, Bopadeva, Rabhasa, Locana, Dharmistha, Devala, Halāyudha, Svāmī, Dvirūpakosa, Nāmamālā, Hārāvali, Madanavinoda, Anekārthadhvani-Mañjarī, Keśava, Kesaramālā, Gālava, Gunaratnamālā, Dharani, Nāmaguņamālā, Purușottama, Madanapāla, Nighaņķu, Ratnakoșa, Rantideva, Vidvadvaidyavallabha, Vaijayanti, Vyādi, śāśvatakośa , sivaprakāša, Śivadatt, , Hattacandra, Hemādri etc.
The Amarakośa (5th cent. AD) is the earliest among the published Kośas. Probably, contemporary to Amara is Saraswata, whose homonymous work, the Anekārthasamuccaya devotes sometimes a whole verse or a part thereof to explain the term. Among other works the Abhidhānanāmamālā of Halayudha(c. AD 950) and the Vaijayanti of the Yadavaprakāśa (c. 1050 AD), the latter rather voluminous, are notable. Maheśvara composed Visvaprakāśa (AD 1111) and
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130 : Śramaņa/July-December 2002
Śabdabhedaprakāśa. The poet Mankha composed Anekārthakośa (AD 1150) in Kaśmīra. Purusottamadeva (13th cent. AD) provided the supplement to Amarasingh's Koša, under the title Trikāndaśeșa and compiled short independent work, the Hārāvali. These are the few specimens of the large number of the lexicons of Vedic tradition. To enlist all the Kośa works of this tradition is neither intended nor viable here in this section.
In the Jaina tradition, the practice of compiling dictionaries coincided with the writing of Jaina canons itself. The third and fourth Anga texts, Sthānānga and Samavāyānga treat the subjects according to their numbers. Thus, the earliest monument of this genre, in Jaina tradition, is in Ardhamāgadhi. As regards the Jaina Kośa works in Sanskrit that of Sākațāyana, preceding Pāņini (c. 5th cent. B.C.), is the earliest. A lexicon by Pūjyapāda), not available today, is also referred to. The other prominent works in Jaina tradition are by Dhanañjaya, Hemacandra etc.. Dhananjaya compiled between (11131140 AD), his Nāmamālā and Anekārthasangraha. Abhidhānacintāmani, Nighantuśeşa, Anekarthasangraha, Nighanțasamaya and Deśīnāmamālā belonged to the prolific Jaina writer Acārya Hemacandra. But prior to both these Dhanapal (c.9th cent. AD) compiled for his sister Sundari, a Prakrit dictionary Pāiyalacchi, used by Hemacandra for his Deśīnāmamālā, a compilation of Deśī words.
Jainas have a large corpus of Sanskrit and Prakrit lexicographical literature, listing an enormous number of words in their immense variety of meanings. As the language grew with the incorporation of new words whether of Indian or foreign origin there are deep imprints of foreign influence in disciplines like astronomy, astrology, medicine, natural and physical sciences and also as meanings underwent change due to natural processes, the need was felt to compile newer and newer dictionaries, to incorporate all the new material in addition to retaining the old one. Hence the compiling of a big crop of dictionaries and lexicons over the centuries.
Before presenting the detail of the works, a brief survey of this literature will be in order. For convenience in presentation, the relevant Jaina works of this genre have been grouped under a number
of heads: Ekārthaka, Anekārthaka, Akşarātmaka (Syllabic), Prakrit
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Jaina Kosa Literature : 131 Kośa, Sanskrit Kośa, Ardhamāgadhikośa, Apabhraṁśakośa, Deśiśabdakośa, Vyutpatyātmaka (Etymological), Viśvakośa (Encyclopaedic), Paribhāṣika (Technical), Vyaktikośa (Biographical), Viṣayakoşa (Subject dictionary), Index, Sangrahakośa (dictionary of collections), Kośas in Tamil, Kosas in Kannada and Other Kosas.
Ekārthaka: Ekārthakośa, containing synonyms of about 1700 Prakrit words, Ladnun 1984.
Anekārthaka: Anekārthanāmamālā by Dhananjaya (1113-1140 AD), Anekārthanāmamālā-Ṭīkā by anonymous, Anekārthasargraha, a homonymous dictionary by Hemacandra (AD 1150), AnekārthaKairavākarakaumudī by Mahendrasuri (13th Cent. AD), Anekārthasangraha-Seṣa by Jinaprabhasūri (1292- 1233 AD), Anekārthavyayasangraha by Śrīdharasena, a Digambar Acārya, both supplement to Anekārthasangraha of Hemacandra, Anekārthasangrahasūcī by Maithil Vidyakara Misra, an index to Hemacandra's Anekārthasangraha, Anekārthadhvanimañjarī by Mahākṣapanaka. Viśvalocanakośa or Muktāvalīkośa by Śrīdharasena, Anekārthanāmamālā by Vinayasagara (fl. 1646A D), Anekārtharatnamañjūṣā by Samayasundara (second half of the 17th cent. AD), pupil of Sakalacandra, of Kharataragaccha, Anekārthanāmamālā by Harṣakīrti (first half of the 17th cent. AD), pupil of Candrakirti of Nāgapuriya Tapagaccha, Anekārtharatnakośa by anonymous of Añcalagaccha, Ekākṣarīnānārthakāṇda by Dharasena, a Digambar Acārya and Nānārthodayasagara Kośa by Muni Ghasilala, Indore 1988.
Akṣaratmaka (Syllabic): Ekākṣaranāmamālikā or Ekākṣaranāmamālā by Amaracandrasuri (13th cent AD), Ekākṣarakośa by Mahākṣapaṇaka in 41 Sanskrit verses, Ekākṣarīnānārthakāṇḍa by Dharasena, a Digambar, Ekākṣaranāmamālā (AD 1350) by Sudhakalaśa and one also by anonymous.
Prakrit Kośa: Paiyalacchīnāmamālā (AD 972) by Dhanapal, Jainakakko (Prakrit-Gujrati) by Balabhai Chaganalala, Pāiyasaddambudhi or Prakritaśabdambudhi by Rajendrasuri in 1899 AD, Paiya Sadda Mahanṇavo by Pt. Haragovinda Das T. Seth, Varanasi, ed. 2nd 1963 and Prakrit-Hindi Kośa, an abridged edition of Paiya-SaddaMahanṇavo of Seth Haragovindadasa, ed. K. R. Candra, Ahmedabad 1987.
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132 Śramaṇa/July-December 2002
Sanskrit Kośa: Dhanañjaya Namamālā by Digambar scholar Dhananjaya (AD1123), its commentaries: DhanañjayanāmamālāBhāṣya, by Digambar monk Amarakirti (fl. 1621 AD) pupil of Mānakīrti, Abhidhānacintāmaṇināmamālā by Hemacandra, its commentaries, Abhdhānacintāmaṇi -Vṛtti, an auto-comm. Tattvavidhāyinī, Abhidhānacintamaṇi- Sāroddhära (AD 1611) or Namasāroddhāra or Durgapadaprabodha by Vallabhagani, AbhidhānacintāmaṇiVyutpattiratnākara (AD 1629) by Devasagaragani, pupil of Vinayacandra in the lineage of Kalyāṇasagarasūri of Añcalagaccha, Abhidhānacintāmaṇi-Avacūri by anonymous, AbhidhānacintāmaṇiRatnaprabha, a commentary by Pt. Vasudevarao Janardana Kaselikara with Gujrati meaning in some cases, Abhidhānacintāmaṇi-Bījaka (AD 1604) by Śubhavijayagani, pupil of Hīravijayasūri, of Tapagaccha and Abhidhānacintāmaṇi-Nāmamālāpratīkāvalī by anonymous, Śeṣanāmamālā by Hemacandra as an appendix Abhidhānacintamani, Śiloñchanāmamālā by Jinadeva (AD 1376), as a supplement to Abhidhanacintamaņi, Šiloñchanāmamālāṭīkā (AD 1598) by Vallabhagani,a comm. on Siloñchanāmamālā of Jinadevasuri, Pañcavargasangrahanāmamālā by Subhaśīlagani (1450 -1500 AD), pupil of Munisundara of Tapagaccha, imitating the Abhidhānacintāmaṇi of Hemacandra, Nāmakosa and Śabdārṇava of Sahajakirti (first half of 17th cent. AD), pupil of Hemanandana Ratnaharṣa of Kharataragaccha, Sundaraprakāśa-Śabdārṇava (AD 1562) by Pdmasundara, Śabdabhedābhedaprakāśa-Ṭīkā by Maheśvara, Namasangraha by Upadhyaya Bhanucandra (16th cent. AD), dealing with the non- compound words of Abhidhanacintāmaṇi, Śāradīyanāmamālā or Śāradīyābhidhānanāmamālā (AD 1600) by Harṣakirti, pupil of Candrakīrti of Nāgapurīya Tapāgaccha, Śabdaratnākara (AD 1623) by Sadhusundaragani (first half of 17th cent. AD), pupil of Sadhukīrti Upadhyaya of Kharataragaccha and Sabdacandrikā by anonymous.
Ardhamāgadhikośa:
Jainagamaśabdasangraha,
Ardhamagadhi- Gujrati dictionary, Lymbdy 1926 and An Illustrated Ardhamagadhi Dictionary (5 Vols.) a voluminous ArdhamagadhiGujarati Hindi-English Dictionary, 2nd ed.
Delhi 1988.
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Apabhraṁśakośa: Uktiratnākara of Sadhusundaragani (first half of 17th cent. AD), pupil of Sadhukirti Upadhyaya of Hindi- Kośa (2 parts) by Naresh
Kharataragaccha, Apabhramsa
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Jaina Kośa Literature : 133 Kumar, Ghaziabad 1987 and Apabhramsa-Hindi -English Kośa by Dr. Bhola Nath Tiwari (in progress),
Deśiśabdakośa: Deśīnāmamālā by Hemacandra (1088- 1172 AD) and Deši sabdakośa, Ladnun 1988.
Vyutpatyātmaka (Etymological): Niruktakośa, Ladnun 1984, Abhidhāna-Vyutpatti-Prakriyā Kośa, (2 Vols.), Bombay 1989.
Visvakośa (Encyclopaedic): Abhidhāna Rājendra Kośa (7 vols.) by Vijaya Rajendrasūri of Saudharmahphattapāgaccha, 2nd ed. Ahmedabad 1986, Jainendrasiddhāntakośa (5 vols.) New Delhi, ed. 2nd 1985 - 1995, Jaina Siddhānta Bola Sangraha (5 vols.) by Bhairodana Sethia, Bikaner 1945-52, Bhikṣu Agama Vişaya Koşa, (cyclopaedia of Jaina Canonical Texts) Pt. 1, Ladnun 1996 and Vanaspatikośa, Ladnun 1996.
Pāribhāșika (Technical Koša): Jaina Gem Dictionary, ed. J. L. Jaini, Arrah 1919, Alpaparicita Saiddhāntika Śabdakośa (8 vols.) by Anandasagarasuri, Surat 1954, Jaina Lakṣaṇāvali (4 Vols.) ed. Balacandra Siddhantasastri, Delhi 1972-73. Jaina Paribhāṣā SabdaKośa by MM Candraprabhasagar, Calcutta 1990, A Glossary of Jaina Technical Terms by Nandalal Jain, 1995 Ahmedabad and Dictionary of Jaina Terms by Prof. Mukul Raj Mehta, Varanasi 2000.
Vyaktikosa (Biographical): Prakrit Proper Names (2 Vols.) by Prof. ML Mehta & KR Candra, Ahmedabad 1970 & 1972, Vardhamāna- Kośa or Vardhamāna Jivanakośa or a Dictionary of Mahāvīra's Biographical Data, by Mohan Lal Banthia & Śricandra Coradia, Calcutta 1980 and Jaina Jyoti (Aitihăsikavyakti Kośa), Vol.1, by Jyoti Prasad Jain, Lucknow 1988.
Visayakoşa (Subject Dictionary): Nighantuśeșa by Hemacandra (1088- 1172 AD), a supplement to Abhidhānacintāmaņināmamālā, Vastukośa by Nāgavarman II (AD1139), Vasturatnakośa by anonymous, Jodhpur 1959, Apavarganāmamālā or Pancavargaparihāranāmamālā by Jinabhadrasuri (first half of 15th cent, AD), chief -disciple of Jinarājasūri of Kharataragaccha, Uņādināmamālā of Subhaśīlagani(c. 1400-1450 AD), pupil of Sadhukirti Upadhyaya of Kharataragaccha, Leśyākośa (Cyclopaedia of Lesyā), compiled by Mohanlal Banthia, Calcutta 1966, Kriyākośa (Cyclopaedia of Kriya) comp. Ācārya Tulsi, Calcutta 1969 and Jaina Purāņa Koşa by Pravira
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134 : Śramaņa/July-December 2002
Candra Jain & Darbari Lal Kothia, Srimahaviraji 1993.
Index: Agamon Kā Gāthākośa Evaṁ Viṣayānukramaņikā (Nandyādigāthādyakārādiyuto Viṣayānukramo) compiled by Anandasagarasuri, Surat 1928 and Jaina Āgamaśabdakośa, Pt.1, Ladnun 1980.
Sañgrahakośa (Dictionary of Collections): Purātana-Jaina Vākya- Sūci by Jugalkishore Mukhtar, Pt.1, Delhi 1950 and Jaina Grantha Prasasti- Sangraha (2 pts.), Delhi 1954, both by Jugalkishore Mukhtar.
Kośas in Tamil: Cūdāmaņi- Nighantu by Mañalapurushar and Pingala -Nighantu by Pingal Muni.
Kośa in Kannada: Ranna-Kāņda by the great poet Ranna, Abhidhāna-ratnamālā by Nāgavarma and Nânärtharatnākara by · Nāgavarma.
Other Kośas: Turuşkināmamālā or Yavanamālā, SanskritPersian, composed by anonymous, Ahmedabad, Student's English - Paiya Dictionary by H. R. Kapadia, Surat 1941, Sanskrit -Prakrit sabdakośa by A. S. Telkar and Sanskrit - Prakrit Sabdakośa by N. A. Godbole.
The details of the Kośa works composed by Jainas are as follows:
Ekārthaka Kosa 1. Ekārthakośa by Vacanapramukha Ācārya Tulsi, containing
synonyms of about 1700 Prakrit words, collected from approximately 100 Jaina canonical as well as non-canonical works. Kośa also gives illustrations from the texts to ascertain their meanings in particular context. The Kośa has three detailed appendices: the first containing alphabetical index of Prakrit v with their meaning in brackets. The second gives different meanings ranging from 2 to 30; the third lists the verbs with their meanings and root in alphabetical order. Pub. Vacanapramukha Acārya Tulsi, ed. Ācārya Mahāprajña, Jaina Viśva Bharati, Ladnun 1984,
P.41, 396. Anekārthaka Kosa 1. Anekārthanāmamālā (Sanskrit) by Dhanañjaya (1113-1140 AD)
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Jaina Kośa Literature : 135 Digambar scholar in 46 verses. It desired that scholars might learn the multiple senses of a word. Pub. The text with Bhāṣya and the text of the Dhananjayanāmamālā of Dhananjaya, Jñanapeeth Murtidevi Jaina Ganthamālā, Sanskrit Grantha No. 6, pp. 102-6. Bharatiya Jñanapeeth, Kasi 1950. Comm. (1) Anekārthanāmamālā-Ṭikā by an anonymous on the above work. Pub. See above.
3. Anekārhanighaṇṭu by Dhananjaya (1113-1140 AD) by Digambar scholar. Pub. with author's Namamālā, See above.
4. Anekārthasańgraha (Sanskrit) by Hemacandra (AD 1150), containing 1889 verses, divided into 7 Kāṇḍas (sections), is a homonymous dictionary. Its Kāṇḍas contain 16, 591, 766, 343, 48, 5 and 60 verses, respectively and are named as Ekasvarakäṇḍa, Dvisvarakāṇḍa, Trisvarakāṇḍa, Catuḥsvarakāṇḍa, Pañcasvarakāṇḍa, Satsvarakāṇḍa and Avyayakāṇḍa. The first six Kāṇḍas are arranged in ascending order of number of vowels. Pub. Text with the comm. Kairavākarakaumudi of Mahendrasuri, pupil of Hemacandra, ed. Zacharia, Bombay 1893. // Text In: Abhidhānasangraha Vol. 2, Mahavira Jaina Sabha, Cambay 1903. / /Text ed. Pt. Jagannath Śastri, Chowkhamba Sanskrit Series Office, Varanasi 1929, P. 152, 30. // Text ed. Vidyakara Misra. The Editor, Calcutta, Mns. BBRAS 92; BORI 2 of 1869-70, 263 of 1873-74, 1 of 1880-81, 414 of 1882-83, 844 of 1886 -92; Pattan I. pp. 94, 105, 305, 387, 388; Pet. I. p. 122 (no. 233), IV. P. 32 (No.844). Comm. (1) Anekārtha-Kairavākarakaumudi by Mahendrasuri (13th cent. AD), pupil of Hemacandra but attributed to Hemacandra, the author. It is based on Viśvaprakāśa, Śāśvata, Rabhasa, Amarakośa, Lingānuśāsana and works of Mankha, Hugga, Vyadi, Dhanapala, Bhaguri, Vacaspati etc. Pub. The comm. with text ed., Zacaria, Bombay 1893.Mns. BBRAS. 92, BORI 702 of 1875-76; 234 of A 1882-83, 1352-54 of 1887 -91, Peterson I PP. 51, 89, 122 (No. 234). (2) Anekārthasañgraha-Țikā by anonymous. Mns. B P. p.209 b; Oxf. II.1111 (1).
