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________________ ८२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ अभिलेखीय साक्ष्यों की उक्त सची के लेखों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। प्रथम वर्ग में वे लेख रखे जा सकते हैं जिनमें उल्लिखित मुनिजनों का साहित्यिक साक्ष्यों में भी नाम मिलता है। इनका विवरण इस प्रकार है : वि.सं. १२९६ के प्रतिमा लेख११ में उल्लिखित अभयदेवसूरि के शिष्य देवभद्रसूरि समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर पुनर्गठित गुरु-शिष्य-परम्परा की तालिका के अभयदेवसूरि (द्वितीय) के पट्टधर देवभद्रसरि से अभित्र माने जा सकते हैं। ठीक यही बात वि.सं. १३०२ के प्रतिमालेख१२ में उल्लिखित देवभद्रसूरि के बारे में भी कही जा सकती है। इसी प्रकार वि.सं. १३२७ के प्रतिमालेख१३ में उल्लिखित श्रीचन्द्रसूरि समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर तालिका संख्या १ में उल्लिखित देवभद्रसूरि के प्रशिष्य तथा प्रभानन्दसूरि के शिष्य एवं पट्टधर श्रीचन्द्रसूरि से अभिन्न समझे जा सकते हैं। वि.सं. १४२१ के प्रतिमालेख.४ में उल्लिखित गुणचन्द्रसूरि भी समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर तालिका संख्या १ में उल्लिखित गुणाकरसरि और अजितदेवसूरि के गुरु गुणचन्द्रसूरि से अभिन्न मानने में कोई बाधा नहीं है। ठीक यही बात वि.सं. १४३२ के प्रतिमालेख.५ में उल्लिखित अभयदेवसूरि तथा साहित्यिक द्वारा ज्ञात अभयदेवसूरि (तृतीय) (वर्धमानसूरि, पृथ्वीचन्द्रसूरि आदि के गुरु) के बारे में भी कही जा सकती है। लूणवसही के देहरी क्रमांक ११ की एक जिनप्रतिमा पर वि.सं. १४१७ का लेख उत्कीर्ण है१६ जिससे ज्ञात होता है कि यह प्रतिमा ज्ञानचन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी थी। लेख में पूर्णचन्द्रगणि और संघतिलकसूरि का भी उल्लेख मिलता है। लेख का मूलपाठ निम्नानुसार है : संवत् १४१७ आषाढ सुदि ५ दिने श्रीसंघतिलकसूरिभिः पूर्णचन्द्रगणिना। ठ. जाकेन श्रीमहावीर बिंबं का.प्र. श्रीज्ञानचन्द्रसूरिभिः ।। ठ. मुंजाके. ॥ - ये तीनों मुनिजन किस गच्छ से सम्बद्ध थे, साथ ही साथ ये अलग-अलग गच्छों के थे या एक ही गच्छ के। इन बातों का उक्त लेख से ज्ञान नहीं हो पाता। इसके लिए हमें अन्यत्र प्रयास करना होगा। उक्त लेख में उल्लिखित ज्ञानचन्द्रसूरि को समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर अर्बुदतीर्थोद्धारक धर्मघोषगच्छीय प्रसिद्ध आचार्य ज्ञानचन्द्रसरि१७ से जिनके द्वारा वि.सं. १३७४-१३९६ के मध्य प्रतिष्ठापित ४० से अधिक जिनप्रतिमाएँ अद्यावधि प्राप्त हो चुकी हैं, अभिन्न माना जा सकता है। ठीक यही बात उक्त लेख में उल्लिखित संघतिलकसरि और रुद्रपल्लीयशाखा के प्रसिद्ध आचार्य संघतिलकसूरि के बारे में भी कही जा सकती है। लेख में उल्लिखित तीसरे मुनि पूर्णचन्द्रगणि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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