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________________ आचार्य हरिभद्रसूरि की योग दृष्टियाँ : एक विवेचन : १७ नहीं होता। उसका मन तो एकमात्र श्रुत-निर्दिष्ट धर्म में ही लीन रहता है। उसके चिन्तन का केन्द्र आत्म-स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है। अत: कहा जा सकता है कि कान्तादृष्टि में साधक की स्थिति अनासक्त कर्मयोगी की होती है। जैसाकि गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि अनासक्त होकर कर्म करते जाओ, फल की इच्छा मत करो। आसक्ति का परित्याग कर, सिद्धि-सफलता, असिद्धि-असफलता में समान बनकर योग में स्थित होकर तुम कर्म करो। यह समत्व ही योग है।३३ ७. प्रभादृष्टि इस दृष्टि की उपमा सूर्य के प्रकाश से दी गयी है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से सारा विश्व प्रकाशित होता है तथा उसका प्रकाश अत्यन्त तीव्र, ओजस्वी एवं तेजस्वी होता है, उसी प्रकार प्रभादृष्टि का बोध-प्रकाश भी अत्यन्त तीव्र, ओजस्वी एवं तेजस्वी होता है तथा साधक को समस्त पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है। सूर्य की भाँति अत्यन्त सुस्पष्ट दर्शन की प्राप्ति होती है। किसी भी प्रकार का रोग नहीं होता तथा प्रतिपाति नामक गुण का आविर्भाव होता है।३४ इस अवस्था में साधक को इतना आत्मविश्वास हो जाता है कि वह कषायों में लिप्त होते हुए भी अलिप्त-सा रहता है, रोगादि क्लेशों से पीड़ित होने पर भी विचलित नहीं होता। फलत: उसमें पूर्व में सञ्चित विषम वृत्ति के बदले प्राणियों में समता अथवा असंगानुष्ठान का उदय होता है, इच्छाओं का नाश हो जाता है और साधक सदाचार का पालन करते हुए मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होता है अर्थात् यहीं से मोक्षमार्ग का श्रीगणेश होता है।३५ असंगानुष्ठान चार प्रकार के होते हैं- प्रीति, भक्ति, वचन और असंग अनुष्ठान। सत्प्रवृत्ति को असंगानुष्ठान कहा गया है। असंगानुष्ठान अध्यात्म साधना के उपक्रम में गतिशीलता लाता है। यह जन्म-मरण से रहित शाश्वत पद प्राप्त कराने वाला है। इसी प्रकार योगदृष्टिसमुच्चय में इन्हें प्रशान्तवाहिता, विसम्भाग परिक्षय, शैववर्त्म और ध्रुवाध्वा के नाम से बताया गया है।३६ . अत: यहाँ साधक का प्रातिभज्ञान या अनुभूति प्रसूतज्ञान इतना प्रबल एवं उज्ज्वल हो जाता है कि उसे शास्त्र के प्रयोजन की आवश्यकता नहीं रहती, ज्ञान की साक्षात् उपलब्धि उसे हो जाती है। आत्म-साधना की यह बहुत ही ऊँची स्थिति होती है। ऐसी उत्तम, अविचल, ध्यानावस्था से आत्मा में अपरिसीम सुख का स्रोत फूट पड़ता है। ८. परादृष्टि __ यह अन्तिम दृष्टि है, जिसकी उपमा चन्द्रमा की प्रभा से दी गयी है, जो शीतल, सौम्य तथा शान्त होता है और सबके लिए आनन्द और उल्लास लिये होता है। जिस प्रकार चन्द्रमा की ज्योत्सना सारे विश्व को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार परादृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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