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________________ ११२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ बना लेता है, उसे इस धुन में उचित-अनुचित का विवेक भी नहीं रहता और शुरु हो जाती है भ्रष्टाचार, बेईमानी, ऐश्वर्य प्रदर्शन की ललक, पारिवारिक हिंसा, दहेज प्रताड़न, उत्पीड़न, नैतिक मूल्यों का ह्रास, वृद्धों की उपेक्षा, नारी के जीवन पर द्विधा, बढ़ता बोझ, धार्मिक उन्माद आदि। यही क्रम परिवार के समूहस्वरूप समुदाय और सामाजिक गतिविधियों में दृष्टिगत होता है। राजनीति का परिदृश्य भी कुछ ऐसा ही है। राजनीति का अर्थ है---- 'राज्ञ: नीति' अर्थात् शासक या शासन संचालन की नीति। राजनीति में प्रचलित 'राजन' शब्द का लोकतन्त्रात्मक शासन-पद्धति में अर्थ होगा ‘सत्ता या सत्तारूढ़ दल की नीति', उसके अपने सिद्धान्त, जिनको केन्द्र में रखकर वह शासन संचालन हेतु दिशा-निर्देश देता है, कर्मचारीतन्त्र को आदेश देता है। राजनीति का आदर्श व्यवस्थाओं का नियमन, राष्ट्र की सुरक्षा और प्रजा की समृद्धि होना चाहिए। सभी दल अपना आदर्श भी यही बताते हैं; किन्तु यथार्थ कुछ और ही दृश्य दिखाता है। सत्ता यहाँ चरम लक्ष्य बन गया है। सिद्धान्त दिखाने के दांत रह गये हैं। हर दल अपनी सत्ता हेतु सभी तरह के हथकण्डे अपनाते हैं। फलत: कल तक जो समूह एक दल के समर्थन में था वह दूसरे पल पक्षद्रोह कर दूसरे दल को समर्थन दे देता है, इस अन्धी दौड़ में शासन में अस्थिरता, परस्पर अविश्वास, अर्थ को अनावश्यक महत्त्व, घोटाले, भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण, भाई-भतीजावाद, राष्ट्र-विमुखता, सांस्कृतिक द्रोह और राष्ट्रद्रोह की देहलीज पारकर शत्रुओं और विदेशी कम्पनियों के दस्तक तक बनने की शृङ्खला शुरु हो जाती है। भगवान् महावीर के आविर्भाव के समय भी कुछ स्थितियाँ ऐसी ही रही होंगी तभी उन्होंने अनेकान्त को व्याख्यायित किया। ‘अनेक अन्त: धर्मा यस्य स अनेकान्त:' अर्थात् वस्तु में विद्यमान अनन्त धर्मों का युगपत् स्वीकार अनेकान्त है। वस्तु एक है उस पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से विचार करने पर उसकी पृथक्-पृथक् विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। अत: अनेकान्त का अर्थ है विभिन्न कोणों या पहलुओं से वस्तु की अखण्ड सत्ता का आकलन। स्याद्वादमञ्जरी में आचार्य मल्लिषेण ने अनेकान्त का लक्षण किया है 'अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसपपादम्' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म हैं, पदार्थों में अनन्त धर्म माने बिना वस्तु की सिद्धि नहीं होती। भगवतीसूत्र में कहा गया है कि अस्तित्व और नास्तित्व परस्पर विरोधी नहीं हैं अपितु दोनों सहभावी हैं। दोनों साथ में रहकर ही वस्तु को वास्तविकता प्रदान करते हैं। इस प्रकार अनन्त कोणों का होना विरोध नहीं है। उनका हमारी बुद्धि की पकड़ में न आना विरोध प्रतीत होता है। यथा- किसी वस्तु के विषय में एक दृष्टि से कही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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