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. सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं का समाधान : अनेकान्त : ११३ गयी बात सच है तो उसी वस्तु के विषय में दूसरे दृष्टिकोण से देखी गयी बात भी उतनी ही सत्य हो सकती है। एक दृष्टिकोण से जो बात सत्य है, दूसरे दृष्टिकोण से वह बात असत्य भी हो सकती है। इस तरह एक ही वस्तु के विषय में सात नयों से कही गयी सात बातें एक साथ सत्य, असत्य और सत्यासत्य हो सकती हैं। यही दृष्टिकोण स्याद्वाद, सप्तभंगीनय या अनेकान्त कहलाता है। हो सकता है जो बात हम कह रहे हैं, वह दूसरे के समझ में न आये अथवा जो बात दूसरा कह रहा है वह हमारी समझ में न आये। सामान्यतया आदमी अपनी बात को सत्य और दूसरे की बात को असत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। अत: तत्त्वचिन्तक आचार्य ने सलाह दी
तत्रापि न द्वेष कार्यों विषयवस्तु यत्नतो मृग्यः।
तस्यापि च सद्वचनं सर्वं यत्प्रवचनादन्यत्।। अर्थात् हमारे वचन से अन्यथा बात कहने वाले व्यक्ति से भी द्वेष नहीं करना चाहिए, वस्तु पर विशेष ध्यान देकर विचार करना चाहिए। हो सकता है उसका वचन भी सद्वचन हो।
भगवान् महावीर द्वारा प्रवर्तित अनेकान्त एकदम नवीन हो ऐसी बात भी नहीं है, इसके बीज हमें वैदिक-साहित्य में भी मिलते हैं, जहाँ उषा को ‘पुरातनी युवतिः' कहा गया हैं। ब्रह्म को अनेक देवों के रूप में व्याख्यायित एक ही तत्त्व मानते हुए कहा है--
एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति। इन्द्रं यमं मातरिश्वानमाहुः।।
किन्तु महावीर ने साढ़े बारह वर्षों की कठोर साधना और तपस्या के बाद प्राप्त सत्य के दर्शन को सर्वत: देखकर यह अनुभूति की और यही अनुभूति उन्होंने अपने शिष्यों को दी कि दूसरों की बात को भी सुनो, सुनो ही नहीं ध्यानपूर्वक सुनो। हो सकता है उसमें भी कोई तथ्य हो और शान्ति-धैर्य और विश्वास से उसकी बात सुनकर अपनी बात कहो। इस जीवन संचालन की पद्धति को एक दृढ़ स्तम्भ के रूप में स्वीकार कर दर्शन में सम्मिलित किया है। इस प्रकार अनेकान्त का सिद्धान्त मौलिक नहीं है। मौलिक है एक वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों का स्वीकार और प्रतिपादन। इसीलिए आज यह भगवान् महावीर और जैनधर्म-दर्शन का पर्याय बन गया है।
वर्तमान सामाजिक और राजनैतिक अराजकता, उलझाव और टूटन के युग में यदि इस सिद्धान्त का व्यापक समझ के साथ उपयोग हो तो पारस्परिक अविश्वास, वैमस्य और आपाधापी के इस झंझावात की गति में अवरोध आ सकता है। विद्वेष, अनाचार और कदाचार की आंधी रुक सकती है। परिवार में सास यदि यह समझ ले
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