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________________ १२२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ की स्थापना करना है। इसी संस्था द्वारा 'खण्डेलवाल जैन हितेच्छु' पत्र के प्रकाशन का कार्य भी प्रारम्भ किया गया था।२१ २०वीं शताब्दी में जैन समाज, संस्कृति, दर्शन व धर्म के उत्थान हेतु अनेक जैन पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का कार्य भी प्रारम्भ हो गया। इनमें जैन गजट (१८९५), जैन मित्र (१९००), जैन हितैषी (१९०४), जैनसिद्धान्त भास्कर (१९१२), जैन महिलादर्श (१९२१), श्रमण (१९३९), जैन सन्देश, तीर्थङ्कर, शोधादर्श, अहिंसा सन्देश, अनेकान्त, वीरवाणी, तुलसीप्रज्ञा, तित्थयर, अर्हतवचन आदि प्रमुख हैं। ये पत्र-पत्रिकाएँ सजग प्रहरी की भांति जैन समाज एवं संस्कृति के उत्थान एवं प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं।२२ । पिछले कुछ वर्षों में जैन-समुदाय ने एक सामुदायिक संगठन एवं संस्था की स्थापना की है। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य जरूरतमन्द व्यक्तियों को आवास उपलब्ध कराना है। इस प्रकार की संस्था का प्रारम्भ सर्वप्रथम बम्बई एवं अहमदाबाद में हुआ। अब धीरे-धीरे लगभग समस्त भारत में इनका विकास हो रहा है। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य जैनों को सस्ते एवं उपयुक्त दरों पर आवास उपलब्ध कराना है। यह संस्था पूर्णत: जातीय एवं क्षेत्रीय आधार पर विकसित की गयी है। कुछ स्थानों में बैंकिंग संस्थाएँ भी स्थापित की गयी हैं, परन्तु अभी इनका पूर्ण विकास नहीं हो सका है। उच्चस्तरीय साहित्य के प्रकाशन हेतु 'भारतीय ज्ञानपीठ' नामक संस्था की स्थापना फरवरी १९४४ में की गयी।२३ इसके पूर्व जैन-साहित्य प्रकाशन की कोई उच्चस्तरीय प्रकाशन संस्था नहीं थी। इस संस्था द्वारा जैन धर्म-दर्शन, साहित्य और कला के क्षेत्र में प्रमाणिक साहित्य के प्रकाशन का कीर्तिमान स्थापित किया गया। सारांशत: कहा जा सकता है कि २०वीं शताब्दी में जैन समाज को सही राह दिखाने में जैन संस्थाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इन संस्थाओं के माध्यम से ही जैन समाज गतिशीलता एवं प्रगतिशीलता के पथ पर अग्रसर हो सका। जैसे-जैसे जैन समाज की आर्थिक समृद्धि में वृद्धि हुई वैसे-वैसे जैन-समुदाय का दृष्टिकोण व्यापक एवं प्रगतिशील बनता गया। इसी दृष्टिकोण ने अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं धार्मिक संस्थाओं को जन्म दिया। जैन समाज के समृद्ध व्यक्तियों ने मुक्त हस्त से इन संस्थाओं के विकास एवं विस्तार हेतु अनुदान प्रदान किया। इन संस्थाओं के माध्यम से जैन समुदाय ने एक ओर इतर जैनों का अपने प्रति सद्भाव अर्जित किया वहीं दूसरी ओर इन्होंने साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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