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________________ जैन आगम-साहित्य में नरक की मान्यता : १०७ नरक की भूमियाँ मृदता रहित कठोर हैं। इन नरकों का कारागार इतना विषम है कि कोई बाहर नहीं आ सकता। आयु पूर्ण होने तक नरकगामी व्यक्तियों को वहाँ रहना पड़ता है और घोर वेदना के कारण क्रन्दन करते हुए ये सहायता के लिए एक दूसरे को सम्बोधित करते रहते हैं। नरकों में हमेशा घोर अन्धकार व्याप्त रहता है। यहाँ सूर्य, चन्द्र या नक्षत्रों का लेशमात्र भी प्रकाश नहीं होता। ___ जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग में, रत्नप्रभा पृथ्वी में भी छह अतिकृष्ट महानरक स्थित हैं। यथा- लोल, लोलुप, उदग्ध, निर्दग्ध, जरक, प्रजरक। इसी प्रकार चौथे नरक पंकप्रभा की पृथ्वी में और छह अपक्रान्त महानरक- आर, वार, मार, रौर, रौरुक एवं खाडखण्ड स्थित हैं। जहाँ प्राणियों को उनके कर्मों के अनुसार दण्ड दिया जाता है। इनके अतिरिक्त महानरक सूत्र से पापकर्मियों को दण्ड प्रदान करने वाले पाँच महानरकों के नाम वर्णित हैं--- काल, महाकाल, रोरुक, महारौरुक, अप्रतिष्ठाना सूत्रकृताङ्ग में असूर्य१० तथा संतक्षण नामक नरक का उल्लेख है।११ असूर्य नरक महाताप से युक्त तथा घोर अन्धकारपूर्ण एवं अत्यन्त विस्तृत है। इसमें ऊपर-नीचे एवं तिरछी सर्वदिशाओं में प्रज्वलित आग निरन्तर जलती रहती है जिसके कारण पापकर्मी किसी भी स्थिति में बच नहीं पाता और असह्य कष्ट भोगा करता है। संतक्षण नरक में बुरे कर्म करने वाले व्यक्तियों को नरकपाल कुल्हाड़ी से अंग-प्रत्यंग काट डालते हैं। इन नरकों में सैकड़ों यातनाओं को सहने के बाद भी व्यक्ति आत्महत्या नहीं कर सकता, क्योंकि नरक की भूमि का नाम संजीवनी है।१२ वह औषधि के समान जीवन देने वाली है जिसका रहस्य यह है कि मृत्यु-सा दुःख पाने पर भी आयुष्य शेष रहने के कारण पापकर्मी चूर-चूर किये जाने या पानी की तरह अलग-अलग कर दिये जाने पर भी मरते नहीं अपितु पारे के समान बिखर कर पुन: मिल जाते हैं।१३ नरक में बहने वाली वैतरणी नदी का जल भी रक्त के समान खारा तथा गर्म बताया गया है। नदी की जलधारा उस्तरे की तरह तेज है। इसकी तीक्ष्ण धारा के लग जाने से नारकों के अंग कट जाते हैं। यह नदी बहुत गहन एवं दुर्गम है। नारकीय पापकर्मी जीव अपनी प्यास बुझाने के लिए इसमें कूदते हैं लेकिन उन्हें भयंकर दुःखों का सामना करना पड़ता है। १४ नारकीय जीवों को कष्ट देने वाले को परम अधार्मिक देव कहा गया है तथा जमपुरिस (यमपुरुष) के नाम से सम्बोधित किया गया है। इनके पन्द्रह प्रकार मिलते हैं। अपने स्वभाव के अनुसार ये नारकीय जीवों को भयंकर यातना प्रदान करते हैं। इनकी आकृति भी अशुभतर होती है और शरीर के छोटे-बड़े विविध रूप बना लेते हैं।१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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