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________________ आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : २७ की है और विनय सूत्रदान में गुरु के कर्त्तव्यों का उल्लेख करते हुए कहा है कि - 'गुरु को सूत्र का दान योग्य पात्रों को विधिपूर्वक ही करना चाहिए, क्योंकि सिद्धाचार्यों द्वारा सूत्रानुसार सूत्रदान करना निश्चय ही योग्य कार्य है। आसन्न भव्य जीवों की पहचान भी सूत्रों के अनुसार होती है। अत: द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार उचित प्रवृत्ति जिनेन्द्रदेव के शासन में सर्वत्र ही गौरव (बहुमान) प्राप्त कराती है तथा इसके विपरीत आचरण से स्व-पर का विनाश और आज्ञाकोप आदि दोषों का सेवन होता है अत: अति निपुणबुद्धि से सम्यक् प्रवृत्ति करनी चाहिए।१७ बद्धि के भेद- आचार्य हरिभद्र ने उपदेशपद में बद्धि के चार भेद बतलाये हैं।८ - १. औत्पत्तिकी, २. वैनयिकी, ३. कर्मजा तथा ४. पारिणामिकी।। १. औत्पत्तिकी बुद्धि- इस बुद्धि की उत्पत्ति में क्षमोपशम कारण होता है। २. वैनयिकी बुद्धि- विनय अर्थात् गुरु-शुश्रूषा आदि प्रधान कारण जिसमें होता है वह वैनयिकी बुद्धि है। ३. कर्मजा बुद्धि- कर्म रूप नित्य व्यापार से जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह कर्मजा बुद्धि है। ४. पारिणामिकी बुद्धि- सुदीर्घकाल तक पूर्वापर तत्त्व-अवलोकन आदि से उत्पन्न आत्मधर्म जिसमें प्रधान कारण होता है उसे पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं। बुद्धि के उपर्युक्त चार भेदों को अनेक पदों द्वारा अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से समझाया है। प्रथम औत्पत्तिकी बुद्धि के विषय में सत्रह उदाहरण (पद) प्रस्तुत किये हैं१. भरतशिला, २. पणित, ३. वृक्ष, ४. मुद्रारत्न, ५. पट, ६. सरड, ७. काक, ८. उच्चार, ९. गज (गोल खम्भे), १०. भाण्ड (घयण), ११. गोल, १२. स्तम्भ, १३. क्षुल्लक, १४. मार्ग, १५. स्त्री. १६. द्वौपती तथा १७. पुत्र।१९ उपर्युक्त दृष्टान्तों में से रोहक कुमार के ये तेरह दृष्टान्त नन्दीसूत्र में बतलाये हैं --- भरहसिल, मिंट, कुक्कुड, तिल, बालुण, हत्थि, अगड, वणसंडे, पासय, अइआ, पत्ते, खाडहिला तथा पंचपियरो। इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि इन सभी आख्यानों का स्रोत नन्दीसूत्र है। भाव तथा भाषा की दृष्टि से यह भी ज्ञात होता है कि वैनयिकी तथा पारिणामिकी बुद्धि के लक्षण एवं उदाहरण भी. नन्दीसूत्र से ग्रहण किये हैं। भरतशिला नामक पद में रोहक कुमार का उदाहरण दिया है कि उज्जैन के राजा जितशत्रु प्रत्युत्पन्नमति रोहक की अनेक प्रकार से बुद्धि की परीक्षा लेते हैं और अन्त में उसे अपना प्रधानमन्त्री बना लेते हैं।२१ इस कथा में रोहक की बुद्धि का चमत्कार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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