5. Anekārthanāmamālā by Vinayasagara (fl. 1646A D) of Añcalagaccha. Mns. AK. 1576. BORI 1576 of 1891 -95.
6. Anekārthasangrahaśesa by Jinaprabhasūri (1292- 1333 AD), a supplement to Hemacandra's (1088- 1172 AD) Anekārtha
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136 Śramana/July-December 2002
Sangraha Mns. BBRAS. 93.
7. Anekārthāvyayasangraha by a Digambar Acārya Śrīdharasena, pupil of Munisena of the Senagaccha, is a supplement to Anekārthasangraha of Hemacandra (1088- 1172 AD). Mns. AK 1348, BORI 1348 of 1891- 95. BP. 213 b (2mss.).
8. Anekārthasaṁgrahasūci by Maithil Vidyakara Misra, an index to Hemacandra's Anekārthasangraha. Mns. Tod. 94.
9. Anekārtharatnamañjūṣā by Samayasundara (second half of the 17th cent. AD), pupil of Sakalacandra, of Kharataragaccha. Pub. Seth Devacanda Lal Bhai Jaina Pustakoddhāra Fund Series No. 81. 10. Anekārthanāmamālā or Anekārthaśata by Harṣakirti (AD 1600), pupil of Candrakīrti of Nāgapurīya Tapāgaccha. Mns. IO 5173 (vide. NCC. I. P. 222).
11. Anekārtharatnakośa by anonymous of the Añcalagaccha. Jaina Granthavali, P.309; (NCC.I. p. 222).
12. Anekārthavṛtti mentioned by Guṇavijayagani in his commentary Viseṣärthabodhikä on the Raghuvamsa. See. BORI. D. XII. ii. 569. (NCC.I. p. 222).
13. Anekārtha-Vṛtti by anonymous on Anekārthamālā. Jaina Granthavali. p. 309. (NCC.I. p. 222).
14. Anekārthadhvanimañjarī by Mahākṣapaṇaka, divided into 3 Paricchedas (sections) having 104 verses in 1st Ślokādhikāra, 87 in 2nd Ardha- Ślokādhikāra and 33 in 3rd Padadhikāra. In fact, it deals with a single word in a whole verse in first Pariccheda, in a half verse in second, while in quarter verse in third. Pub, Kṣullaka Siddhasagara.
15. Viśvalocanakośa or Muktāvalikosa by Acārya Śrīdharasena, a Digambar, pupil of Munisena of the Senagaccha, contains 2453 verses, divided into 35 Vargas (sections). It is a homonymous dictionary, words arranged in order of vowels and consonants herein. The treatment of words is more exhaustive than other lexicon e.g. the term Wrack has 4 synonyms in Medinī, 10 in Amarakośa while 12 in Viśvalocanakośa. Besides, a number of words occurred herein are absent in other lexicons. Pub. Text ed. Nandalal Sarma, Nirnayasagar Press, Bombay 1912. Mns. AD. No. 31. JG.313.
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Jaina Kośa Literature : 137 16. Ekākṣarinānārtha-Kānda by Dharasena, a Digambar Ācārya,
containing 35 verses. The first 28 verses deal with the words, having consonants as its initials, while the last seven verses treat of the
words beginning with vowels. 17. Nānărthodayasāgara Kośa by Ācārya Ghasilal, a dictionary of
Sanskrit words with their synonyms. It contains Hindi commentary also by Ācārya Ghasilal. It contains 2200 Sanskrit verses, comprising 3500 words. Generally verses have been arranged in alphabetical order, however, some exceptions are also visible. Pub. Ghasilal
Maharaja Sahitya Publication Committee, Indore 1988, P.14, 392. Akşarātmaka or Syllabic Koşa 1. Ekākaşara (ri) Nāmamālā or Nighantu by Hemacandra (1088
1172 AD) of Maladharigaccha. Mns. AK. 1349; CPB. 6901 (Hemanāmāvali), 7502.JBhp. I. 423,424.Surat. 1. (981) (NCC. III.
p.59). 2. Ekākṣaranāmamālā (Mālikā) by Sudhakalasa (AD 1350), pupil
of Rajasekharasūri of Harsapuriyagacchia, contains 50 verses only. It belongs to the category of homonymous glossaries of monosyllables. It treats of the letters of the Sanskrit alphabet, giving the various meanings attached to them. Other works of Sudhakalaśa are Sangitopanişad (AD 1324) and its abridgement Sangitasāroddhāra (AD 1350). Pub. In: Abhidhānacintāmaņi, Muktikamala Jainamohanmālā No. 21, Bombay, 1924. //The text, Devacanda Lalbhai Jaina Pustakoddhāra Fund Series No. 87, Surat 1933. Mns. Bhand. V. No. 1341; VI. No.1351; Chani. Nos. 804, 826; DB. 37; Hamsa. Nos. 1454; 1455; 1. O. No.1045: Kath. No.1348;
PAPS.73 (29; 30), SA.No.681; VD. (8); Weber. II. No. 1702. 3. Ekākşarinānārthakānda by Dharasena, a Digambar Ācārya,
containing 35 verses, its first 28 verses deal with the words, having consonants as its initials, while the last seven verses treat of the words beginning with vowels. Ekākṣara (ri)Nāmamālikā or bākṣara-Nāmamālā by Amaracandrasūri (13th cent. AD), pupil of Jinadattasūri of Vāyadagaccha, containing 21 Sanskrit verses. The poet composed it based on Viśvābhidhānakośa as its opening verse suggested. The poet was always held in high esteem as a member of royal court of
King Vīradhavala of Baghela dynasty. His excellent skill in
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138 : Śramaņa/July-December 2002
Samasyāpūrti and extempore poetry earned him a place of great honour among contemporary poets. His other works are Bālabhāratam, Kāvyakalpalatā or Kaviśikṣā, Padmānandamahākāvya and Syādisamuccaya. Pub. with Dhanañjayanāmamālā, Bharatiya Jñānapeeth Murtidevi Jainagranthamālā 6, Kashi 1950. Mns. BORI. 381 of 1884- 86, Oxf. II.1110 (1); Pet. III. p. 397
(No.381); Udaipur. II. 167,14. (NCC.III, p.58) 5. Ekākṣara (ri) Kośa by Mahākṣapanaka in 41 Sanskrit verses. Other
information regarding the author is not available. Pub. The text In: Ekaksaranāmakośasangraha, ed. Pt. Muni Ramanikavijaya, Rajasthan Prācyavidyā Pratisthana, Jodhapur 1964. Mns. Alwar. 1233; BORI. 395 of 1895-98; CPB. 615; Pet. VI. P.94, No. 395;
Stein 53; Trav. Uni. 1700. (NCC. III. p. 57). 6. Ekāksaranāmamālā by anonymous. Mns. Bikaner. 1625; JG. p.
310; Kath. No. 1349; SA. No. 1967; Strass. P. 300; Surat. 9; VD. 3
(13). (JRK. P. 61). Prakrit Kosa 1. Pāiyalacchināmamālā (Prakrit) by Dhanapala (AD 972), a Jaina
laity for his sister Sundari in 279 Gäthäs in Aryā metre. It is a dictionary of synonyms, containing 998 words. This work is the only lexicon in Prakrit. Dhanapal was attracted towards Jaina religion by the preaching of his younger brother Sobhana Muni. He was a respected member of the royal court of the king Munjaraj of Dhara. The king honoured him by conferring the title of Kurcālasarasvati. Subsequently, his term with King Bhoja became precarious when the latter ordered him to revise Tilakamañjari and then after burnt it. In the beginning of his Abhidhānacintāmaņi, Hemacandra (1088- 1172 AD) mentions the lexicon of Dhanapal as an authoritative work. Dhanapal composed Tilakamañjari (Sanskrit prose), Śrāvakavidhi (Prakrit verse), Rşabhapancāśikā (Prakrit verse), Mahāvirastuti (Prakrit verse), SatyapuriyaMandana- Mahāvīrotsäha (Apabhramśa verse), Sobhanastuti-Țīkā (Sanskrit prose). Hemacandra in his Deśínāmamālā quoted the author, Sārangapaddhati refers to Nāmamālā by Dhanapal. It indicates that Dhanapal has composed a number of lexicons, not available today. Pub. The text by Buhler, Beitrage Zur Kunde der Indo- Germanischen Sprachen IV. P. 70ff. 1879. // by Gulabcanda
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Jaina Kośa Literature : 139
5.
Lallubhai, BB & Co. Khargate, Bhavnagar 1916. // Ed. Pt. Bechardas, Bombay. Mns. BA. No. 20; BBRAS. No. 104; BORI. 185 of 1872-73; 52 of 1874-75, 895 of 1886-92; Chani. 1402, 3353, 3556. Laghunamamālā or Nāmamālā or Śāradiya-Abhidhānamālā (AD 1643) by Harsakirtisūri, pupil of Candrakirti of Nāgapuriya Tapāgaccha in Sanskrit. Mns. Bengal.No.7392; BO.p.17; Bhand. V. No.1361, VI. 1409; Buh. IV. No. 281, VI. No. 780;Digambar Jaina Terahapanthi Mandira, Basava, No.58, P.42 (dated 1788 AD):
Weber II.No.1703. 3. Jainakakko, containing Gujrati meaning of Prakrit words by
Balabhai Chaganalala, Pub. Ahmedabad 1812. Pāiyasaddambudhi or Prakrita-Śabdāmbudhi by Rajendrasuri in 1899 AD, it is an abridged form of his gigantic encyclopaedic dictionary Abhidhāna-rajendrakośa. No other information is available pertaining to this lexicon. Unpub. Pāiya Sabda Mahaņņavo by Pt. Haragovinda Das T. Seth, is a dictionary of Prakrit language containing Hindi meaning of about 70,000 words. It also provides Sanskrit equivalents of the Prakrit words, supporting the meaning by extracts, selected from about 250 original Jaina texts with complete references. The wide range of Jaina works, used for citing illustrations, include among others Jaina canonical texts, their commentaries, Karmagranthas, Prakaraṇagranthas, ancient narrative literature etc. Pub. ed. Prof. Vasudeva Sharan Agravala & Pt.Dalsukha Bhai Malvania, Prakrit
Text Society, S.No.7, Varanasi, Ed. 2nd 1963. 6. Prakrit-Hindi Kosa, an abridged edition of the well-known
Prakrit-Hindi dictionary, Pãiya-Sauda- Mahaạnavo of Seth Haragovindadasa Trikamacanda. This edition excludes illustrations from the Jaina texts, figures denoting the serial No. of various meanings as well as declensions of words given in the original edition Pub. ed. K. R. Candra, Prakrit Jaina Vidya Vikasa Fund,
Ahmedabad & Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi 1987, p. 15, 890 Sanskrit Kosa 1. Dhanañjayanāmamālā or Nāmāvali or Dhanañjaya-Nghantu or
Dhanañjaya Koşa or Pramāņa-Nāmamālā or Nighantusamaya
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140 : Sramaņa/July-December 2002
(Sanskrit) by Digambar scholar Dhananjaya (1113-1140 AD) in 200 Anustubh verses. The number of its verses differs from 203 to 205 in various editions. According to New Catalogus Catalogorum the first section containing about 200 verses is called Nāmamālā in one of the concluding verses; the second section in about 50 verses is often called Nighantu; Dhananjaya Koşa etc. sometimes refer to the whole work also. In this lexicon Dhananjaya explained a special method of formulating different words from a particular word. For example if we add Dhara to Prthvi, the compound word thus derived will convey the meaning of mountain, while Prthvi with Pati will connote king. The modern scholars differ regarding his time. His upper age limit is supposed to be 11th cent. A D. In the commentary on Dvisandhana-Mahākāvya, the commentator mentioned the name of author's parents as Vasudeva and Sridevi and of his Guru as Daśaratha. Dhanañjaya's other works are Anekārthanāmamālā, Rāghavapāņdaviya. Dvisandhāna-Mahākāvya, Vişāpahārastotra and Anekārtha- Nighanțu. Pub. In: Dvādaśakośasangraha, Benares 1872. // with Anekārthanāmamālā, text with Hindi translation, Haraprasad Jain, 1942. I/ Jñānapeeth Mūrtidevi Jaina Grantha Sanskrit S. No. 6, pp. 1-92,Benares 1950. Il Mns. Arrah I, P. 14. B.III. 38,42, BORI (0 of 1871-72, 336 Of 1875-76, 212 and 213 of 1879-80, 147 and 201 Of 1882-83, 384 of 1884-1886, 574 of 1887-91, 443 of 1892-95, Jodhpur 298, Peterson. III. p.217, No.53, p. 397, No.384, Comm. (1)Dhananjayanāmamālā-Bhāsya by Digambar monk Amarakīrti. The commentator found the words included in the lexicon as sufficient and treated them etymologically. Amarakīrti has sometimes added new synonyms to the given ones. In all probability, Amarakīrti flourished in the 14th cent. AD. The Bhāsya on the 122nd verse of the Nāmamālā refers to Mahābhişeka of Āsādhara, who accomplished his work, Anagāradharmāmsta in AD 1257 therefore Amarakirti was posterior to Āsādhara. Pub. Bhāșya with the text and Anekārthanāmamālā of Dhananjaya and its commentary, Anekārtha Nighantu and Ekākşarī Kośa, Bharatiya Jñānapeeth, Kasi 1950. (2)Nāmamālā commentary, in Kannada by anonymous. Mns.
Moodbidri. I. 223,228; Pul. II. p. 111. (NCC.X. P.45). 2. Nighantasamaya by Dhananjaya (1113-1140 AD), in two
Paricchedas (sections). Probably, the same as Dhanañjayanāmamālā.
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Jaina Kośa Literature : 141 Mns. Adyar. II. p.43b (ch.1), BORI. 1145 and 1146 of 1884-87, 398 of 1895-98; RASB. VI. 4732 A. (NCC. X. p. 116). Comm. (1) Nighanțasamaya- Vịtti by Amarakirti. Mns. Jhalarpatan. p. 30.
