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१८ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ में प्राप्त बोधप्रभा समस्त विश्व को जो ज्ञेयात्म है, उद्योतित करती है। इसमें सभी प्रकार के मन-व्यापार अवरुद्ध हो जाते हैं और आत्मा केवल आत्मा के रूप को ही देखती है, क्योंकि यह आत्मस्वरूप में निष्प्रयास परिरमण की उच्चतम दशा है, जिसका सख सर्वथा निर्विकल्प होता है। यह बोध की निर्विकल्प दशा है। इस दशा में बोध
और सुख की निर्विकल्पता में ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिप्टी और ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की त्रिपदी एकमात्र अभेद आत्मस्वरूप में परिणत हो जाती है, जहाँ द्वैतभाव सर्वथा विलय को प्राप्त कर लेता है। यह अवस्था सासक्तिहीन और दोषरहित होती है। इस अवस्था वाले योगी को सांसारिक वस्तुओं के प्रति न मोह होता है, न आसक्ति
और न उसमें किसी प्रकार का दोष ही रह जाता है। इस तरह आचार और अतिचार से वर्जित होने के कारण साधक (योगी) क्षपक श्रेणी अथवा उपशम श्रेणी द्वारा आत्मविकास करता है।३७ क्षपक श्रेणी से अभिप्राय है जो साधक तीव्र संवेग आदि प्रयत्नों द्वारा राग, द्वेष एवं मोह को क्रमश: निर्मल करते-करते उत्तरोत्तर समता-शुद्धि की साधना करता है, वह क्षपक श्रेणी में आता है। ऐसे ही जो साधक अपने संक्लेशों को अर्थात् कर्मों का मूलत: क्षय न करके उनका केवल उपशम ही करता है, सर्वथा निर्मूल नहीं कर पाता, वह उपशम श्रेणी में आता है। जिसमें प्रथम श्रेणी का साधक एक ही प्रयत्न में मुक्ति पा जाता है, लेकिन द्वितीय श्रेणी के साधक को मक्ति के लिए पुन: जन्म लेना पड़ता है।
__इस दृष्टि में समस्त कषायों के क्षीण होने के कारण साधक को अनेक लब्धियाँ प्राप्त होती है और वह मुमुक्षु जीवों के कल्याणार्थ उपदेश देता है। इस क्रम में योगी निर्वाण पाने की स्थिति में योग-संन्यास नामक योग को प्राप्त करता है,३८ जिसके
अन्तिम समय में शेष चार अघातीय कर्मों को नष्ट करके वहाँ पाँच अक्षरों के उच्चारण मात्र समय में शैलेशी अवस्था को प्राप्त करता है यानी मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
___ इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने चौदह गुणस्थान(१. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, २. सास्वादनदृष्टि गुणस्थान, ३. मिश्रदृष्टि गुणस्थान, ४. अविरत सम्यक्दृष्टि गुणस्थान, ५. देशविरत-विरताविरत गुणस्थान, ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान, ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, ८. अपूर्वकरण गुणस्थान, ९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान, ११. उपशान्त मोह गुणस्थान, १२. क्षीणमोह गुणस्थान, १३. सयोगकेवली गुणस्थान तथा १४. अयोगकेवली गुणस्थान) के आधार पर आध्यात्मिक विकास की आठ दृष्टियों का वर्णन किया है, परन्तु यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित जान पड़ता है कि गुणस्थान तथा उपर्युक्त
आठ दृष्टियों में कोई असमानता नहीं हैं, क्योंकि प्रथम चार दृष्टियों में प्रथम तीन गुणस्थान, पञ्चम एवं षष्ठ दृष्टि में चतुर्थ,पञ्चम और षष्ठ गुणस्थान, सप्तम दृष्टि में सप्तम और अष्टम गुणस्थान तथा अन्तिम यानी अष्टम दृष्टि में चतुर्दश गुणस्थान का
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