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________________ १६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ धर्म-क्रियाओं में आने वाली बाधाओं का परिहार हो जाता है तथा वह परमात्मस्वरूप को पहचानने का प्रयास करने लगता है।२७ साथ ही आत्मा और पर-पदार्थों की भिन्नता का साधक अनुभव करने लगता है। अब तक पर में स्व की जो बुद्धि थी, वह अचानक आत्मोन्मुख हो जाती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने साधक की इस आन्तरिक अनुभूति को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा है- मोह मेरा कुछ नहीं है, मैं तो एकमात्र उपयोग चेतना रूप हूँ। यों चिन्तन करने वाले को सिद्धान्तवेत्ता, ज्ञानी, मोहात्मक ममता से ऊंचा उठा हुआ कहते हैं।२८ आगे पुन: कहते हैं- निश्चित रूप से मैं दर्शन-ज्ञानमय, सदा अरूपी, एकमात्र शुद्ध आत्मा हूँ, अन्य कुछ भी परमाणुमात्र मेरा नहीं है।२९ इस प्रकार दृष्टि में सम्यक्त्व आ जाने पर आस्था स्थिर हो जाती है, विश्वास सुदृढ़ हो जाता है तथा जीव दर्शन प्रत्याहार से युक्त कृत्य, अभ्रान्त, निर्दोष एवं सूक्ष्मबोध वाला हो जाता है।३० जिस प्रकार रत्न का प्रकाश कभी मिटता नहीं है उसी प्रकार स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोध नष्ट नहीं होता और साधक का बोध सदाभ्यास, आत्मानुभूति, सचिन्तन आदि द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होता जाता है। ६. कान्तादृष्टि इस दृष्टि की उपमा तारे की प्रभा से दी गयी है। जिस प्रकार तारे की प्रभा आकाश में स्वाभाविक रूप में होती है, अखण्डित होती है। उसी प्रकार कान्ता की दृष्टि का बोध, उद्योत, अविचल, अखण्डित और प्रगाढ़ रूप में चिन्मय आकाश में सहज रूप में प्रकाशित रहता है। इस दृष्टि में साधक को धारणा नामक योग के संयोग से सुस्थिर अवस्था प्राप्त होती है, परोपकार एवं सद्विचारों से उसका हृदय आप्लावित हो जाता है तथा उसके दोष अर्थात् चित्त की विकलता नष्ट हो जाती है।३१ इन्द्रियों के विषयों के शान्त हो जाने तथा धार्मिक सदाचारों के सम्यक् परिपालन से साधक क्षमाशील स्वभाव वाला बन जाता है, वह सभी प्राणियों का प्रिय हो जाता है।३२ इस प्रकार साधक को शान्त, धीर एवं परमानन्द की अनुभूति होने लगती है, सम्यक्-ज्ञान की प्राप्ति से उसे स्व और पर वस्तु का बोध होने के साथ-साथ उसमें ईर्ष्या, क्रोध आदि दोषों का सर्वथा नाश हो जाता है। यदि हम कान्ता के शाब्दिक अर्थ को देखें तो कान्ता का अर्थ ही होता हैलावण्यमयी, प्रियंकरी, गृहस्वामिनी। ऐसी सनारी पतिव्रता होती है, जिसकी अपनी विशेषता होती है। वह घर, परिवार तथा जगत् के सारे कार्य को करते हुए भी एकमात्र अपना चित्त अपने पति से जोड़े रहती है। उसके चिन्तन का एकमात्र केन्द्र उसका पति ही होता है। इसी प्रकार कान्तादृष्टि में पहुँचा हुआ साधक आवश्यक और कर्तव्य की दृष्टि से जहाँ जैसा करना अपेक्षित है, वह सब करता है, परन्तु उसमें आसक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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