(NCC. X. p.116). 3. Abhidhānacintāmaņināmamálā (Sanskrit) by Hemacandra
(1088- 1172 AD), is a famous lexicon, containing 1542 verses in different metres, divided into 6 Kāndas (sections). This Kośa is a collection of the conventional, derivative and mixed words of one sense type. The first Devādhideva Kānda, in 86 verses, comprises the names and the Atiśayas etc. of 24 Tīrthankaras. The second Devakānda, containing 250 verses, treats of the Jaina, Brahmanical and Buddhist gods and terms pertaining to them. The third Martya Kānda contains in 597 verses, the words relating to human beings in their different relations and the objects used by them. The fourth Bhūmikānda deals, in 423 verses, with the names of animals, birds, vegetables, minerals etc. The fifth Narakakānda, in 7 verses, enumerates the beings of the nether world and in the last Sāmānyakānda, in 178 verses, it deals with the abstract notions such as sound, smell, adjectives and the indeclinable. The Abhidhānacintamani begins with a description of the Rūdha (conventional), Yaugika (derivative) and Miśra (mixed) terms. The conventional terms lack derivation. Derivative ones are proved by roots etc. The mixed terms have the features of both conventional and derivative terms. For gender, author's Lingānuśāsana is referred to. Stating the utility of the lexicon, Heinacandra says that oration and versification as said by the learned are the result of erudition, but both these cannot be possible without the knowledge of words. Hemacandra not only included the synonym words herein but also important materials related with linguistic. He collected as much word as he could and underlined the similarity between the old and new words. From the linguistic points of view, this work fully demonstrated the influence of words, contained in Prakrit, Apabhramsa and Deśya languages. Pub. The text with German trans. Bohetlingk & Charles Rieu, Akademie der Wissensschaften: St. Petersburg 1847, pp. 12, 433. Il ed. Pt. Sivadatta & Kasinath Panduranga Parab, In: Abhidhāna-Sangraha, Nirnayasagar Press, Bombay 1896, pp. 6, 58. Il with Abhidhānacintāmaņi-Siloñcha of Jinadeva & Abhidhānacintāmaņi-Seșanāmamālā, Nirnayasagara
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142 : Śramaņa/July-December 2002
Press, Bombay 1900, pp.257, 19, 288, 26. // with Bangla trans. by N. C. Bhattacarya Vidyabhusana Binapani Press, Calcutta 1907, pp. 747. // ed. Haragovindadas & Bechardas, Yaśovijaya Jaina Granthamala (Nos. 41, 42) 2 vols. Bhavnagar 1915, 1920. Il with Ratnaprabhä сomm. by Vasudeva Janardana Kaselakar along with Šeşanāmamālā, Siloñcha & Ekākşaranāmamālā, Muktikamala Jaina Mohanamālā No. 2, Nirnayasagar Press, Bombay 1924, pp. 12, 350, 33. // University of Mysore, Mysore 1926, pp. 43. // Devacanda Lalbhai Pustakoddhāra Fund Series No. 92. Surat 1946. pp. 570. 11 with comm. by Ramadasa Sena, Samvāda Jñāna Ratnakara Press, Calcutta 1934, pp.89, 231. // with Gujrati trans. ed. Vijayakasturasuri alongwith Pañcavargaparihāra of Jinabhadrasuri, Nāmamālādiśabdabhedaprakāśa of Puruşottamadeva & Ekākṣaranāmamālā of Muni Sudhakalaśa, Shah Jasawantalala Giradharalala, Ahmedabad 1957, pp. 24, 392, 244. // with Hindi comm. Maniprabhā of Haragovinda Sastri, ed. Nemicandra Sastri, Chowkhamba Sanskrit Series Office, Varanasi 1964, pp. 35, 368, 150. // Abhidhāna-Cintāmaņi Kośa with Gujrati explanation, ed. Vijaya Kasturasuri, Vijayanemi Kastura Jñānamandira, Surat. ed. 2nd 1973, pp. 39, 398. // with Gujrati comm. Candrodaya, ed. Vijayakasturasuri, Sarasvati Pustaka Bhandar, Ahmedabad 1956, pp. 392, 244. // Abhidhāna-Cintāmaņi-Parisista, In: Abhidhāna-Sangraha, ed. V. Upadhyaya, S. N. Publications, Delhi 1981. // with Auto- comm., ed. Hemacandra Vijayagani, Jaina Sahitya Vardhakasabha, Ahmedabad 1975, P.17, 652. // with Gujrati trans. Nemivijaya Text series, Ahmedabad.// Mns. Adyar II. P.40 a (I Kānda), BORI 395 of 1871-72,180 of 1872-73, 264 of 1873-74, 1 of 1877-78, 272 of 1880- 81, 139 of 1881-82, etc. Pattan. I. pp. 66,149; Pet. II , P. 199 (no.283), III. P. 53 (no. 22). Comm. (1)Abhdhāna-Cintāmaņi-Vrtti, an auto-comm. Tattva-vidhāyini (Granthāgra about 8500). This exhaustive comm. quotes more than 80 authorities: 56 authors and 31 lexical works. In the event of differences with predecessors, he frequently refers to grammarians to approve his point. Pub. The auto- comm. with the text Yaśovijaya Jaina Granthamālā, Bhavnagar. // Mns. Alwar 1227; America 274748; Jhalarapatan, p. 130; Oxf. II. 1108 (2); Pet III p. 109 (262), p. 154 (No. 308), IV, p. 32 (No. 846). VI, p. 94 (394). (2)Abhidhānacintāmaņi-Sāroddhāra or Nāmasāroddhāra or
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Jaina Kosa Literature :
143
Durgapadaprabodha by Vallabhagani, the pupil of Jñanavimalagani and the grand pupil of Bhanumeru of Kharataragaccha, in AD 1611. According to the commentator, it is an abridged form of his voluminous work, Nāmanirņaya. It is replete with quotations from the works of previous authors. Mns. BBRAS. 101;Bikaner 5416; Bombay 1819; BORI. 272 of 188081, 139 of 1881-82, 252 of 1883-84. Jaina Granthavali, p. 210; Oxf. 185 b. (3) Abhidhānacintāmaņi-Vyutpattiratnākara by Devasagaragaņi, pupil of Ravindracandra and grand pupil of Vinayacandra of Ancalagaccha in AD 1629. This comm. also gives the Prakrit renderings of the words, dealt herein. Muni Devasagar wrote a Prasasti, on the temple Candraprabhajinaprāsāda, erected on Satruñjaya, in AD 1626. (4) Abhidhānacintāmaņi-Avacūri by anonymous, containing 4500 Granthāgra. Its manuscript is available in Patan Bhandara. Jinaratnakośa refers to another Avacūri by Sadhuratna. (5)Brhad-Abhidhānacintāmņi. Mns. Oxf. 186 B. (6) Abhidhānacintāmaņi- Vrtti by Narendrasūri. Mns. B. III. 42. (7) Abhidhānacintamani commentary by Kusalasagara (second half of the 17th cent. AD), pupil of Lāvanyaratna of Jinabhadra branch of Kharataragaccha Mns. CPB. 7197-98. (8)
bhidhānacintamani. Ratnaprabhā, a commentary by Pt. Vasudevarao Janardana Kaselikara with Gujrati meaning of few words. (9) Abhidhānacintāmaņi-Bijaka (AD 1604) by Subhavijayagani, pupil of Hiravijayasuri of the Tapāgaccha. Bījakas contain the detailed list of the content of the text. Mns PRA. No. 268. (10) Abhidhānacintāmaņi-Bijaka by Devavimalagasi. Mns. BORI. 246 of1873-74; 338 of A 1882-83, 1336 of 1884- 87. Pet. 338; PRA No.1221, Weber 1700. (NCC. I. P. 2941. (11) Abhidhānacintămani-Bijaka by anonymous. Mns. BORI. 236 of A 1882-83.D.p.321; Pet. 1. No. 236. (12) AbhidhānaCintämaņināmamālā-Pratikāvali by anonymous. Its manuscript is available in Bhandarkar Oriental Institute, Pune, and No. 1352, (13) Abhidhānacintāmaņi-Namamālā-Parisista. Pub. In:
Abhidhānasangraha, Bombay 1896 (vide. NCC.I. P. 294). 4. Abhidhānacintāmaņi-Seșasangraha, a supplement to the
Abhidhānacintāmaņi. Mns.. BP. p. 5,Weber 1702. Pub. Abhidhānasañgraha, Bombay 1896. (vide.NCC.I. P. 294).
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5. Abhidhānacintämaņisūci, an index to the Abhidhānacintāmani
of Hemacandra by Mithila Vidyakara Misra. Mns. Pul. II. p. 106. Tod. 94. ((Vide.NCC.I. P. 294).
Sesanāmamālā by Hemacandra (1088- 1172 AD), containing 208 verses divided into five sections in conformity with Abhidhānacintāmaņi, as an appendix to it. It contains 2, 90, 65, 40 and 9 Sanskrit verses, respectively. Pub. The text with Abhidhānacintamani. Mns. Bhand. VI No. 1377, Buhler III.No. 191, Šiloñchanāmamālā by Jinadeva (AD 1376) probably pupil of Somasundarasűri, of Tapagaccha, in 140 verses, as a supplement to Abhidhānacintāmaņi. Pub. Text In: Abhidhānasangraha, Nirnayasagar Press Bombay 1894. //As an appendix to Abhidhānacintāmaņi, Devacanda Lalabhai Jaina Pustakoddhara Fund Series, Surat 1946. Il with the comm. of Vallabhagani, ed. by MM Vinayasagar, L. D. Institute of Indology, Ahmedabad 1974./ / Mns. A list of mss. in the private Bhandara of Muni Sri Kantivijaya Collection Chani. No. 235. Comm. (1) Tikā by Vallabhagani (AD 1598), pupil of Jñānavimala of the Kharataragaccha, while explaining the text it gives the meaning of the words as well as tries to give their derivation, wherever possible. The comm. is also replete with extracts from the works of the predecessors. The comm. quotes about 30 works. Pub. The comm. with text, Ahmedabad 1974. Mns. Buhler IV, the fourth collection of Dr. Buhler, known as the collection of 1872-73, No.285; Chani No.235; Pañcavargasangraha-Nāmamālā (AD 1468) by Subhasilagani, pupil of Munisundara of Tapāgaccha, is a small lexicon, imitating the Abhidhānacintāmaņi of Hemacandra in style, division and general form. The names of its Kāndas are DevādhidevaSabdasangrahakānda, Devaśabda-Sangrahakāņda, Martyakānda, Bhūmikända, Narakakāņda and Sāmānyakāņda. Other works of Subhaśīlagani are Bhojaprabandha, Punyasārakathā, Dānādikathā, Sălivāhanacaritra, Bharateśvara-Bāhubali-vștti, SatruñjayaKalpakathā, Snātspañcāsikākathā, Bhaktāmara-kathā and Satruñjayakalpavstti. Mns. BORI 1384 of 1887-91, List of Manuscripts in the British Museum 408, Liste von Transcribirten Abschri. ftenund Auszügen der Jaina Literatur von Ernst Leumann 113.
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Jaina Kośa Literature : 145 9. Śabdārņava or Siddhaśabdārņava or Rjuprajñavyākaraņa by
Sahajakīrti (first half of 17th cent. AD), pupil of Hemanandana Ratnaharșa of Kharataragaccha, small Sanskrit lexicon is divided into Adhikāras (sections) viz. Jainädhikära, Dyuradhikära, Narakādhikāra, Šāstrā-dhikāra, Kșatriyâdhikāra, Vaiśyādhikāra, Sūdrādhikāra and so on. The lexicon deals with vocable with respect to their genders. Sahajakīrti divides noun into the following 7 classes: (1) masculine, (2) feminine, (3) neuter, (4) non- neuter, (5) non -masculine (6) non- feminine, (7) and nouns having all the three genders. The nouns are further divided into 3 categories such as Rūdha, Yaugika and Miśra. Sastrādhikāra of this lexicon is very important. It furnishes the names of the weapons and arms, probably current at the time of our author. Sahajakīrti wrote a number of works namely, Šatadalakamalankrta-lodrapuriyapārsvanātha-stuti (AD 1626), Mahāvirastuti (AD 1629), KalpaManjari-sīkā on Kalpasūtra (AD 1628), Aneka-Śăstrasărasamuccaya, Ekādidaśaparyantaśabda-Sădhanikā, Sărasvatavrtti, Phalavarddhi-Pārsvanātha -Māhātmyamahākāvya and Pritisattrinsikā. Mns. Bhand. III. No. 466, VI. No.1359; Pet. IV
No. 538, 10. Sabdacandrikā by anonymous is a lexicon, containing synonyms
in prose order. As per manuscript, it is also known as Bālabodhapaddhati or Manoramākośa. Its only manuscript, containing 17 leafs is available at Lalabhai Dalpatbhai Institute of Indology, Ahmedabad Collection. Herein, the synonyms have been
given in the prose after having mentioned the word. Unpub. 11. Sundaraprakāśa-Śabdārņava or Padārthacintāmaņi (AD
1562) by Pdmasundara, pupil of Padmameru, contains 2668 verses, divided into 5 sections. Padmasundara Upadhyaya, a versatile scholar having subjugated a Vedic scholar in the debate, was honoured by Akber. The emperor also built for him a Jaina monastery in Agra. Unpub. Bhand. 6. No. 1422 (manuscript dated
1562 AD. Chani No. 448; PRA No. 394. 12. Sabdabhedābhedaprakāśa-sīkā or śabdabhedanāmamālā by
Maheśvara, probably it deals with minor variations in pronunciations, e.g. Agāra, Āgara, Arati, Arāti etc. The comm, by Jñanavimalagaņi, pupil of Bhanumeru of Kharataragaccha, is
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146 : Śramaņa/July-December 2002
composed in AD 1597, containing 3800 Granthāgras. The commentator tries to give the derivation and etymology of each word in the text. Jñānavimalagaņi bases his commentary on Viśvaprakāśa, Bhāguri, Vaijayanti, Vyādi, śāśvata and Pathyāpathyanighantu. Apart from these authorities, he quotes numerous works and authors in this work. Unpub. Mns. Bendall. No. 448; Hamsa No. 262; JG. P. 313; JHA. 60, PET. II. No. 100.
Weber. II. No. 1708. 13. Nāmasangraha or Nāmamālāsangraha or Viviktanā.
masangraha or Bhānucndra-Nāmamālā or Nāmaśreņivetti by Upadhyaya Bhanucandra, pupil of Suracandra. He was conferred the epithet of Upadhyaya, in AD 1591. This work deals with the non-compound words of Abhidhānacintāmaņi and conforms to the latter in division etc. Bhanucandra recited his SūryaSahasranāma on every Sunday before Akber. His other works are Ratnapălakathanaka (AD 1605), Kādambari-Vștti, Vasantarājaśakuna-Vịtti, Vivekavilāsa-Vștti and SarasvataVyākaraña-Vrtti. Mns. CC.II. 62; DB. 37 (19; 20): Mitra. X. P.151;
Punjab. No. 1448. 14. Śāradiyanāmamālā (AD 1600) by Harsakirti, pupil of Candrakīrti
of Nāgapuriya Tapāgaccha, is also known as Sāradīyābhidhānanāmamälā, containing 300 verses. It is divided into 3 Kāndas. Its kāņdas are further sub-divided into Vargas. Thus, the Ist Kānda is divided into (i) Devavarga (ii) Vyomavarga and (iii) Dharāvarga and the second into (i) Anagāra varga, (ii) Sambhogavarga, (iii) Sangitavarga and (iv) Panditavarga. The 3rd is divided into (i) Brahmavarga, (ii) Kșatriyavarga, (iii) Vitvarga, (iv) Śūdravarga and (v) Sañkirņavarga. Harșakīrti was a versaule writer, he wrote on different subjects such as grammar, medicine, astrology eto. Most of his writings are in form of commentaries although some original texts are also attributed to him. His works include - (i) Bșhacchāntistotraţikā (AD1598), (ii) Kalyanāmandira-stotraţikā, (iii) Sindūraprakaraṇatīkā, (iv) Sarasvatadipikā, (v) Sețnitkārikāvivarana, (vi) Dhātupātha-tarangiņi, (vii) Dhātupāțhavivarana, (viii) Săradiyanāmamālā, (ix) Śrutabodhapātha, (x) Yoga-Cintāmaņi (xi) Vaidyaka-sāroddhāra, (xii) Jyotisa-Šāstra, (xiii) Jyoti-Sāroddhāra. Mns. Buhler IV
No.281, VI. No. 780; JG. P.313.
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Jaina Kosa Literature : 147
15. Śabdaratnākara by Sadhusundaragani (AD 1623), pupil of Sādhukirti Upadhyaya of Kharataragaccha. Containing 1011 verses, it is divided into 6 Kāṇḍas viz. Arhatkāṇḍa, Devakāṇḍa, Mānavakāṇḍa, Tiryakkāṇḍa, Narakakāṇḍa and Samanyakāṇḍa. Sadhusundaragani also wrote Uktiratnākara and Dhaturatnākara. Pub. The text, Yasovijaya Jaina Granthamala, Series No.36, Bhavnagar 1912. // Mns. Buh. III. No. 313, Mitra. VIII. P.11; Pet.I. No.339.
Ardhamāgadhi-Dctionary
1. Jainagamaśabdasangraha, an Ardhamagadhi-Gujrati dictionary, containing also Sanskrit rendering of the Prakrit words, is based on Jaina canonical texts as well as Karmagranthas, Viseṣāvasyakabhāṣya, Pravacana-Sāroddhāra etc. ancient Jaina texts. Pub. ed. Śatāvadhānī Muni Ratnacandra, Gulabavira Text S. No. 4, Sanghvi Gulabacand Jasaraj, Lymbdy 1926, p. 16, 818.
An Illustrated Ardhamagadhi Dictionary, 5 Vols. is a voluminous Ardhamagadhi-Gujrati-Hindi-English polyglot, containing about 50,000 words. It has Sanskrit equivalents of Ardha-Magadhi terms. It deals with the words, collected from whole of the Śvetambar canons and other important ancient Jaina texts. It is greatly enriched by an exhaustive and scholarly introduction by A C Woolner. The observation of H. V. Glasenapp about this work is a testimony to its importance and wide range utility. He said that this dictionary filled a decided gap in the literature devoted to this important branch of Oriental studies and would be found invaluable to all who are interested in the language, literature and philosophy of Jainism. Pub. By Śatāvadhānī Ratnacandra, Indore Ist ed. 1933. // Second Rep. ed. Amara Publication, Varanasi 1988. // Also Reprinted, Motional Banarasidass, Delhi 1988. P. (Vol.1) 511, (2) 1002, (3), (3) 701, (4) 912,103, (5) 857, 12, 21.
Apabhramsa Kośa
2.
1.
