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________________ आचार्य हरिभद्रसूरि की योग दृष्टियाँ : एक विवेचन : १९ समावेश हो जाता है। अतः हम यह निःसंकोच कह सकते हैं कि आचार्य हरिभद्र द्वारा वर्णित योग की ये आठ दृष्टियाँ साधक के आध्यात्मिक विकास हेतु एक महान् देन हैं, क्योंकि इस मार्ग पर आरूढ़ होकर साधक अपने गन्तव्य स्थान की प्राप्ति कर सकता है। सन्दर्भ १. सच्छ्रद्धासंगतो बोधो दृष्टिरित्यभिधीयते । असत्प्रवृत्तिव्याघातात् सत्प्रवृत्तिपदावहः || योगदृष्टिसमुच्चय, १७ समेघामेघरात्र्यादौ सग्रहाद्यर्भकादिवत् । ओघदृष्टिरिह ज्ञेया मिथ्यादृष्टीतराश्रया।। वही, १४ तृणगोमयकाष्ठाग्निकणदीप्रप्रभोपमा । २. ३. ४. ७. ८. रत्नतारार्कचन्द्राभा सद्दृष्टेर्दृष्टिरष्टधा ।। वही, १५ तथा तृणगोमयकाष्ठाग्निकणदीप्रप्रभोपमा । ५. ७०. ६. प्रतिपातयुताश्चाद्याश्चतस्त्रो नोत्तरास्तथा। ९. रत्नतारार्कचन्द्राभाः क्रमेणेक्ष्वादिसन्निभा || योगावतार द्वात्रिंशिका, २६ मित्रा - तारा - बला - दीप्रा- स्थिरा - कान्ता-प्रभा - परा। नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ।। योगदृष्टिसमुच्चय, १३ वही, सापायाऽपि चैतास्तत्प्रतिपातेन नेतराः ।। वही, १९ मित्रा द्वात्रिंशिका - १ करोति योग बीजानामुपादानमिह स्थितः । अवन्ध्यमोक्षहेतूनामिति योगविदो विदुः ॥ योगदृष्टिसमुच्चय २२ तथा जिनेषु कुशलं चित्तं तन्नमस्कार एव च । प्रणामादि च संशुद्धं योगबीजमनुत्तमम् ।। वही, २३ तथा आचार्यादिष्वपि ह्येतद्विशुद्धं भावयोगिषु । वैयावृत्त्यं च विधिवच्छुद्धाशयविशेषतः ।। वही, २८ तथा लेखना पूजना दानं श्रवणं वचनोद्ग्रह । प्रकाशनाथ स्वाध्यायश्चिन्ता भावनेति च ।। वही, २८ तारायां तु मनाक्स्पष्टं, नियमश्च तथाविधः । अनुद्वेगो हितारम्भे जिज्ञासा तत्त्वगोचरा ।। वही, ४१ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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