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________________ आचार्य हरिभद्रसूरि की योग दृष्टियाँ : एक विवेचन : १५ बलादृष्टि में साधक के अन्तर्मन में समता-भाव का उदय होता है और आत्मशुद्धि सुदृढ़ होती है। ४. दीप्रादृष्टि दीपा चौथी दृष्टि है जिसकी उपमा आचार्य हरिभद्र ने दीपक की ज्योति से दी है। जिस प्रकार दीपक का प्रकाश तृष्णाग्नि, उपलाग्नि और काष्ठाग्नि की अपेक्षा अधिक स्थिर होता है और जिसके सहारे पदार्थ को देखा जा सकता है। उसी प्रकार दीप्रादृष्टि में होने वाला बोध उपर्युक्त दृष्टियों की अपेक्षा अधिक समय तक टिकता है, परन्तु जिस प्रकार दीपक का प्रकाश हवा के झोंके से बुझ जाता है, उसी प्रकार तीव्र मिथ्यावरण के कारण यह दर्शन भी नष्ट हो जाता है। योगदृष्टिसमुच्चय में इस दृष्टि को प्राणायाम एवं तत्त्वश्रवणसंयुक्त तथा सूक्ष्मबोध भाव से रहित माना गया है।२० कहा गया हैजिस प्रकार प्राणायाम न केवल शरीर को ही सुदृढ़ बनाता है, बल्कि आन्तरिक नाड़ियों के साथ-साथ मन की मलीनता को भी धोता है, ठीक उसी प्रकार इस दृष्टि में रेचक प्राणायाम की भाँति बाह्य विषयों में ममत्वबुद्धि होने के साथ-साथ पूरक प्राणायाम की भाँति विवेकशक्ति की वृद्धि भी होती है और कुम्भक प्राणायाम की तरह ज्ञान केन्द्रित होता है। ताराद्वांत्रिंशिका में इसे भाव प्राणायाम कहा गया है।२१ जो भी साधक इस दृष्टि पर अपना अधिकार कर लेता है वह बिना किसी सन्देह के धर्म पर श्रद्धा करने लगता है। उसकी श्रद्धा इतनी प्रबल हो जाती है कि वह धर्म के लिए प्राण का त्याग कर सकता है। लेकिन प्राण की रक्षा के लिए धर्म का त्याग नहीं कर सकता।२२ ____ अब तक की उपर्युक्त वर्णित दृष्टियाँ ओघदृष्टियाँ हैं। इनमें यदि तत्त्वज्ञान हो भी जाता है तो वह स्पष्ट नहीं होता है,२३ क्योंकि पूर्वसञ्चित कर्मों के कारण धार्मिक व्रत-नियमों का यथाविधि पालन करने से भी सम्यक् ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती। इसी मिथ्यात्व दोष के कारण इन दृष्टियों के जीवों को अवेद्य-संवेद्य पद कहा गया है, क्योंकि अज्ञानवश जीव मूढ़वत आचरण करता है, जिसके कारण अनेक दुःख उत्पन्न होते हैं।२४ किन्तु सञ्चित एवं सञ्चायमाण कर्मों का छेदन करने तथा सांसारिक कारणों को जानने पर ही सूक्ष्म तत्त्व की प्राप्ति होती है।२५ फलत: एक ओर जहाँ संसाराभिमुखता का विच्छेद होता है, वहीं दूसरी ओर अवेद्य-संवेद्य पद भी नष्ट हो जाते हैं और परमानन्द की उपलब्धि होती है।२६ ५. स्थिरादृष्टि स्थिरादृष्टि को रत्नप्रभा से उपमित किया गया है। जिस प्रकार रत्न की प्रभा कभी मिटती नहीं, सहजतया प्रकाशमान रहती है, ठीक उसी प्रकार स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोधमय प्रकाश स्थिर रहता है। यहाँ साधक की दृष्टि सम्यक् हो जाती है, भ्रान्तियाँ मिट जाती हैं, सूक्ष्मबोध अथवा भेदज्ञान हो जाता है, इन्द्रियाँ संयमित हो जाती हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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