SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं का समाधान : अनेकान्त : ११५ मिल जाती हैं।"५ अत: आज आवश्यकता इस बात को हृदयङ्गम करने की है कि “सत्य शब्दातीत होता है, वह अनुभूति का ही विषय है वाच्यता में उसका एक अंश ही ग्राह्य होता है। बहुधा व्यक्ति एक अंश को ही पूर्ण मानकर आग्रहशील हो जाता है। इसीलिए महावीर ने श्रोता और वक्ता, दोनों के वाच्य अंश को अन्य अंशों से निरपेक्ष न करने का चिन्तन दिया। इसका फलितार्थ है जो मेरा है केवल वही सत्य नहीं अपितु दूसरे के पास जो है वह भी सत्य हो सकता है। पूर्ण सत्य अनुभूति का विषय है।"६ अन्त में आचार्य तुलसी के शब्दों में- "हमारी सबसे बड़ी गलती यही रही है कि तत्त्व की व्याख्या में हमने अनेकान्त को जोड़ा पर जीवन की व्याख्या में उसे जोड़ना भूल गये, जबकि महावीर ने जीवन के हर कोण के साथ अनेकान्त को जोड़ने का प्रयत्न किया है।'' ___ अब हमें भी महावीर की भांति जीवन के हर पहलू को अनेकान्त के साथ जोड़ने का सतत् प्रयत्न करना चाहिए। यदि इस दिशा में हम गतिशील होंगे तो समस्याओं के समाधान स्वत: ही हो जायेंगे। इससे अच्छा उपाय और क्या हो सकता है ? अनेकान्त का इन्द्रधनुष, चिन्तन ने जहाँ छुआ है। महावीर का जीवन-दर्शन, सार्थक वहीं हुआ है।। सन्दर्भ-सूची १. कारिका-२२. २. द्रष्टव्य, १/१३३-८८ ३. अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम्। आदेशभेदोदितसप्त भङ्गमदीदृशस्त्वं बुधरूपवेद्यम्।। स्याद्वादमञ्जरी, कारिका-२३. ४. मूल उद्धरण षोडशक १६/१९. कर्मयोगी केसरीमल सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ, चतुर्थ खण्ड, पृ० २६२. ५. द्रष्टव्य- मुनि नथमल, श्रमण महावीर, पृ० १७८. ६. मुनि महेन्द्र कुमार 'प्रथम', महामानव महावीर, महावीर जयन्ती स्मारिका, रुड़की १९९४ ई०. ७. समणी कुसुम प्रज्ञा, गुरुदेव तुलसी, पृ० १७६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy