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________________ ४२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ अध्याय आठ के अन्तिम उदाहरण में निर्दिष्ट एकछन्दसि खण्ड---- मेरूमल: पुन्नाग चन्द्रोदितं! वाक्य से प्रतीत होता है कि इसके कर्ता शायद पुन्नागचन्द्र या नागचन्द्र हों। धनञ्जय कवि विरचित विषापहारस्त्रोत के टीकाकार का नाम भी नागचन्द्र है। अन्य प्रमाणों के अभाव में कर्तृत्व के विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। प्रशस्ति में उल्लिखित है कि बुद्धिसागरसूरि (११वीं शती) ने छन्दःशास्त्र की रचना की थी, परन्तु अभी तक यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो सका है। इनके द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण पञ्चग्रन्थी (सन् १०२३ ई०) का उल्लेख मिलता है। वर्द्धमानसूरि रचित मनोरमाकहा (सन् १०८३ ई०) की प्रशस्ति से भी बुद्धिसागरसूरि द्वारा व्याकरण, छन्द, नाटक इत्यादि विषयक ग्रन्थों की रचना का उल्लेख प्राप्त होता है। वर्धमानसूरि बुद्धिसागरसूरि के ज्येष्ठ भ्राता थे। छन्दोऽनुशासन आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने शब्दानुशासन और काव्यानुशासन की रचना करने के बाद छन्दोऽनुशासन की रचना की है। यह छन्दोऽनुशासन आठ अध्यायों में विभक्त है, सूत्रों की संख्या इसमें ७६४ है। प्रथम अध्याय में सूत्रों की संख्या १६, द्वितीय अध्याय में ४०१, तृतीय अध्याय में ७३, चतुर्थ अध्याय में ९१, पञ्चम अध्याय में ४२, षष्ठ अध्याय में ३२, सप्तम अध्याय में ७३ और अष्टम अध्याय में सूत्रों की संख्या १७ है। कुल मिलाकर ७००-८०० (७४५) सूत्रों पर विचार किया गया है। यह ग्रन्थ संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के विविध छन्दों पर सर्वाङ्ग प्रकाश डालता है जिसमें तीन से अधिक अध्यायों में संस्कृत में प्रचलित वर्णिक वृत्तों का विवरण हैं। चतुर्थ अध्याय के उत्तरार्ध में प्राकृत छन्दों का विवरण दिया गया है। विशेषता की दृष्टि से देखा जाय तो वैतालीय और मात्रासमक के कुछ नये भेद, जिनका निर्देश पिंगल, जयदेव, विरहांक, जयकीर्ति आदि पूर्ववर्ती आचार्यों ने नहीं किया था, हेमचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत किये, जैसे- दक्षिणांतिका, पश्चिमांतिका, उपहासिनी, नटचरण, नृत्तगति। गलितक, खञ्जक और शीर्षक के क्रमश: जो भेद बताये गये हैं वे भी प्राय: नवीन हैं। मात्रिक छन्दों के लक्षण दर्शाने वाले हेमचन्द्र के छन्दोऽनुशासन का महत्त्व नवीन मात्रिक छन्दों के उल्लेख की दृष्टि से बहुत अधिक है। हेमचन्द्र ने अपने समय तक प्रचलित समस्त प्रसिद्ध तथा अप्रसिद्ध प्राकृत एवं अपभ्रंश छन्द विधाओं का विस्तार से विवेचन दिया है तथा उन्हें स्वोपज्ञ उदाहरणों से उदाहत भी किया है, जिनमें सर्वत्र छन्दोनाम एवं 'मुद्रालङ्कार' का प्रयोग किया गया है। हेमचन्द्र का छन्दोविवरण एक छन्दःशास्त्री विवरण है तथा उन्होंने समस्त छन्दः प्रकारों को अपने ग्रन्थ में समेटने की कोशिश की है। अपभ्रंश के मिश्रछन्दों के सम्बन्ध में अवश्य वे विस्तार से चर्चा नहीं करते तथा इतना ही संकेत करते हैं कि ये अनेक बनाये जा सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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