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________________ जैन आगम - साहित्य में नरक की मान्यता डॉ० मनीषा सिन्हा जैन आगम विपाकसूत्र में कर्म फलों पर प्रकाश डाला गया है। व्यक्ति के बुरे कर्मफल प्रायः उसके द्वारा किये गये पाप कर्मों पर आधारित होता है। स्थानाङ्गसूत्र में पापकर्म के नौ कारण स्पष्टत: बताये गये हैं- प्राणितिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया और लोभ । ' जो प्राणी रौद्रकर्म, वचन, विचार एवं आकृति से भयंकर होता है और अपने सुख एवं विलासयुक्त जीवनयापन करने के लिए हिंसा, चोरी, डकैती, लूटपाट, विश्वासघात आदि भयंकर पापकर्म का सम्पादन करता है। जो मद्यपान, मांसाहार, शिकार, मैथुन आदि की प्रवृत्ति को स्वाभाविक कहकर निर्दोष बताने की धृष्टता करते हैं जिनकी कषाय अग्नि कभी शान्त नहीं होती, जो जानवरों की हत्या एवं मछलियों का वध करके अपनी जीविका चलाते हैं ऐसे पापकर्मी मूढ़ जीव अपने किये हुए पापकर्मों का फल भोगने के लिए नरक में जाते हैं। जैन आगमों के अनुसार व्यक्ति नरक में अपने दुष्कर्म का फल भोगने जाता है। नरक-सम्बन्धी धारणा लोगों के बुरे कर्मों को नियन्त्रित करती थी । इसलिए उन्हें नैतिक मार्ग पर चलाने के लिए नरक के दारुण दुःख-पीड़ा से स्पष्टतः अवगत कराया गया। व्यक्तियों के पापकर्म, फल तथा दण्ड निर्धारण के लिए नरकों का भेद-प्रभेद भी स्थापित किया गया है जिसे सात मुख्य नरक, छह अतिकृष्ट महानरक, छह अयक्रान्त महानरक, पाँच महानरक तथा दो अन्य नरकों में विभाजित किया गया है। साथ ही भयंकर यातनादायी नरकपाल एवं नरक की विषम परिस्थितियों का भी उल्लेख है। सूत्रकृताङ्ग तथा जीवाजीवाभिगमसूत्र' से सात नरकों का नाम प्राप्त होता है। यथा— रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, तमप्रभा, तमःप्रभा, महातमप्रभा । ये सातों नरक भूमियाँ एक दूसरे के नीचे असंख्य योजनों के अन्तर पर धनोदधि, धनवात, तनुवात और आकाश के आधार पर स्थित हैं। ये नरक भूमियाँ क्रमश: तीस लाख, पच्चीस लाख, बीस लाख, पन्द्रह लाख और दस लाख आवासों में विभक्त हैं। इन नरकों का क्षेत्र विशाल एवं विस्तृत है। इसकी भित्तियाँ वज्रमय हैं। उन भित्तियों में कोई सन्धि छिद्र नहीं है न ही बाहर निकलने के लिए कोई द्वार है । E प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास, श्री अग्रसेन कन्या स्वायत्तशासी पी० जी० कालेज, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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