Uktiratnākara (AD 1623) by Sadhusundaragaṇi, the disciple of Pāṭhaka Sadhukīrti, is an Auktika work meant for understanding the Sanskrit alternatives of the colloquial terms prevalent in dialects especially Deśya and Apabhramśa. This work contains about 2400 such words and their Sanskrit alternatives. Sadhusundara wrote
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148 : Śramaņa/July-December 2002
the following works: Dhāturatnākara, Šabda-Rartnākara and Pārsvanāthastuti. Pub. Rajasthan Puratna Granthamālā 15, Jodhpur, Mns. BORI 578 of 1884-86, 481 of 1886-92, Peterson III 404,
IV, 17. 2. Apabhramśa-Hindi-Kośa, 2 Parts, by Naresh Kumar, is the first
lexicon of Apabhramsa language. It contains the Hindi meaning of Apabhramsa words with their Sanskrit equivalents and illustrations from original texts. Pub. Dr. Naresh Kumar, Indo- Vision Private
Ltd. Ghaziabad 1987, P. 36, 1194. 3. Apabhramsa - Hindi- English - Kośa by D. Bhola Nath Tiwari
(in progress.) Deśiśabdakośa 1. Desiināmamālā or Deśiśabdasangraha or Ratnāvali by Hema
candra (1088- 1172 AD) is a lexicon of Deśi words. Composed in 783 Prakrit Aryā meters, it is divided into 8 Vargas (sections) Svaravarga, Kavargădi, Cavargādi, Țavargādi, Tavargādi, Pavargādi, Yakārādi and Sakārādi. Each section has a supplement, dealing with words having more than one meaning. The words are arranged according to their meanings and the number of syllables. Hemacandra defines Deśi words as those, which are in use in Prakrit since time immemorial. His auto- commentary on Deśīnāmamālā opens with the observation that the words, not derived Sanskrit through admissible rules based on phonological process of omission, addition and alteration, were collected in it. While defining the scope of his work, he pointed out that he intended not to compile a dictionary of all such words, current during his times in various regions i.e. the words of regional dialects, current in day to day practice. Rather he was concerned with only that class of nonderivable words of literary Prakrit, handed down over an immemorably long and horae tradition. Accordingly, this lexicon should include only such words as used in ancient Prakrit literature and which cannot be derived from their Sanskrit prototypes. Deśīnāmamälā gives the meaning of about 4000 words. If words with multiple meanings are counted as separate words, the number may go up by a thousand. In this lexicon, Hemacandra quotes Abhimănacihna, Avantisundari etc. works and Devaraja,
Dhanapāla, Drona, Gopal, Rahulaka, Samba, Silanka, SẴtavāhana
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Jaina Kośa Literature : 149 etc. authors. Pub. Text with auto-comm. ed. R. Pischel & G. Buhler Pt. 1, Bombay Sanskrit Series 17, Bombay 1880. Il second ed. revised by Pt. Ramanuja Swami, BSS 17, Bombay 1938. ll with auto- comm. Muralidhara Banerjee, Pt. 1 Calcutta 1931. II Deśísabdasangaho with Gujrati trans., notes, ed. Pt. Becharadasa J. Dosi Pt. 1, Forbes Gujrati Sabha Granth vali 16, Ahmedabad 1947. // Studies in Hemacandra's Deśīnāmamālā (English) by H. C. Bhayani, P. V. Research Institute (Now Parshwanath Vidyapeeth) Varanasi 1966, P. 96. // Deśīnāmamåla Kā Bhāṣā Vaijñānika Adhyayana (Hindi) by Shivamurti Sharma, Devanagari Prakasana, Jaipur 1980, pp. 308. Mns. BORI 184 of 1872-73, 270and 271 of 1873-74, 724 of 1875-1876,281 of 1880-81, 438 of 1882
83,Pattana I. p. 60 (the oldest dated Manuscript i.e. 1241 AD). 2. Nyāyāvatāra-vrtti or Ratnávali, an auto-commentary on
Deśīnāmamālā of Hemacandra. Pub, auto-comm. with text, Muralidhara Banerjee, Pt.1 Calcutta 1931. Mns. BORI. 270 and 271 of 1873-74, 419 of 1879-80, 159 of 1881-82 and 438 of 1882
83, 3. Dešināmamālāvarṇānukrama, an alphabetical index of the words
of Desināmamāla. Mns. Chani. 3048.
Desi Sabdakośa by Vacanapramukha Ācārya Tulsi, is a lexicon of Deśya words, containing 10,000 words, approximately. The words are collected mainly from Jaina canons and their commentaries. It gives Hindi meaning with illustrations from the texts. The Kośa has 2 appendices: one containing more than 3,000 words, collected from about 20 non -canonical Prakrit and
Apabhramsa works, other containing 1745 Desya words. Pub, ed. - Ācārya Mahāprajña, Jaina Visvabharati, Ladnun 1988, P. 68, 570. Vyutpatyātmakakośa (Etymological Dictionary) 1. Niruktakośa by Vaçanapramukha Ācārya Tulsi, contains extracts
pertaining to etymology of about 2,000 Jaina technical terms, selected from about 75 Jaina canonical as well as non-canonical texts. It also gives Hindi translation of the relevant extracts. The Koša is also enriched by footnotes, making the interpretation more viable. One of its two appendices contains etymological interpretation of names of 24 Tīrthankaras, as occurred in above said texts. Pub. ed. Acārya Mahāprajña, Jaina Visvabharati, Ladnun
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150 : Śramaņa/July-December 2002
1984, P.400. 2. Abhidhāna Vyutpatti Prakriyā Kośa (2 Vols.) by Purnacandra
vijaya & others, is an etymological dictionary, dealing with terms occurred in Abhidhānacintāmaņi of Hemacandra. The lexicon contains the words in alphabetical order (Devanagari). The compiler has denoted the gender of the word, its Gujrati meaning as well as its synonyms given in the original text with its etymology, as given in the auto- comm. of Abhidhānacintāmaņi. The Koşa is very valuable for comprehending the gender, meaning, synonym and etymology of Sanskrit words. The arrangement of the word herein is in alphabetical order. Pub. Jinaśāsana Aradhana Trust, Bombay
1989, P. 15, 819. Visvakośa (Encyclopaedic Dictionary) 1. Abhidhăna- Rājendra Kośa (7 vols.) comp. by Vijaya Rajendra
sūri, is an unique dictionary dealing with approximately 60,000 words selected from about 97 standard works pertaining to Jaina canonical literature and their commentaries: Niryukti, Bhāsya, Cūrņi and Sanskrit Vstti. It brings out the roots, the derivations and meanings of all the selected proper names and technical words found in Jaina Siddhānta and literature, occurring in the abovereferred texts. To quote one instance of the interpretation and elucidation of the word Ahinsă, the comm. has occupied 12 pages and clearly brought out all that pertains to this word in different ways and in all its aspects. The greatness of this work may be deducted from the fact that words, commencing with the letter A have occupied 893 pages. The Lexicon contains also the biography of the renowned compiler that is of Rajendrasūri and an exhaustive and scholarly introduction, which presents an outline of the grammar of the Prakrit language and a glossary of Prakrit words & phrases. However, it's mammoth size and lengthy extracts, without their translation have made this Kośa incomprehensible for scholars. Vijaya Rajendrasūri wrote a number of works: Upadeśa Ratnasāra, Sarvasangraha Prakarana, Prākstavyākaraņa-Vivști, Sabda Kaumudi, Rājendra Suryodaya, etc. Pub. Abhidhāna Rajendra Kośa Prakāšana Sanstha, Ahmedabad 2nd Rep. ed. 1986, P. (1) 893, (2)
1215, (3) 1362, (4) 1364, (5) 1627, (6) 1468, (7) 1250. 2. Jaina Siddhānta Bola Sangraha (8 Vols.) compiled by Bhairo
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Jaina Kośa Literature : 151 dana Sethia, is an encyclopaedic dictionary of Jaina doctrines, planned on the model of the Sthānāngasūtra wherein the fundamental categories are grouped according to the number of their sub-divisions. Thus, consequently, the Sthānāngasutra and Samavāyārgasūtra are the main sources of this work. Besides, it utilises the matter of more than 100 prominent Jaina texts and their commentaries. It also provides the references of the authority. It contains treatment in detail in Hindi. The categories, with subdivision 1to 5 are dealt in the volume 1, those with 6 &7in vol. 2, with 8, 9, 10, in vol. 3, with 11-13 in vol. 4, 14 to 19 in 5, 20 to 30 in 6, 31to 57 in 7 and 58 to 70 in the last 8th. The volume 8 contains the alphabetical index of the categories treated in this work. This is very valuable for the systematic knowledge of Jaina doctrine. Pub. Bhairodana Sethia, Bhairodana Sethia Jaina Text Series No. 94, 100104, 106 &108, Jaina Paramarthika Sanstha, Bikaner 1945 to 1952, (1); p. 446,1949; (2) 441, 1947; (3); p.458, 1948; (4) p.520, 1950;
(5) p.502, 1948; (6) p. 315,1943; (7) p. ?80, 1952; (8) p.340, 1945. 3. Jainendrasiddhāntakośa (5-vols.) comp. by Kșullaka Jinendra
Varni, an encyclopaedic work of Jaina doctrines and cosmology, is the result of dedication and hard work of the compiler, extending over 20 years. The Kośa is a source book of topics (alphabetically arranged), drawn from a large number of Jaina texts dealing with four Anuyogas. The range of works consulted numbers about 100 important Digambar texts. The extracts from the basic sources are given, with their Hindi translation. The Kośa includes many important tables and charts, furnishing the required details at a glance. Pub. ed. Hiralal Jain & A.N. Upadhye, Jñānapeeth Mürtidevi Jaina Sanskrit Text Series No. 38, 40, 42, 43, 44 and 48, Bharatiya Jñānapeeth Publication, New Delhi, Ed. 2nd 1985 - 1995, P. (Vol. 1) 503, (2) 634, (3) 630, (4) 542; (5) 298, Bhikṣu Agama Vişaya Koşa (cyclopaedia of Jaina Canonical Texts) Pt. 1, an encyclopaedic dictionary, dealing minutely with selected Jaina technical terms, occurring in selected Jaina texts. The Kośa included 178 Jaina topics from Avaśyakasūtra, Daśavaikälikasūtra, Uttarādhyayanasūtra, Nandisútra and Anuyogadvārasūtra. The entries are very carefully selected to provide a comprehensive idea contained in these texts. The translation, herein, is very authentic and lucid. The Kośa has two
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152 Śramana/July-December 2002
appendices: first containing 500 parables and second, alphabetical list of topics with their sources. Pub, Synod Chief Gaṇādhipati Tulsi, ed. Acārya Mahāprajña & Sadhvi Vimalaprajña etc. Jaina Visvabharati, Ladnun 1996, P. 43, 753.
Paribhāṣika (Technical) Kośa
1. Jaina Gem Dictionary, ed. J. L. Jaini, is a small dictionary of Jaina technical terms. Pub. Jaina Siddhanta Bhavana, Arrah 1919.
2. Jaina Lakṣaṇāvali (4 vols.). ed. Balacandra Siddhantasastri, is an alphabetical encyclopaedic dictionary of Jaina technical terms. It is based on more than 350 prominent Jaina texts canonical as well as non- canonical, mainly Svetambar but in some cases Digambar also. It contains definition of the terms, pertaining to Jaina philosophy, metaphysics, ethics, logic, epistemology, psychology, mythology etc. The object of this dictionary is to provide a source book of definition of important Jaina terms with Hindi translation, It is remarkable that not all definitions have been translated. The editor has given a brief sketch of about 100 Jaina texts in introduction. It has three appendices: bibliography of 351 Jaina texts, description of 137 Jaina authors and the list of authors in chronological order. Pub. Veer Seva Mandira Trust, Delhi (vol. 1) P.334, 1972; (2) P. 730, 1973; (3) P. (4) P.
3. Alpaparicita Saiddhantiką Śabdakośa, 8 Vols. by Anandasagarasuri is a lexicon containing the difficult or rather lesser known terms, selected from Ardhamagadhi canons. It provides the various meanings in which the selected words have been used with illustrations, cited not only from canons but from their exegetical literature also. It also provides Sanskrit equivalents of Prakrit words. Pub. ed. Kancanavijaya & Kṣemasagara, Seth Devacanda Lalabhai Jaina Pustakoddhāra S.No. 101, Surat 1954, P.239 (1). 4. Jaina Paribhāṣā Śabdakośa, compiled by M. M. Candraprabhasagara, is a glossary of selected Jaina technical terms in Hindi. Pub. Prakrit Bharati Puspa 75, Prakrit Bharati Academy, Jaipur & Jitayaśāśrí Foundation, Calcutta 1990, P. 141.
5.
A Glossary of Jaina Terms, compiled & ed. by Dr. Nand lal Jain, containing English equivalents for the 3,000 most common Jaina terms on different aspects of Jainology. The arrangement of terms, herein, is non- traditional to facilitate dicriticalisation and to
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6. Dictionary of Jaina Terms (Prakrit to English /Hindi) by Mukul Raj Mehta, contains in alphabetical order the Jaina technical terms in Prakrit, selected from over 250 Jaina texts and commentaries. This dictionary contains transliteration, English and Hindi meaning of the term along with the definition of the term in Prakrit as occurred in the text and its transliteration with reference. . Pub. Kala Prakasana, Varanasi 2000, p. 250.
Jaina Kosa Literature : 153 simplify finding terms in Roman alphabetical order. For example, it has separate categories of A (aa), Ś (Sh) and Ș (not found in English). This dictionary is likely to facilitate the uniform use of English terms for the Jaina technical terms. Pub. Jaina International, Ahmedabad 1995, P.120.
Vyaktikosa (Biographical Dictionary)
Prakrit Proper Names (English)(2 vols.) comp. by Dr. Mohan Lal Mehta & K. Rṣabha Candra, it contains 8,000 proper names, occurred not only in Ardhamagadhi Jaina canonical texts i.e. of Śvetambar tradition but found in their commentaries viz. Niryukti, Bhāṣya, Cūrṇi also. As the title suggests, proper names occurring in the Sanskrit comm. of canonical texts, not included. Of course, Sanskrit commentaries have been utilised for supplementing the information available in Prakrit original canonical texts and Prakrit commentaries, thereon. It contains an alphabetical index of the proper names. Pub. ed. Pt. Dalsukh Bhai Malvania, L. D. Series No. 28 (1), 37(2), Lalabhai Dalpatabhai Institute of Indology, Ahmedabad 1970 & 1972, P.12, 488 and 489 -1014.
1.
2.
Vardhamana-Kośa (Hindi) ed. by Mohan Lal Banthia & Sricandra Coradia, this dictionary of Mahavira's biographical data contains details pertaining to Mahavira, as available in the various literary sources. For this purpose more than 90 works, belonging to tradition of Jainas: Śvetambar and Digambar, as well as that of Buddhist and Brahmanic have been utilised. In conformity with Leśyakośa and Kriyakośa, the compilers have applied the International Decimal classification system in arranging the subject -matter. This work, a handy reference book, is very useful for source material on Mahāvīra, particularly for Śvetambar version of his biography. The remarkable feature of this cyclopaedia is that the differences, in account, between Svetambar and Digambar tradition, have been
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154 : Śramaņa/July-December 2002
pointed out as and where required. Pub. ed. Mohan Lal Banthia & Sricandra Coradia, Jaināgama Visaya Kośa Text Series No. 3, Jaina
Darsana Samiti, Calcutta 1980, pp. 45, 576. 3. Jaina Jyoti (Aitihāsikavyaktikośa) (Vol. 1) compiled by Jyoti
Prasad Jain, it contains the description of the Jaina characters in alphabetical order in Hindi. It deals with Jaina Ācārya, monks, nuns, kings, other royal personages, mythological characters, literatures, artists, prominent Jaina laities etc. The volume covers the period, corresponding to 2500 years i.e. from the Mahāvīra era
to present day. Pub. Jñānadeep Publication, Lucknow 1988, P. 8,190. Vişayakośa (Subject Dictionary) 1. Nighantuśeşa by Hemacandra (1088-1172 AD), a supplement to
Abhidhānacintāmaņi-Nāmamālā, is a glossary of Botanical plants and herbs. Containing 396 verses, divided into 6 Kāndas (sections) viz. Vřkșa, Gulma, Latā, sāka, Trna and Dhānya. Pub. In: Abhidhānasangraha, Nirnayasagar Press, Bombay 1896. Il ed. Muni Punyavijaya, Seth Devacanda Lalabha: Jaina Pustakoddhāra Fund Series Ahmedabad 1968, // Mns. BORI 735 of 1875-76, BORI D. XVI. I. 117; Buh. 557; Pet. V, pp. 23-24.Comm.(1) NighantuśeşaTikā by Vallabhagani is mentioned by author himself in his commentary Nāmasāroddhāra on Abhidhānacintāmaņi of Hemacandra. Mns. A Catalogue of the Sanskrit manuscript in the Br. Mus. by Cecil Bendall. London 1902.No. 403. Vastukośa by Nāgavarman II (1139- 1149 AD), the author of the Bhāṣābhūsaņa, is a lexicon of Sanskrit words, current in Kannada language. Based on the Kośas of Vararuci, Halāyudha, Sāśvata, Amarasingh etc. it is the most voluminous lexicon of Sanskrit - Kannada. Unpub.
