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________________ ६२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ निरीक्षण करते हुए मुनि जिनविजयजी को विक्रमी संवत् १४८४ में रचित विज्ञप्ति त्रिवेणी नाम का लघु ग्रन्थ मिला। उसमें प्राप्त वर्णन के अनुसार संवत् १४८४ में खरतरगच्छीय आचार्य जिनराजसूरि के शिष्य उपाध्याय मुनि जयसागर की निश्रा में सिन्ध (पाकिस्तान) के फरीदपुर नामक स्थान से एक यात्री संघ नगरकोट काँगड़ा की यात्रा करने आया है। रास्ते के स्थानों में निश्चिंदीपुर, जालन्धर, विपाशा (व्यास) नदी, हरियाणा (होशियारपुर के पास एक कस्बा) व काँगड़ा नगर के भगवान् शान्तिनाथ व महावीर स्वामी के मन्दिर, किले के मन्दिरों के वृतान्त और दर्शनपूजन का उल्लेख हैं। काँगड़ा के राज परिवारों के पूर्वज व वंशजों का भी इसमें उल्लेख है। यात्री संघ ११ दिन काँगड़ा में रुका। भगवान् आदिनाथ व माता अम्बिका की पूजा के बाद वापसी पर गोपाचलपुर (गुलेर), नन्दवनपुर (नादौन), कोटिलग्राम और कोठीपुर से होकर संघ फरीदपुर पहुँचा। प्राचीन प्रमाणों के आधार पर काँगड़ा नगर में विक्रम सं० १३०९ में निर्मित तीन व किले में दो जैन मन्दिर थे। नज़दीकी आंचलिक ग्रामों में गोपाचलपुर (गुलेर), नन्दवनपुर (नादौन) कोटिलपुर ग्राम व देवपालपुर पत्तन (ढोलबाहा) में भव्य मन्दिरों के उल्लेख व प्रमाण मिलते हैं। ढोलबाहा की खुदाई में तो अभी ४०-४५ वर्ष पहले ही अनेकों जैन मूर्तियां मिली हैं। . अन्य यात्री संघ विक्रम संवत् १४८८ में एक यात्रीसंघ काँगड़ा तीर्थ की यात्रा को आया। संवत् १५६५ में एक यात्री संघ मरुकोट (राजस्थान) से भटनेर (हनुमानगढ़), जलंधर, नकोदर होता हुआ काँगड़ा की यात्रा को गया। वृतान्त में शिवालिक पर्वतमाला को सपादलक्षगिरि कहा गया है। विक्रम संवत् १४९७ में भटनेर से काँगड़ा गये यात्री संघ में सिरसा, वीहणहंडई (भटिण्डा), तलवण्डी, लोद्रहाणय (लुधियाना), लाहड़कोट, नन्दवणि (नादौन) और कोठीपुर के श्रावक शामिल हुए। संवत् १५८० में एक यात्री संघ महम (हरियाणा) से चलकर, हिसारकोट (हिसार), समियाणा (समाना), सींहनद (सरहिंद) और कोठीपुर होता हुआ काँगड़ा की यात्रा को गया। वर्तमान में नये सिरे से इस तीर्थ का परिचय कराने का श्रेय जैन आचार्यश्री विजयवल्लभसूरि जी व साध्वी महत्तरा मृगावती श्रीजी को है। आचार्यश्री ईस्वी सन् १९३९ में होशियारपुर से पैदल यात्री संघ लेकर काँगड़ा पधारे व महत्तरा साध्वी जी ने ई० सन् १९७८ में लगातार आठ महीने काँगड़ा में रहते हए अपने अथक प्रयासों से किले में विराजित भगवान् आदिनाथ की सेवा, पूजा का अधिकार जैन समाज को दिलाया। इन्हीं साध्वी जी की प्रेरणा से किले के पास ही धर्मशाला के प्रांगण में कलात्मक, विशाल व नया जैन मन्दिर निर्मित हुआ। यहाँ होली के तीन दिनों में हर वर्ष सामूहिक यात्रा व मेले आयोजित होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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