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________________ _ आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : ३३ समीचीन सनिवेश है।५० इन लघु कथाओं में जीवन-निर्माण, मनोरंजन, मानसिक क्षुधा की तृप्ति, जीवन और जागतिक सम्बन्धों के विश्लेषण एवं चिरन्तन और युग सत्यों के उद्घाटन की सामग्री प्रचुर रूप में विद्यमान है तथा सामान्य रूप से ये सभी कथाएँ, दृष्टान्त या उपदेश-कथाएं ही हैं।५१ इस प्रकार उपदेशपद में व्यक्त हरिभद्रसूरि के चिन्तन के महत्त्व को देखते हुए उसके साङ्गोपाङ्ग एवं तुलनात्मक अध्ययन की आज के सन्दर्भ में बहुत आवश्यकता है ताकि उनके विराट् व्यक्तित्व और चिन्तन का लाभ सर्वसाधारण को उपलब्ध हो सके। सन्दर्भ : १. जाइणिमयहरियाए रइता एतेउ धम्मपुत्तेणं। हरिभद्दायरिएणं भवविरहं इच्छमाणेणं।। - उपदेशपद, १०३९. २. (क) तम्हा करेह सम्मं जह विरहो होइ कम्माणं। पञ्चाशक, ९४० (ख) दुक्ख विरहाय भव्वा लंभतु जिण धम्म संबोधि। धर्मसंग्रहणी, १३६९. ३. उपदेशपद (उवएसपय) नामक मूल ग्रन्थ का प्रकाशन सन् १९२८ में श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम से पंचाशक, धर्मसंग्रहणी आदि आठ ग्रन्थों के साथ प्रकाशित हुआ है। उपदेशपद महाग्रन्थ नाम से दो भागों में श्री मन्मुक्तिकमल जैन मोहनभाला, बड़ोदरा से क्रमश: १९२३ एवं १९२५ में प्रकाशित। ५. ग्रन्थाग्र० १४५०० सूत्र संयुक्तोपदेशपदवृत्तिश्लोकमानेन प्रत्यक्षरगणनया उपदेशपदवृत्ति की प्रशस्ति का अन्तिम वाक्य, पृ. ४३४. उपदेशपदवृत्ति द्वितीयो भागः, आद्य वक्तव्य (भूमिका), पृ. ६-७. साहाय्यमत्र परमं कृतं विनेयेन रामचन्द्रेण। गणिना, लेखसंशोधनादिकं शेषशिष्यैश्च।। उपदेशपदवृत्ति, अन्तिम प्रशस्ति ८, पृ. ४३४. पूर्वैयद्यपि कल्पितेह गहना वृत्ति: ...... यत्नो यमास्थीयते। -उपदेशपदवृत्ति (प्रारम्भिक), ३. ९-१०.जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-४, पृ. १९५. ११. उपदेशपद, गाथा १-२ की वृत्ति, पृ. २. १२. अइदुल्लहं च एयं चोल्लगपमुहेहिं अत्थ समयम्मि। भणियं दिटुंतेहिं अहमवि ते संपाविक्खामि।।उपदेशपद।।४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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