Vasturatnakośa by an unknown Jaina author is a short treatise in Sanskrit, dealing with 101 topics, pertaining to general culture; a cultured man of Ancient Indian society was expected to be aware. The theme of these topics was mostly secular comprising knowledge about social and political aspects. With respect to Purusārtha, the theme was predominantly of Artha and Kāma. The total number of Sūtras, in different manuscripts varies from 100 to 104. The text only enumerates the main types of the object such as Trividhā Bhūmayah- land is of three types, while comm. specifies
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Jaina Kośa Literature : 155 Bhūmi (land) as Unnata Pradeśā (high land), Nimna Pradeśā (low land) and Sama Pradeśā (even land). Pub. ed. Jinavijayamuni, Rajasthan Puratana Text S. No. 45, Rajasthan Oriental Research
Institute, Jodhpur 1959, P. 7, 80, 64. 4. Apavarganāmamālā or Pancavarga-Parihāranāmamālā by
Jinabhadrasuri (12th cent. AD), pupil of Jinavallabhasuri, of Kharataragaccha, treats of the words beginning only with alphabet ya, ra, la, va, sa, sa, sa and ha in variant syllables. Unpub. Chani
3249, Jesal. pp. 45, 64. 5. Apavarganāmamālā by Jinacandraturi. Mns. Chani. 396.
(According to JRK, P. 12, it is same as above.) 6. Apavarganāmamālā, Jainagranthāvali refers to another
Apavarganāmamālā by anonymous containing 215 verses. 7. Akārādi- Vaidya-Nighantu (c. 1300 AD) ascribed to Amstanandi,
is a medical dictionary. The date is given by Narasimhacar, but no
evidence is adduced. (vide Jainism in South India, p. 237). 8. Uņādināmamālā (c. 1400-50 AD) of Subhaśīlagani, the pupil of
Munisundara and Lakşmīsagara, composed in Sanskrit verses; it consists of words having Uņādi suffixes. It is arranged in six Kāndas (sections), on the model of Abhidhānacintāmaņi. It also conforms to the former in the arrangement of the words. Mns. Chani 2971,
Jac 696, Jainagranthāvali P. 310, JBH P. 269, 9. Pañcavargasangrahanāmamālā by Subhasilagani (c.1450-1500
AD), pupil of Munisundara of Tapāgaccha. It is a small lexicon, imitating the Abhidhānacintamani of Hemacandra in style, division and general form. The names of its Kāņdas (sections) are Devādhideva-sabda-sangrahakānda, Devaśabda-sangraha-kānda, Martya-kānda, Bhümikāņda, Narakakāņda and Sāmānyakāņda. Other works of Subhaśīlagani are Bhojaprabandha, Punyasārakathā, Dānādikathā, sālivāhanacaritra, Bharateśvara-Bāhubalivștti, Satruñjaya-Kalpakathā, Snātspañcāsika-kathā, Bhaktāmara-kathā and satrunjayakalpavstti. Mns. BORI 1384 of 1887-91; Br. Mus.
408, Leumann 113. 10. Leśyākośa (Cyclopaedia of Leśyā) compiled by Mohan lal Banthia,
it deals with Leśyā (soul- colouring), very vital in Jaina doctrine of Karma. Every activity of the soul is accompanied by a
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corresponding change in the material organism, subtle or gross. The Leśyā is treated in very systematic way, comprehending all relevant textual materials on the subject, selected for the purpose. The volume contains extracts with Hindi translation collected from about 30 Jaina canonical as well as non-canonical texts. In fact, Leśyākośa is a specimen volume of a larger project, intended to compile a series of such volumes on important topics of Jainism. Pub. Compiler Mohanlal Banthia Sricanda Coradia, ed. Mohanlal Banthia, Jaina Visaya- Kosa S.No. 1, The Editor, Calcutta 1966, P.
39, 296. 11. Kriyākośa (Cyclopaedia of Kriyā) comp. Ācārya Tulsī, after
Leśyākośa, deals Kriyā as a word, as ritualistic Kriyā, its relation with soul and Kriya and other relevant topics. As in the Lesyakośa, it applied the system of Decimal classification. This Kośa contains extracts with Hindi translation, collected from about 30 Jaina canonical and non-canonical Prakrit and Sanskrit texts. Pub. ed. Mohan lal Banthia & Krisnacandra Coradia, Jaināgama Vişaya Kośa
Granthamala, Jaina Darsana Samiti 1969, P.60, 364. 12. Jaina Purāņa Koşa (Hindi) by ed. Pravinacandra Jain & Darabari
lal Kothia, is a compendium of proper names with their descriptions, as found in parables, narratives, pertaining to 63 Salākāpuruṣas (greatmen). It contains about 9, 000 proper names and 12,000 words, collected from 5 prominent Jaina Purāņa texts, viz. Mahāpurāņa, Padmapurāņa, Harivansapurāņa, Pāņdavapurāna and Viravadha-mănacarita. The Koşa deals with mytho-logical, historical, characters, kings and dynasties, geographical places, Jaina technical terms, etc. It also provides reference to the source. Pub. Jaina Vidya Sansthana, Digamba Jaina Atisaya Ksetra,
Srimahaviraji (Raj.) 1993, P.13, 551. 13. Jaina Agama: Vanaspati Kośa (Hindi), Ed. by Ācārya Mahā
prajña this dictionary contains the detailed description, alongwith their pictures, of more than 450 Botanical plants occurred in Jaina canons. The work contains their Sanskrit equivalents, Hindi meaning, Synonyms as found in other Kośa texts in some cases and their names in other regional languages. It also gives information about the places of their production. Pub. Chief Editor Ācārya Mahāprajña, Jaina Viśva Bharati, Ladnun 1996, P. 14, 346,
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Jaina Kośa Literature : 157 Index 1. Āgamon Kā Gāthākośa Evari Vişayānukramaņikā
(Nandyādi-gāthādyakārādiyuto Visayānukramo), compiled by Anandasagarasuri, contains alphabetical index of Sūtras, Sūtragāthâs from selected canons namely Nandi, Anuyogadvāra, Āvasyaka, Daśavaikālika and Uttarādhyayana. It also contains index of contents. Pub. Agamodayasamiti Granthoddhara Text S. No.
55, Agamodaya Samiti, Surat 1928, P.365. 2. Agamaśabdakośa Pt. 1, contains alphabetical index of Prakrit
words with their Sanskrit equivalents and their sources in 11 extant Anga texts: Ācārānga etc. Pub. Vacanapramukha Ācārya Tulsi,
ed. Acārya Mahāprajña, Jaina Visvabharati, Ladnun 1980, P. 823. Sangrahakośa (Dictionary of Collections) 1. Purātana-Jaina-Vākya-Sūci, Pt. 1, compiled by Jugalakisore
Mukhtara, contains Gāthās, collected from 64 texts as well as 48 commentaries etc. of Digambar tradition, arranged in alphabetical order. The number of Gāthās collected, herein, is more than 25,000. It also contains an exhaustive introduction, dealing with authorship, date and content of works, included in this edition. Pub, Vira Seva
Mandira, Delhi 1950. . 2. Jaina Grantha Prasasti-Sangraha, (2 Parts) by Jugalakishore
Mukhtar, its first part contains Praśastis (concluding verses) of 171 works in Prakrit, valuable from historical point of view. These Praśastis contain dates about Sangha, Gaccha, dynasties, lineage of Gurus, places, time etc. This part has appendices, containing alphabetical list of geographical places, Sanghas, Gaņas, Gacchas, kings, ministers, scholars, Ācāryas, Bhattārakas and laities. The 2nd part contains Praśastis of 122 Apabhramsa works, throwing light on social as well as cultural aspects of Jainas. These Praśastis mostly belonged to unpublished works. Second part also contains list of geographical places etc. as appendices. Pub. Vīra Seva
Mandira, Delhi 1954, Kośas in Tamil 1. Cūdāmaņi- Nighantu (Tamil) by Maņalapurushar, containing
12 chapters, in Viruttam metre is very popular. The author was the native of Penumandur, near TindiiVanam in North Arcot District. The first chapter is devoted to the treatment of the names of gods,
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second to human beings, the third and fourth, to the names of animals and flora, respectively. The names of places, several objects and those artificially created by men are found in fifth to 7th in respective order. The eighth is devoted to attributes, the ninth and tenth to articulate and inarticulate sounds, the eleventh with words, rhyming with one another and the last chapter deals with groups of related words. Many editions have been brought out of this dictionary, till date. (Jainism in South India, p.326, 328).
2. Pingala -Nighantu by a Tamil Jaina scholar Pingal Muni.(Jainism in South India, p. 332)
Kosa in Kannada
1.
Ranna-Kända. (Kannada) by the great poet Ranna, forming the trio with Pampa and Ponna and author of many works like Ajitaṭhankarapurāṇatilaka, Sāhasabhīmavijaya, Parasuramacarita and Cakreśvaracarita. Born in Muduvonal in Belugali 500, between the rivers Ghataprabha and Kṛṣṇā. His parents were practising Jaina and belonged to Baṇegarkula. He attained the patronage of Ganga kings. (Jainism in South India, p. 275.) This work is traceable only through few verses appended to the work with stamp Kaviratna, which may mean that the verses belonged to him. (Jainism in South India, p. 275.)
2.
Abhidhānaratnamālā (Kannada) by Nagavarma. Mns. Mudabidri Jainamutt Palm-leaf Collec..on No. 801.
3.
Nānārtharatnākara (Kannada) by Nagavarma. Mns. Mudabidri Jainamutt Palm-leaf Collection No. 47. Comm. (1) Kannada Mns. Mudabidri Jainamutt Palm-leaf Collection No. 47(dated 1576AD). Other Kosas
1.
Tauruṣkināmamālā or Yavanamālā, a dictionary of SanskritPersian, composed by an anonymous, the son of a Jain minister Somadeva. Its only manuscript, containing 6 folios and bearing the name of the lexicographor's father and the date of writing of the manuscript (1649 AD) is mentioned in its concluding verses, is available in Lalabhai Dalpatabhai Institute of Indology, Ahmedabad.
2. Student's English -Paiya Dictionary by H.R. Kapadia is a small dictionary compiled with a view to enable the students to translate
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Jaina Kośa Literature : 159 English passages into Ardhamagadhi. It comprises 850 English words with their Ardhamagadhi equivalents. Pub. H.R. Kapadia,
Surat 1941, p.10, 187. 3. Sanskrit - Prakrit Sabdakośa by A. S. Talker (details not
available). 4. Sanskrit - Prakrit Sabdakośa by N. A. Godbole (details not
available). Bibliography: 1. Encyclopedia Britannica Vol. 7, Encyclopedia Britannica, Inc. USA
1970. 2. Kothari,Jayanta & Jayanta Gadita, Gujrati Sāhitya Kośa (Part 1),
Gujrati Sahitya Parishad, Ahmedabad 1989. 3. Jainism in South India p. 275. 4. Kapadia, H R, Jaina Sanskrit Sāhityano Itihāsa, Vol.1 Part 1,
Muktikamala Jaina Mohanmālā, Vadodara 1956. 5. Muni Dulaharaja, Sanskrit Prakrit Jaina Vyākarana Aura Kośa Ki
Paramaparā, Kalu Gani Janma- Satabdi Samāroha Samiti, Chhapar
(Raj.) 1977, P. XVIII, 570. 6. Muni Punyavijayaji, comp. & Ed. Muni Jambuvijaya, Catalogue
of The Manuscripts of Pātana Jaina Bhandāra, 4 Parts, Sharadaben
Chimanbhai Educational Research Centre, Ahmedabad 1991. 7. Raghavana, V., New Catalogus Catalogorum (Vols. 1-13), Madras
University Sanskrit Series, University of Madras, Chennai 1966
1988. 8. Sastri, Pt. K Bhujabali, Kannadaprāntiya Tādapatriya Granthasūcī,
Jñānapeeth Mürtidevi Jaina Granthamālā Sanskrit Series No. 2, Bharatiya Jñānapeeth, Kashi 1948. Shah, Pt. Ambalal, Jaina Sahitya Kā Brhad Itihāsa, Vol. 5,
Parshwanath Vidyapeeth S. No. 14, Varanasi 1990. 10. Tiwari, Bholanath, Kośa Vijñāna, Sabdakāra, Delhi 2nd Revised
Edition 1987. 11. Velankar, Hari Damodar, Jinaratnakośaḥ, Vol. I (Works),
Bhandarkar Oriental Institute, Govt. Oriental Series No. 4, Poona 1944, P. 466.
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विद्यापीठ के प्रांगण में
दिनांक १२ जुलाई को जबलपुर विश्वविद्यालय के पुस्तकालय विज्ञान विभाग के प्रवक्ता डॉ० संजीव सर्राफ का पार्श्वनाथ विद्यापीठ में आगमन हुआ। यहाँ उन्होंने Classification of Jaina Text and Modern System नामक विषय पर एक व्याख्यान दिया और उपस्थित विद्वानों एवं शोध छात्रों की विभिन्न शंकाओं का सुन्दर समाधान भी किया। २ अगस्त को इंग्लैण्ड के Mr. Caris Philpott विद्यापीठ में पधारे
और उन्होंने यहाँ चातुर्मासार्थ विराजित साधु-साध्वियों से वार्ता की। इसी माह प्राकृत-भाषा के मर्मज्ञ आचार्य विश्वनाथ पाठक का यहाँ शुभागमन हुआ। २३ अगस्त को उन्होंने यहाँ प्राकृत एवं हिन्दी-भाषा विज्ञान नामक विषय पर अपना सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत किया। सामाजिक समरसता एवं भगवान् महावीर नामक संगोष्ठी सम्पन्न
पार्श्वनाथ विद्यापीठ में १७ नवम्बर को 'सामाजिक समरसता एवं भगवान् महावीर' नामक एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ एवं वाराणसी के स्थानकवासी समाज द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित इस संगोष्ठी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग के प्रो० राजमणि शर्मा, दर्शन-विभाग के प्रो० मुकुलराज मेहता, काशी विद्यापीठ के इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो० परमानन्द सिंह, डी०ए०वी० कालेज, वाराणसी के पूर्व प्राचार्य डॉ० शीतिकण्ठ मिश्र तथा स्थानकवासी समाज, वाराणसी के अध्यक्ष श्री स्वतन्त्र सिंह नाहर, मानवमिलन के वाराणसी शाखा के संयोजक, सुप्रसिद्ध उद्यमी श्री आर० के० जैन तथा बड़ी संख्या में स्थानीय विद्वान् एवं जैन समाज के गणमान्य जन उपस्थित थे। इस संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में बिहार सरकार के शिक्षा, संसदीय कार्य एवं लघु सिंचाई मन्त्री डॉ० आर०सी० पूर्वे सपत्नीक उपस्थित थे। विद्यापीठ की ओर से आगन्तुक अतिथियों को शाल एवं श्रीफल भेंट कर सम्मानित किया गया। ज्ञातव्य है कि यह संगोष्ठी विद्यापीठ में चातुर्मासार्थ विराजित साधु-साध्वियों की विदाई के अवसर पर आयोजित की गयी थी। श्री मणिभद्रजी म० एवं श्री पदममुनि जी म० के मङ्गलाचरण से कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। इस अवसर पर कानपुर से अपने माता-पिता के साथ पधारी नन्हीं बालिका स्तुति जैन ने एक सुन्दर भजन प्रस्तुत कर श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। संगोष्ठी में प्रो० परमानन्द सिंह, प्रो० मुकुलराज मेहता आदि के साथ-साथ पार्श्वनाथ विद्यापीठ में विराजित साध्वी भव्यानन्द जी म०, साध्वी चन्द्रप्रभा जी एवं
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विद्यापीठ के प्रांगण में : १६१ श्री पदममुनि जी ने अपने विचार व्यक्त किये। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो० राजमणि शर्मा ने की। इस कार्यक्रम का संचालन विद्यापीठ के वरिष्ठ प्रवक्ता डॉ० अशोककुमार सिंह ने किया। कार्यक्रम के अन्त में आगन्तुक अतिथियों के सम्मान में सहभोज का भी आयोजन रहा।
गणिनी ज्ञानमती माताजी का शुभागमन दिगम्बर जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी गणिनी ज्ञानमती माताजी का विद्यापीठ में दिनांक २२ नवम्बर को ससंघ आगमन हुआ। इस अवसर पर बड़ी संख्या में स्थानीय विद्वान, दिगम्बर जैन समाज के गणमान्य व्यक्ति आदि उपस्थित थे। दिनांक २३ नवम्बर को प्रात:काल ८ बजे ज्ञानमती माताजी, चन्दनामती माताजी एवं क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी ने विद्यापीठ के पुस्तकालय का अवलोकन किया। इस अवसर पर विद्यापीठ की ओर से गणिनी प्रमुख द्वारा रचित और विद्यापीठ के पुस्तकालय में उपलब्ध ग्रन्थों का भी प्रदर्शन किया गया जिससे आगन्तुक विद्वान् एवं समाज के लोग माताजी की विद्वत्ता एवं साहित्यसेवा से परिचित हो सकें। विद्यापीठ में रखे गये इन ग्रन्थों को देखकर माताजी ने कहा कि इसमें से कई ग्रन्थ तो उनके पास भी नहीं है। पुस्तकालय के अवलोकन के पश्चात् माताजी ससंघ यहाँ की कलावीथिका में भी पधारी। इस अवसर पर उन्होंने श्री सत्येन्द्र मोहन जैन से हाल में ही प्राप्त एक प्रतिमा का लोकार्पण भी किया। दोपहर ११ बजे आशीर्वाद/प्रवचन गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें नगर
पूज्य ज्ञानमती माताजी पार्श्वनाथ विद्यापीठ संग्रहालय में पार्श्वनाथ की दुर्लभ प्रतिमा का
अनावरण करते हुए। उनके बगल में खड़े हैं संग्रहालय के नियामक श्री सत्येन्द्र मोहन जैन
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१६२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर/२००२ के विशिष्ट व्यक्ति उपस्थित रहे। अपने प्रवचन में चन्दनामती माताजी ने आज हो रहे शोधकार्यों के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हम जो भी शोध करें वह परम्परा की मर्यादा में हो। ऐसा कोई शोध हम न करें जो कि हमारी मान्यता एवं अस्तित्त्व को ही नकार दे। पार्श्वनाथ विद्यापीठ में किये जा रहे शोधकार्यों के प्रति प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्होंने इस संस्था के निरन्तर वृद्धि की कामना की। इस अवसर पर उन्होंने माता ज्ञानमती जी द्वारा रचित साहित्य भेंट में देने की घोषणा की। क्षुल्लक श्रीमोतीसागरजी ने भी अपने आशीर्वचन में संस्था के प्रति शुभाशीष प्रदान किया। पूज्य गणिनी माता ज्ञानमती जी ने अपने उद्बोधन में शोध के सम्बन्ध में विशेष जागरूक होकर निष्पक्ष भाव से कार्य करने की प्रेरणा देते हुए कहा कि आज राजनीति को धर्म से अलग रखने की बात कही जाती है, जबकि राजनीति से धर्म को अलग नहीं अपितु धर्म से राजनीति को अलग रखने का प्रयास होना चाहिए। इस अवसर पर विद्यापीठ की ओर से प्रकाशित तत्त्वार्थसूत्र-व्याख्याकार पं० सुखलाल जी संघवी- नामक ग्रन्थ भी उन्हें भेंट किया गया। इस अवसर पर विद्यापीठ के निदेशक प्रो० महेश्वरी प्रसाद जी ने कहा आज से १० वर्ष पूर्व मैने माताजी से वाराणसी पधारने का जो निवेदन किया था, वह आज साकार हो उठा और माताजी आज ससंघ विद्यापीठ में विराजमान हैं। इसी दिन आहार के पश्चात् अपराह्न ३ बजे माताजी ससंघ वाराणसी नगर के अन्य जिनालयों के दर्शनार्थ रवाना हो गयीं; किन्तु यहाँ उपस्थित सभी लोगों पर स्थायी रूप से अपने व्यक्तित्व एवं विद्वत्ता का अमिट प्रभाव छोड़ गयीं।
अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन में पार्श्वनाथ विद्यापीठ की
शोध-छात्रा पुरस्कृत पार्श्वनाथ विद्यापीठ के लिए यह अत्यन्त गौरव की बात है कि पुरी, उड़ीसा में आयोजित अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन के ४१वें अधिवेशन में दिनांक १३-१५ दिसम्बर को वहाँ जैन-विभाग के अन्तर्गत विद्यापीठ की शोध-छात्रा कु. मधुलिका सिंह द्वारा प्रस्तुत शोध आलेख जैनाचार्यों का छन्दशास्त्र को योगदान को सर्वश्रेष्ठ आलेख घोषित कर साढ़े
चार हजार रुपये के मुनि पुण्यविजय स्मृति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ज्ञातव्य है कि कु० मधुलिका ने विद्यापीठ के वरिष्ठ प्रवक्ता डॉ० अशोक कुमार सिंह के निर्देशन में आचार्य हेमचन्द्रकृत छन्दोनुशासन का आलोचनात्मक अध्ययन विषय पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शोधप्रबन्ध को परीक्षार्थ प्रस्तुत कर दिया है। कु० मधुलिका को उनकी इस अकादमिक उपलब्धि पर विद्यापीठ परिवार की ओर से हार्दिक बधाई।
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विद्यापीठ के प्रांगण में : १६३ प्रो० कार्ल एच० पॉटर विद्यापीठ में इन्साइक्लोपीडिया ऑफ इण्डियन फिलॉसफी के सम्पादक प्रो० कार्ल एच० पॉटर दिनांक १७ दिसम्बर को विद्यापीठ में पधारे जहाँ विद्यापीठ के अधिकारियों एवं शोध-छात्रों ने उनका स्वागत किया। प्रो० महेश्वरी प्रसाद जी ने प्रो० पॉटर को यहाँ पर किये जा रहे शोधकार्यों की विस्तृत जानकारी दी। इस अवसर पर आगन्तुक अतिथि ने उपस्थित शोध-छात्रों से भी उनके द्वारा किये जा रहे शोधकार्यों की जानकारी ली और उन्हें उचित सुझाव भी दिया।
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जैन जगत्
जैन श्रावकाचार पर राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी सम्पन्न
लखनऊ १५-१६ अगस्त : दिगम्बर जैन चातुर्मास समिति तथा साधु-सन्त सेवा समिति, चारबाग, लखनऊ द्वारा पूज्य मुनि श्री सौरभसागर जी तथा मुनि श्री प्रबलसागर जी के पावन सान्निध्य में जैन श्रावकाचार पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। मुन्नेलाल कागजी धर्मशाला, चारबाग, लखनऊ में १५-१६ अगस्त २००२ को चार सत्रों में आयोजित इस संगोष्ठी में देश के विभिन्न भागों से पधारे विद्वानों ने श्रावकाचार का परिचय, विभिन्न श्रावकाचार, वर्तमान में उनकी प्रासंगिकता तथा उनमें अपेक्षित सुधार आदि विभिन्न विषयों पर विस्तृत चर्चा की।
जैन योग पर राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न
मुम्बई ६ अक्टूबर, पन्यासप्रवर मुनिश्री अरुणविजयजी महाराज के पावन सान्निध्य में जूहू विले पार्ले, मुम्बई में जैन योग पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें देश के विभिन्न भागों से पधारे लगभग ५० विद्वानों ने अपने-अपने शोध पत्रों का वाचन किया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी की ओर से डॉ० विजय कुमार ने " जैन ध्यान साधना का क्रमिक विकास एवं डॉ० सुधा जैन ने "जैन योग साहित्य : एक परिशीलन" नामक शोध आलेख का वाचन किया।
प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न
डॉ० सागरमल जैन पारमार्थिक शिक्षण न्यास द्वारा संचालित 'प्राच्य विद्यापीठ', शाजापुर ( म०प्र०) में दि० ९-११-०२ से १०-११-०२ तक 'भारतीय चिन्तन में जीवन मूल्य' नामक विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गयी। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता नवीन स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ० तुग्नावत ने की। विशेष अतिथि कर्नल डी०एस० बया- उदयपुर एवं श्री शान्तिलाल जी सूर्या उज्जैन थे। विषयप्रवर्तन प्रो० सागरमल जी ने किया। इसी अवसर पर गायत्री परिवार, शाजापुर
संस्थान को आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा रचित साहित्य एवं कर्नल बया ने प्राथ्य विद्यापीठ को २१ हजार रुपये का चेक प्रदान किया। दो दिवसीय इस संगोष्ठी में डॉ० अरुणप्रताप सिंह- वाराणसी, डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय- वाराणसी, कर्नल डी०एस० बया- उदयपुर, डॉ० सुरेश सिसोदिया- उदयपुर, डॉ० विनोदकुमार शर्मा- शाजापुर
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जैन-जगत् : १६५ एवं अन्य स्थानीय विद्वानों ने अपने शोधपत्रों का वाचन किया। इसी अवसर पर श्री चन्द्रशेखरजी योगाचार्य- इन्दौर के सानिध्य में दो दिवसीय योगशिविर का आयोजन भी किया गया। विद्यापीठ के प्रांगण में नवनिर्मित भोजनशाला का श्री शान्तिलाल जी सूर्या ने उद्घाटन किया। संगोष्ठी के समापन सत्र की अध्यक्षता शासकीय महिला महाविद्यालय, शाजापुर की प्राचार्या ने किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ० राजेन्द्र जैन ने किया। उल्लेखनीय है कि इस संगोष्ठी के सूत्रधार जैनधर्म-दर्शन के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् एवं प्राच्य विद्यापीठ के संस्थापक प्रो० सागरमल जैन ने समागत विद्वानों को सम्मानित किया।
केडिओ क्लासिक द्वारा आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन सम्पन्न
मुम्बई २५ नवम्बर : 'जैन वसुधा' के तत्त्वावधान में श्री कच्छी दशा ओसवाल जैन संघ की संस्था केडिओ क्लासिक' द्वारा २४ नवम्बर को माटुंगा- मुम्बई में 'जैनों की घटती जनसंख्या' नामक विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता श्री महेन्द्र कुमार लालका, पुलिस महानिदेशक (प्रशिक्षण) उत्तर प्रदेश ने की। सप्रसिद्ध समाजशास्त्री श्री विलास आदिनाथ संगवे, श्री जयन्तकुमार बांठिया- भारत के महारजिस्ट्रार, श्रेष्ठीवर्य श्री निर्मलकुमार सेठी आदि प्रमुख हस्तियाँ इस समारोह में उपस्थित रहीं।
पंचाल शोध संस्थान का अधिवेशन सम्पन्न कानपुर २८-२९ दिसम्बर : पंचाल शोध संस्थान, कानपुर का १६वां वार्षिक सम्मेलन संस्थान के संस्थापक अध्यक्ष स्व० बी०आर० कुम्भट स्मृति समारोह के रूप में राजस्थान भवन, कराचीखाना, कानपुर में दि० २८-२९ दिसम्बर २००२ को सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर प्रोफेसर कृष्णदत वाजपेयी स्मृति व्याख्यानमाला के अन्तर्गत लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष प्रो० शैलेन्द्रनाथ कपूर का विशेष व्याख्यान आयोजित किया गया
और संस्थान की वार्षिक शोध पत्रिका 'पंचाल' के नवीन अंक तथा कुछ अन्य ग्रन्थों का विमोचन भी हुआ।
निःशुल्क नेत्र शल्य चिकित्सा शिविर सम्पन्न हाबड़ा ३० दिसम्बर : स्व. आचार्य श्रीनानालाल जी म.सा. की तृतीय पुण्यतिथि पर श्री जैन हास्पिटल एण्ड रिसर्च सेण्टर, हावड़ा में २९ दिसम्बर को प्रात: १.३० बजे निःशुल्क नेत्र शल्यचिकित्सा एवं विकलांग सहायता शिविर का आयोजन किया गया। वर्ष २००३ में ४०० नेत्र रोगियों के नेत्रों की शल्यचिकित्सा
एवं जयपुर पांव व कैलीपर १०० विकलांगों को प्रदान करने का उक्त संस्था का
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१६६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर/२००२ लक्ष्य है। डॉ० रजनी रामपुरिया द्वारा प्रथम दिन ६० नेत्र रोगियों की शल्यचिकित्सा की गयी। प्रत्येक रविवार को यहां ५० रोगियों की निःशुल्क शल्यचिकित्सा का लक्ष्य रखा गया है। इस अवसर पर श्रीमती वसन्ती देवी कांकरिया ने एक लाख, श्री रिखबदास जी भंसाली ने ५० हजार, श्रीमती फूलकुमारी कांकरिया ने ७० हजार तथा अन्य समाजसेवी परिवारों द्वारा दान की बड़ी रकम घोषित की गयी। स्थानकवासी समाज, कोलकाता द्वारा किया जा रहा यह कार्य हम सभी के लिए अनुकरणीय है। ऐसे पुण्यकार्य के लिए स्थानकवासी जैनसभा, कोलकाता के सभी सदस्य बधाई के पात्र हैं।
हरिद्वारतीर्थ पर पौष दशमी का भव्य कार्यक्रम सम्पन्न
हरिद्वार ३१ दिसम्बर : श्री चिन्तामणि पार्श्वन जैन श्वेताम्बर तीर्थ, हरिद्वार की पुण्यभूमि पर भगवान् पार्श्वनाथ जन्म कल्याणक महोत्सव दिनांक २८-२९-३० दिसम्बर को पूज्य आचार्य श्रीमद्विजयचन्द्रसेनसूरीश्वर जी महाराज ठाणा ५ के पावन सान्निध्य में मनाया गया। इस अवसर पर विशाखापट्टनम् से ८०० यात्रियों का एक संघ भी यहाँ आया।
. पत्राचार प्राकृत सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम सम्बन्धी सूचना
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा विगत वर्षों से संचालित अपभ्रंश साहित्य अकादमी द्वारा ‘पत्राचार प्राकृत सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम' प्रारम्भ किया जा रहा है। सत्र १ जुलाई २००३ से प्रारम्भ होने जा रहा है। इसमें प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी एवं अन्य भाषाओं/विषयों के प्राध्यापक, अपभ्रंश-प्राकृत शोधार्थी एवं संस्थानों में कार्यरत विद्वान् सम्मिलित हो सकेंगे। नियमावली एवं आवेदनपत्र दिनांक २५ मार्च से १५ अप्रैल २००३ तक अकादमी कार्यालय, दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-३०२००४ से प्राप्त करें। कार्यालय में आवेदनपत्र पहुँचने की अन्तिम तारीख १५ मई २००३ है।
स्मृति शेष डॉ० के० आर० चन्द्रा दिवंगत ___अहमदाबाद ६ अक्टूबर : प्राकृत-भाषा और साहित्य के तलस्पर्शी विद्वान्, सुप्रसिद्ध चिन्तक और संशोधक डॉ० के०आर० चन्द्रा का ५ अक्टूबर को अहमदाबाद में प्रात: ९.३० बजे लगभग ६५ वर्ष की अवस्था में निधन हो गया। आप पिछले कुछ समय से अस्वस्थ चल रहे थे। गजसत विश्वविद्यालय, अहमदाबाद में प्राकृत-भाषा-विभाग के अध्यक्ष
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जैन - जगत् : १६७ के रूप में आपने प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन और संशोधन के क्षेत्र में नये कीर्तिमान स्थापित किये। आपके संयोजकत्व व निर्देशन में अहमदाबाद में समय-समय पर प्राकृत भाषा एवं साहित्य पर राष्ट्रीय संगोष्ठियां आयोजित होती रहीं जिनमें देश के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् उपस्थित होकर उन संगोष्ठियों की गरिमा बढ़ाते हुए डॉ० चन्द्रा की विद्वत्ता को स्वीकार करते थे। प्राकृत भाषा और साहित्य पर देश में शोध कार्य करने वाले विद्वानों की संख्या वैसे भी उँगलियों पर गिनने लायक थी, डॉ० चन्द्रा के असामयिक निधन से उसमें तो और भी कमी आ गयी। जैन विद्या की इस महत्त्वपूर्ण विधा के मर्मज्ञ डॉ० चन्द्रा के अवसान से जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति होनी निकट भविष्य में नहीं दिखायी देती है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार अश्रुपूरित नेत्रों से डॉ० चन्द्रा को हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है।
पं० अमृतलाल जी शास्त्री स्वर्गस्थ
काशी की प्राचीन जैन पाण्डित्य परम्परा की प्रायः अन्तिम कड़ी पं० अमृतलाल जी शास्त्री अब हमारे बीच नहीं रहे। ८ नवम्बर २००२ को ८६ वर्ष की दीर्घ आयु में आपका निधन हुआ। दिगम्बर विद्वानों के उद्गमस्थल बुन्देलखण्ड के ललितपुर जिले में ७ जुलाई १९१७ को जन्मे अमृतलाल जी की प्रारम्भिक शिक्षा ललितपुर और बरुआसागर तथा उच्च शिक्षा स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी में सम्पन्न हुई। अपनी विचक्षण प्रतिभा से अध्ययन पूर्ण होने के पूर्व ही आप वहाँ जैन दर्शनाध्यापक नियुक्त हुए। १९५८ ई० से आपने वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय (वर्तमान सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय) में जैनदर्शन के प्राध्यापक के रूप में अपनी सेवा देनी प्रारम्भ की और वहीं से सेवानिवृत्त हुए। इसके पश्चात् भी आप अध्ययन और शोध के क्षेत्र में लगे रहे। आचार्य तुलसी के आग्रह से आपने ब्राह्मी विद्यापीठ, लाडनूं में अध्यापन प्रारम्भ किया। वहां १७ वर्ष तक अपनी सेवा के देने के पश्चात् आप काशी लौट आये और स्थायी रूप से यहीं रहने लगे।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ से आपका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। आप यहां के प्रायः सभी कार्यक्रमों में सम्मिलित होते थे। पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने आपके सम्मान में अभी ३ वर्ष पूर्व श्रमण का एक विशेषांक निकाला था जिसमें आपके चुने हुए लेखों का संग्रह था। यद्यपि आज आप पार्थिव रूप से हमारे बीच नहीं है; किन्तु अपने ज्ञानशरीर से सदैव जीवित रहेंगे। विद्यापीठ परिवार पण्डितजी को हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है।
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साहित्य-सत्कार
निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक लेखसमुच्चय (प्रथम एवं द्वितीय खण्ड), लेखक प्राध्यापक मधुसूदन ढांकी, श्रेष्ठी कस्तूरभाई लालभाई शोध लेख-समुच्चय श्रेणि ग्रन्थांक ४ और ५, प्रकाशक- श्रेष्ठी कस्तूरभाई लालभाई स्मारक निधि, अहमदाबाद; प्राप्तिस्थान- शारदा बहेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेण्टर 'दर्शन', राणकपुर सोसायटी के सामने, शाहीबाग, अहमदाबाद ३८०००४; पृष्ठ प्रथम भाग२४+३४०, द्वितीय भाग- २०+३०४+८७ प्लेट; आकार- रायल; मूल्य- प्रथम खण्ड ४००/- रुपये, द्वितीय खण्ड ५००/- रुपये।
प्रस्तुत ग्रन्थ 'निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक लेख-समुच्चय' (प्रथम एवं द्वितीय खण्ड) जैन-परम्परा के साहित्य, इतिहास, स्थापत्यकला और पुरातत्त्व के शीर्षस्थ विद्वान् प्राध्यापक मधुसूदन ढांकी के गुजराती-भाषा में पूर्व प्रकाशित शोध आलेखों का संकलन है। प्रथम खण्ड में कुल ३४ आलेख हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं--- १- साहित्यअने पुरातत्त्वना परिप्रेक्ष्य में गुजरात मां निर्ग्रन्थ-दर्शन; २- ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यमा 'नमस्कारमंगल'; ३- भद्राचार्य अने दत्तिलाचार्य; ४- 'स्वभाव सत्ता' विषयक त्रण जूना जैन-ग्रन्थ अन्तर्गत मणतां उद्धरणोविशे; ५- स्वामी समन्तभद्रनो समय; ६- वादी-कवि बप्पभट्टिसूरि; ७- पादलिप्तसूरिविरचित 'निर्वाणकलिका'नो समय अने आनुषंगिक समस्याओ; ८- कहावलिकर्ता भद्रेश्वरसूरिना समय विशे; ९- 'गौतमस्वामीस्तव'ना कर्ता वज्रस्वामी विशे; १०- नैमिस्तुतिकार विजयसिंहसूरि विशे; ११- सोलंकीयुगीन इतिहासना केटलांक उपेक्षित पात्रो; १२- 'मीनलदेवीनुं असली अभिधान, १३. श्रीपाल-परिवारनो कुलधर्म; १४- कवि रामचन्द्र अने कवि सागरचन्द्र; १५अममस्वामिचरितनो रचनाकाल; १६- 'कर्पूरप्रकर'नो रचनाकाल; १७- 'स्याद्वादमंजरी' कर्तृ मल्लिषेणसूरिना गुरु उदयप्रभसूरि कोण?; १८- जीर्णदुर्ग-जूनागढ़ विशे; १९व्यंतर वालीनाह विशे; २०- तीर्थंकरोनी निर्वाणभूमिओ संबद्ध स्तोत्रो; २१आर्यनंदिलकृत 'वैरोट्यादेवी स्तव' तथा 'उपसर्गहरस्तोत्र'नो रचनाकाल; २२संगमसूरिकृत संस्कृत-भाषाबद्ध 'चैत्यपरिपाटीस्तव'; २३- कुमुदचन्द्राचार्यप्रणीत 'चिकुरद्वात्रिंशिका'; २४- सागरचन्द्रकृत क्रियागर्भित 'चतुर्विंशतिजिनस्तव'; २५जैत्रसूरिशिष्यकृत 'वीतरागस्तुति'; २६- ज्ञानचन्द्रकृत संस्कृत-भाषा-निबद्ध 'श्रीरैवतगिरितीर्थस्तोत्र'; २७- जयतिलकसूरि विरचित 'श्रीगिरनार चैत्य प्रवाडि'; २४अज्ञातकर्तृक 'श्रीगिरनार चेत्त परिवाडि'; २९- कर्णसिंहकृत गिरनारस्थ खरतरवसही-गीत'; ३०- धर्मघोषसूरिगच्छीय (राजगच्छीय) अमरप्रभसूरिकृत ‘शत्रुजय चैत्यपरिपाटीस्तोत्र';
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साहित्य-सत्कार : १६९ ३१- 'श्रीपुंडरीकशिखरीस्तोत्र' अपरनाम श्री शत्रुजयमहातीर्थपरिपाटिका'; ३२- श्री सोमप्रभगणि विरचित 'श्रीसेत्तुज चेत्त प्रवाडि'; ३३- लखपतिकृत 'सेत्तुज चेत्तप्रवाडि'; ३४- कवि देपालकृत शत्रुजयगिरिस्थ 'खरतरवसही गीत'।
इसी प्रकार द्वितीय खण्ड में कुल २२ आलेख हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं१- ऐरवाडा गामना अल्पज्ञात जिनप्रतिमा लेख विशे; २- गिरनारना एक नवप्रसिद्ध प्रशस्तिलेख पर दृष्टिपात; ३- उज्जयंतगिरिना पूर्व प्रकाशित अभिलेखो विशे; ४उज्जयंतगिरिना केटलाक अप्रकट उत्कीर्ण लेखो; ५- वंथणीना बे नवप्राप्त जैन अभिलेख : समीक्षात्मक लघु अध्ययन; ६- पोरबंदरनी वासुपूज्य जिननी बाघेलाकालीन प्रतिमा अने तेनो अभिलेख; ७- पोरबंदरना शान्तिनाथ जिनालयना बे शिलालेखो; ८भृगुकच्छ-मुनिसुव्रतना ऐतिहासिक उल्लेखो; ९- 'प्रभावकचरित' ना एक विधान पर संविचार; १०- विमलवसहीनी केटलीक समस्याओ; ११- सिद्धराजकारित जिनमंदिरो; १२- 'सिद्धमेरु' अपरनाम ‘जयसिंहमेरुप्रासाद' तथा 'सहस्रलिंगतटाक'ना अभिधाननुं अर्थघटन; १३- कुमारपाल अने कुमारविहारो; १४- तारंगाना अर्हत् अजितनाथना महाप्रासादनो कारापक कोण?; १५- वस्तुपालतेजपालनी कीर्तनात्मक प्रवृत्तिओ; १६- प्रभासपाटनां प्राचीन जिन मन्दिरो; १७- साहित्य अने शिल्प मां 'कल्याणत्रय'; १८- उज्जयंतगिरिना ‘खरतरवसही'; १९- गिरनारस्थ 'कुमारविहार' नी समस्या; २०- गेरसप्पानां जिनमंदिरो; २१- नांदियानी पुरातन जिनप्रतिमा और २२महुवाथी प्राप्त प्राक्-मध्यकालीन जिन प्रतिमा। उपरोक्त सभी आलेख पथिक, फार्नस गुजराती सभा पत्रिका, विद्यापीठ, सामीप्य, स्वाध्याय, सम्बोधि एवं निर्ग्रन्थ जैसे प्रतिष्ठित शोध-पत्रिकाओं एवं जैन विद्या के आयाम, खण्ड २ में प्रकाशित हो चुके हैं। चूंकि उक्त सभी शोधपत्रिकाएँ एवं ग्रन्थ प्राय: सर्वत्र उपलब्ध नहीं थे अत: इन विषयों पर शोध-कार्य करने वाले अध्येताओं को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। श्रेष्ठी कस्तूरभाई लालभाई स्मारक निधि द्वारा निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक लेख-समुच्चय के रूप में प्राध्यापक श्री ढांकी के कतिपय शोध आलेखों के पुन: प्रकाशित हो जाने से इन विषयों पर शोध करने वाले अध्येताओं को एक ही स्थान पर ऐसी सामग्री उपलब्ध हो जा रही है जो उन्हें न केवल शोध के नये आयाम प्रस्तुत करेगी बल्कि उनका उचित मार्गदर्शन भी करेगी। मूल स्रोतों से सामग्री संकलन की उचित पद्धति, उनका सही एवं निष्पक्ष मूल्यांकन, पाद-टिप्पणियों की सम्पूर्णता, सुगठित वाक्य रचना, पुनरुक्ति दोष से रहित सुन्दर वाक्य प्राध्यापक श्री ढांकी के लेखों एवं ग्रन्थों में सर्वत्र देखी जा सकती है। इन सबसे अलग एक अन्य तथ्य भी है, वह है उनके निष्कर्षों की प्रामाणिकता। यही कारण है कि आज प्रो० ढांकी के लेखों के सन्दर्भ सर्वत्र बड़े ही आदर के साथ उद्धृत किये जाते हैं। ऐसे महत्त्वपूर्ण लेखों को संकलित और उन्हें शुद्ध रूप में प्रकाशित कर प्रकाशक संस्था के नियामक
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१७० : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर/२००२ एवं इस ग्रन्थमाला के प्रधान सम्पादक डॉ० जीतेन्द्र बी० शाह ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया है जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। हम उनसे अपेक्षा रखते हैं कि भविष्य में भी वे इसी प्रकार की महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करते रहेंगे। उत्तम कागज पर मुद्रित इस ग्रन्थ की साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक तथा मुद्रण सुस्पष्ट है। ग्रन्थ के दोनों भागों का मूल्य ९००/- रुपया रखना प्रकाशक संस्था की उदारता का परिचायक है। यह ग्रन्थ सभी शोध पुस्तकालयों और उक्त विषयों पर कार्य करने वाले अध्येताओं के लिए अनिवार्य रूप से संग्रहणीय और मननीय है।
प्रभावक स्थविरो- लेखक- डॉ० रमणलाल ची० शाह; भाषा- गुजराती; प्रकाशक- श्री मुम्बई जैन युवक संघ, ३८५, सरदार वल्लभभाई पटेल रोड, मुम्बई ४००००४; पृष्ठ ८+४७८; आकार- डिमाई; मूल्य १५०/- रुपये।
प्रस्तुत पुस्तक गुजराती जैन-साहित्य के पुप्रसिद्ध लेखक डॉ० रमणलाल ची० शाह की एक अनमोल कृति है। पुस्तक ५ विभागों में विभक्त है। प्रथम विभाग में गणिवर श्री मुक्तिविजय जी (श्री मूलचन्द जी महाराज); श्री विजयानन्दसूरि जी महाराज (श्री आत्माराम जी महाराज); श्री विजयवल्लभसूरि जी महाराज; श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी महाराज और श्री चारित्रविजय जी महाराज का ९२ पृष्ठों में सविस्तार जीवन परिचय दिया गया है। द्वितीय विभाग में श्री बूटेराय जी महाराज; श्री वृद्धिचन्दजी महाराज; श्री मोहनलाल जी महाराज और श्री विजयशान्तिसूरि जी महाराज की लगभग १०० पृष्ठों में जीवनी दी गयी है। तृतीय विभाग में लगभग ७८ पृष्ठों में श्री राजेन्द्रसूरि जी महाराज; श्री शान्तिसागर जी महाराज और श्री अजरामरस्वामी का जीवन चरित्र वर्णित है। उल्लेखनीय है कि श्री शान्तिसागर जी महाराज दिगम्बर-सम्प्रदाय के और अजरामरस्वामी स्थानकवासी-परम्परा से सम्बद्ध रहे हैं। चतुर्थ विभाग में विजयधर्मसूरि जी महाराज और आनन्दसागर जी महाराज का लगभग ४७ पृष्ठों में वर्णन है। पाँचवें और अन्तिम विभाग में लगभग १०० पृष्ठों में पण्डित कवि श्री वीरविजय जी महाराज; शासनसम्राट् श्री विजयनेमिसूरि जी महाराज और श्री विजय रामचन्द्रसूरि जी महाराज की जीवनी दी गयी है। इस प्रकार डॉ० शाह ने जैन-परम्परा में पिछले २०० वर्षों में हुए उक्त प्रभावक आचार्यों का एक प्रामाणिक जीवन चरित्र प्रस्तुत कर एक महान् . कार्य सम्पन्न किया है। हम आशा करते हैं कि भविष्य में वे इसी प्रकार इसी काल खण्ड में जैन-परम्परा में हुए अन्य प्रमुख प्रभावक आचार्यों का भी इसी प्रकार से जीवनचरित्र प्रस्तत करेंगे। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक और मुद्रण सुस्पष्ट है। ऐसे सुन्दर ग्रन्थ के लेखन और उसके महत्त्वपूर्ण रूप में प्रकाशन के लिए लेखक
और प्रकाशक दोनों बधाई के पात्र हैं। यह पुस्तक सभी गुजराती भाषा-भाषी जैन श्रावकों के लिए पठनीय और पुस्तकालयों के लिए संग्रहणीय है।
शिवप्रसाद
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साहित्य-सत्कार : १७१ शान्तसुधारसम्-भाग१, विवेचक- श्रीरत्नचन्द्रसूरीश्वर जी म० सा० डहेलावाला; भाषा- गुजराती; प्रकाशक- श्री पुरषादानीय पार्श्वनाथ जैन संघ, देवकीनन्दन, दर्पण सर्किल के पास, रूपक सोसायटी, अहमदाबाद; मूल्य ४०/- रुपये।
प्रस्तुत पुस्तक उपाध्याय विनय विजय जी द्वारा रचित शान्तसुधारस नामक कृति पर आचार्य भगवन्त श्रीमद्रत्नचन्द्रसूरि द्वारा गुजराती भाषा में लिखे गये विवेचन का मुद्रित रूप है। अनित्यादि बारह भावनाएँ तथा मैत्रादि चार भावनाएँ मिलाकर कुल १६ भावनाओं में से पूर्वार्धस्वरूप आठ भावनाओं के तात्त्विक वर्णन को आधुनिक भाषा का रूप देकर स्थान-स्थान पर अनेक मुक्तक काव्य, पद, कविताएँ एवं दृष्टान्तों का इसमें भरपूर प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक भोग-उपभोग की दुनिया में डूबे लोगों को संसार की निःसारता का शान्त रस के माध्यम से ज्ञान कराने में सक्षम है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक और मुद्रण सुस्पष्ट है।
साध्वी भव्यानन्द पूछता नर पण्डिता, लेखक- डॉ० कविन शाह; भाषा- गुजराती; प्रकाशककुसुम के० शाह, ३/१, माणेक शा, अष्टमंगल अपार्टमेन्ट, बीली चार रस्ता, बीलीमोरा-३९६३२१; आकार- डिमाई; प्रथम संस्करण; मूल्य- १२५/- रुपया।
प्रश्नोत्तर शैली जैन आगमों में भी पायी जाती है। विद्वान् श्रमणों ने भी समय-समय पर विभिन्न भाषाओं में प्रश्नोत्तर शैली के ग्रन्थों की रचनाएँ की हैं। ऐसी रचनाएँ विपुल परिमाण में उपलब्ध हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ विभिन्न विषयों से सम्बद्ध ग्यारह सौ प्रश्नों का जैनधर्म के दृष्टिकोण से दिये गये उत्तरों का संग्रह स्वरूप है। जनसामान्य को विभिन्न विषयों का एक ही ग्रन्थ से समुचित समाधान प्राप्त हो जाता है, इस दृष्टि से डॉ० कविन शाह द्वारा किया गया यह प्रयास प्रशंसनीय है। एक ही ग्रन्थ के सम्यक् स्वाध्याय से अनेक गहन विषयों का ज्ञान प्राप्त होने की सम्भावना से प्रस्तुत ग्रन्थ का पूछता नर पण्डिता नाम सार्थक है।
साध्वी भव्यानन्द जिनतत्त्व, भाग १, लेखक- डॉ० रमणलाल ची० शाह; भाषा- गुजराती; प्रकाशक- श्री मुम्बई जैन युवक संघ, ३८५, सरदार वल्लभभाई पटेल रोड, मुम्बई ४००००४; आकार- डिमाई; प्रथम संस्करण; मूल्य २००/- रुपया।
जैन-साहित्य के सुपरिचित लेखक डॉ० रमणलाल ची० शाह हैं। विवेच्य ग्रन्थ में तत्त्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा तथा आचार मीमांसा से सम्बन्धित विभिन्न आलेखों का संग्रह प्रस्तुत किया गया है। जैनधर्म के गम्भीर दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हए अनेक मननीय विषयों जैसे सल्लेखना, धर्मध्यान आदि ४७ विषयों का इसमें विशद् रूप से विवेचन है। लेखक की भाषा अत्यन्त सरल एवं सुगम होने से जनसामान्य
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१७२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर/२००२ के लिए भी यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है। ग्रन्थ की साज-सज्जा भी आकर्षक और मुद्रण त्रुटिरहित है।
साध्वी सिद्धान्तरसा श्री चन्द्रप्रभ की श्रेष्ठ कहानियाँ : सम्पादक- महोपाध्याय ललितप्रभसागर; प्रकाशक- जितयशा फाउण्डेशन, ९-सी, एस्प्लानेड रो ईस्ट, कोलकाता-७०००६९; द्वितीय संस्करण २००१; आकार- डिमाई, पृष्ठ ४५९०; मूल्य- १५/
जीवन और दर्शन के नीरस सत्य को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करना ही कहानी है और यही प्रस्तुति हमें "श्री चन्द्रप्रभ की श्रेष्ठ कहानियाँ' नामक पुस्तक में दृष्टिगत होती है। प्रस्तुत संकलन में मुनिश्री चन्द्रप्रभ ने कहानी के माध्यम से समाज के आध्यात्मिक मूल्यों को गति देने का सफल प्रयास किया है। कहानियों का शीर्षक आकर्षक एवं कहानी की मुख्य घटना से सम्बद्ध है। इसमें कुल छ: कहानियों का संकलन किया गया है जिसमें "कूल दो, प्रवाह एक", "ज्योति मिट्टी के दिए की", "मुक्त हो अतिमुक्त', प्रतीकात्मक प्रतीत होती है वहाँ “बलिदान' कहानी में प्रत्येक घटना का पात्र के साथ सामञ्जस्य बैठा है। बाहुबल/आत्मबल शीर्षक कहानी के अन्तर्द्वन्द्व को उजागर करता है तो कांक्षा से निष्कांक्षा की ओर शीर्षक घटनाक्रम की विपरीतता को आदि से अन्त तक प्रकाश में लाता है। प्रत्येक कहानी की भाषा-शैली विशिष्ट है जिसमें वर्णनात्मक, विश्लेषणात्मक तथा संवाद शैली का प्रभावी ढंग से प्रयोग हुआ है। पुस्तक के द्वितीय संस्करण के प्रकाशन से ही सिद्ध होता है कि ये कहानियाँ काफी लोकप्रिय हैं। कुल मिलाकर "श्री चन्द्रप्रभ की श्रेष्ठ कहानियाँ" पठनीय है।
राघवेन्द्र पाण्डेय फिर कोई मुक्त हो : लेखक- मुनिश्री चन्द्रप्रभ; प्रकाशक- पूर्वोक्त; प्रथम संस्करण २००२; आकार- डिमाई; पृष्ठ ९०; मूल्य- १५/
. “फिर कोई मुक्त हो' मुनिश्री चन्द्रप्रभ के प्रवचन का संकलन है जिसमें समय-समय पर दिये गये छ: प्रवचनों को उद्धृत किया गया है। प्राय: प्रवचन दार्शनिक एवं कठिन शब्दों से युक्त होते हैं जिसे सामान्यजन के लिए आत्मसात करना दुरूह कार्य होता है। श्रीचन्द्रप्रभ ने इन प्रवचनों में इतनी सरल भाषा का प्रयोग किया जिससे वे सहज ही मन में बैठ जाते हैं। प्रवचनों में प्रेरणादायी प्रसंग, उनका सरल एवं सुबोध भाषा में विश्लेषण हमें जीवन-दर्शन की मौलिकता का दर्शन कराता है। गुरु के आत्मज्ञान की लौ जब हृदय को स्पर्श करती है तभी चेतना में अभीप्सा एवं जागरण प्रज्वलित होता है। मुनि श्रीचन्द्रप्रभ के ये प्रवचन लोगों को सहज ही प्रभावित करेंगे और वे इसे आत्मसात कर लाभान्वित होंगे।
राघवेन्द्र पाण्डेय (शोधछात्र)
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साहित्य-सत्कार : १७३
फिर महावीर चाहिए : लेखक- मुनिश्री चन्द्रप्रभ; प्रकाशक- पूर्वोक्त; प्रथम संस्करण २००१; आकार- डिमाई; पृष्ठ ७५; मूल्य- १५/- रुपया ।
" फिर महावीर चाहिए" मुनिश्री चन्द्रप्रभ द्वारा १९९८ ईस्वी में नागौर में दिये गये प्रवचनों का संकलन है। इसमें कुल छः प्रवचन हैं। आज विश्व स्वार्थ, हिंसा और दुराग्रहों से गुजर रहा है ऐसे में महावीर उसके लिए एकमात्र समाधान हो सकते हैं। मुनि श्री चन्द्रप्रभ जी ने अपने प्रवचनों में यथास्थान उचित दृष्टान्त उद्धृत कर महावीर के मार्गों पर चलने का सन्देश दिया है। महावीर ने प्राणिमात्र के लिए प्रेम - मैत्री एवं करुणा का सन्देश दिया, जो आज काफी प्रासंगिक हो चुका है। जहाँ विश्व में एक दूसरे के प्रति हिंसा, छल-प्रपञ्च, भ्रष्टाचार हावी होता जा रहा है, महावीर का उपदेश हमें सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है । 'अहिंसा' हमें सन्देश देता है कि हम 'गोरी' के जबाब में 'अग्नि' तो तैयार कर सकते हैं; किन्तु अहिंसा से बढ़कर दूसरा शस्त्र नहीं तैयार कर सकते। एक दूसरे के प्रति प्रेम एक अमोघ अस्त्र है जो अकाट्य है। यह हमें महावीर के सन्देशों में ही दृष्टिगत हो सकता है।
राघवेन्द्र पाण्डेय (शोधछात्र)
उड़िए पंख पसार : लेखक- मुनि श्री चन्द्रप्रभ; प्रकाशक- पूर्वोक्त; प्रथम संस्करण २००१; आकार- डिमाई; पृष्ठ- १९४; मूल्य- ३०/- रुपया ।
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मुनिश्री चन्द्रप्रभ श्रमण परम्परा के देदीप्यमान नक्षत्र हैं। उनकी लेखनी से अब तक सैकड़ों ग्रन्थ निःसृत हो चुके हैं। प्रवचन कला में सिद्धहस्त का मुनिश्री का उपरोक्त ग्रन्थ जनकपुरी, अजमेर में अगस्त २००० में दिये गये प्रवचनों का संग्रह - रूप है। इनके माध्यम से मुनिश्री ने गूढ़तम विषयों को विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से जनसामान्य के मन में पहुँचाने का सार्थक प्रयास किया है। आशा है मुनिश्री के प्रवचनों से समाज लाभान्वित होगा । पुस्तक सुन्दर बाइण्डिग में उत्तम साज-सज्जा के साथ है। पुस्तक का कवर सहज ही आकर्षित करता है। छपाई भी अत्यन्त सुन्दर एवं स्पष्ट है। इतने कम मूल्य में पुस्तक में प्रस्तुत मोती के दानेरूपी १५ प्रवचनों को पढ़कर समाज अवश्य लाभान्वित होगा और अपने को सुसंस्कृत प्रगति के पथ पर लाने में सक्षम होगा।
राघवेन्द्र पाण्डेय ( शोधछात्र)
धर्म आखिर क्या है? ; लेखक - महोपाध्याय ललितप्रभसागर; प्रकाशकपूर्वोक्त; प्रथम संस्करण २००२; आकार - डिमाई; पृष्ठ- १४६; मूल्य- ३०/- रुपया । प्रस्तुत पुस्तक महोपाध्याय ललितप्रभसागर द्वारा नागौर में १९८८ में दिये गये प्रवचनों का संकलन है। इसमें कुल १४ प्रवचन दिये गये हैं। इनका सम्पादन श्रीमती लता भण्डारी 'मीरा' ने किया है। धर्म एक बड़ा ही गूढ़ विषय है जिसे बड़े ही सुन्दर
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१७४ : श्रमण / जुलाई-दिसम्बर / २००२
ढंग से दृष्टान्त के माध्यम से मुनिश्री ने अपने प्रवचनों द्वारा समझाने का प्रयास किया है। प्रथम प्रवचन 'मनुष्य दुःखी क्यों है ?' के माध्यम से जीवन को सार्थक बनाने की प्रेरणा दी गयी है। प्रत्येक प्रवचन महावीर के वाणी से ओत-प्रोत एवं सारगर्भित है । 'धर्म आखिर क्या है ?' जैसे विकट प्रश्न का समाधान ललितप्रभसागर जी ने बड़े ही सहज एवं सरल शब्दों में करते हुए यह बताने का सफल प्रयास किया है कि धर्म जीवन का अभिन्न अंग है। पुस्तक अध्ययन कर कोई भी व्यक्ति सहज ही सन्मार्ग की ओर उन्मुख होकर अपने जीवन को सार्थक बना सकता है। वर्तमान में प्रस्तुत पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है।
राघवेन्द्र पाण्डेय ( शोधछात्र)
भारतीय साहित्य के निर्माता स्वयम्भू; लेखक - डॉ० सदानन्द शाही; प्रकाशक- साहित्य अकादमी, रवीन्द्र भवन, ३५ फिरोजशाह मार्ग, नई दिल्ली- ११०००१; प्रथम संस्करण २००२; आकार- डिमाई; पृष्ठ- १०४; मूल्य- २५/- रुपया ।
" भारतीय साहित्य के निर्माता स्वयम्भू" के माध्यम से डॉ० सदानन्द शाही अपभ्रंश भाषा को गौरव प्रदान करने वाले अपभ्रंश के वाल्मीकि महाकवि स्वयम्भू पर उत्कृष्ट प्रकाश डाला है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने महाकवि स्वयम्भू की ऐतिहासिक विवेचना के साथ-साथ उनकी जीवनी, रचनाएँ, कथा स्रोत, काव्य सौन्दर्य आदि का प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत किया है। हिन्दी काव्यधारा में राहुल सांकृत्यायन महाकवि स्वयम्भू के बारे में लिखते हैं कि " वस्तुतः वह भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक था। आश्चर्य और क्रोध दोनों होता है कि लोगों ने कैसे ऐसे महान् कवि को भुला देना चाहा । " वस्तुतः यह छोटी सी पुस्तक स्वयम्भू की रचनाओं पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती है। मात्र १०४ पृष्ठ की पुस्तक में डॉ० शाही ने स्वयम्भू के बारे में इतना सुन्दर विवेचन किया है जो अन्यत्र दुर्लभ है। शोधार्थी के लिए भी यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी होगी । वस्तुतः यह पुस्तक " गागर में सागर " उक्ति को चरितार्थ करती है।
राघवेन्द्र पाण्डेय ( शोधछात्र)
गन्तव्य की ओर; प्रवचनकार - श्री पदममुनि 'अमन'; सम्पादक- कलाकुमार शर्मा, आकार - डिमाई; पृष्ठ २० + १७४; प्राप्ति स्थान- श्री जिगर एवं शैलेश शाह, ३०६ कैलाश विहार, सिविल लाइन्स, कानपुर, उत्तर प्रदेश; मूल्य- १०० /- रुपये ।
हमारे समाज में जब-जब भी धर्म की हानि हुई है तब-तब किसी न किसी महापुरुष धर्म की रक्षा के लिए जन्म लिया है। जिस काल एवं समाज में जो भी महापुरुष जन्म लेता है उस काल एवं समाज के व्यक्तियों के लिए वह 'सामान्य पुरुष' होता है जबकि वही 'सामान्य पुरुष' सा दीखने वाला व्यक्ति ही बाद के काल एवं समाज
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साहित्य-सत्कार : १७५ के लिए 'महापुरुष' कहलाता है। 'महापुरुष' तो वह तब भी था लेकिन मानव अपनी तुच्छ बुद्धि के कारण उसे पहचान नहीं पाती है।
समाज में बढ़ती हुई कुप्रवृत्तियों जैसे- विषय-वासना की लालसा और लिप्सा में मानव अनाचार, दुराचार, बलात्कार, व्यभिचार, पापाचार और धर्मान्धता में इतना मशगूल हो गया है जिससे कि समाज, धर्म और व्यक्ति का नैतिक मूल्य गिरता जा रहा है। इसी को देखते हुए जैन मुनि पदममुनि ‘अमन' ने अपने विचारों का संकलन करके समाज को एक सूत्र दिया- वह है- 'गन्तव्य की ओर'। इस सूत्र का अर्थ ही है कि परम आनन्द, परम मोक्ष, परम ब्रह्म को प्राप्त करना। जिस प्रकार सारी नदियाँ उमड़ती-फाँदती हुई अपने गन्तव्य स्थान समुद्र में जाकर एकाकार हो जाती हैं। उसी प्रकार विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों का लक्ष्य परम मोक्ष प्राप्त करना होता है। मुनिजी का स्वभाव व व्यवहार एकदम सरल है। वे किसी धर्म से बँधकर बातें नहीं करते हैं, बल्कि स्वतन्त्र विचार प्रवाह करते हैं। मुनिश्री का यह प्रवचन संग्रह तीन खण्डों में विभक्त है
(१) अनुचिन्तन- इसमें णमोकार मन्त्र, तीर्थङ्कर, गन्तव्य की ओर, जैनधर्म की आस्तिकता, पुद्गल, बन्धन और मोक्ष, स्याद्वाद, अनेकान्तवाद इत्यादि की चर्चा है।
(२) अनुगमन- इस खण्ड में धर्म का पालन करने के लिए क्या आवश्यक है? जैसे- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह को जानना तथा धर्म का स्वरूप और अन्त में भगवान् महावीर की अमृत वाणी की चर्चा है। इस प्रकार हम मुनिश्री के द्वितीय खण्ड 'अनुगमन' की तुलना पातञ्जल दर्शन के अष्टाङ्गयोग से कर सकते हैं। जिस प्रकार योगसिद्धि के लिए पाँच बहिरङ्ग व तीन अन्तरङ्ग होते हैं उसी प्रकार धर्म को जानने या पालन करने के लिए- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह को व्यवहार में उतारने के बाद ही धर्म को समझ कर उसका पालन कर सकते हैं।
(३) अनुष्ठान- तीसरा और अन्तिम खण्ड के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें जैनधर्म का पालन करने के लिए क्या-क्या अनुष्ठान, व्रत एवं त्यौहार का पालन करना चाहिए, इसका विवेचन है।
पदममुनिजी की पुस्तक के इन तीनों खण्डों की तुलना हम जैन-दर्शन के मोक्ष-साधन (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र) जिसे 'त्रिरत्न' कहा गया है, से कर सकते हैं।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:। - तत्त्वार्थसूत्र, १/१
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१७६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर/२००२
सभी मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करना चाहता है। यह तभी सम्भव है जब वह कर्मपुद्गलों से पृथक् होकर वह अपनी स्वाभाविक पूर्णता को प्राप्त करके मुक्त हो जाता है। यही मोक्ष की अवस्था है।
किसी सन्त के प्रवचनों की समीक्षा करना अपने आप में एक धृष्टता है, क्योंकि ऐसे सन्तों की समीक्षा उस परम्परा के ही सन्त कर सकते हैं, फिर भी दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते किसी भी धर्माचार्य के सिद्धान्तों का खण्डन-मण्डन, तर्क-वितर्क, वाद-विवाद करना उसका विषय होता है। इसी अधिकार से मैंने श्री पदममुनि जी के उक्त ग्रन्थ की समीक्षा प्रस्तुत की है। वास्तव में यह ग्रन्थ मानव को उपभोक्तावादी प्रवृत्ति से रोकने एवं उसके आत्मविकास और आध्यात्मिकता का मार्ग प्रशस्त करने में उपयोगी है। निश्चय ही पदममनि जी का यह कार्य जैनशास्त्र के सरलीकरण में एक अभिनव एवं प्रसंशनीय प्रयास है।
डॉ० धर्मेन्द्र कुमार सिंह गौतम (शोधछात्र)
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