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________________ जैन संस्थाएँ एवं समाज में उनका योगदान : ११७ समाज द्वारा वहन किया जाता है। पशुओं के संरक्षण हेतु "पिंजरापोल " नामक संस्था जैन समुदाय द्वारा देश के विभिन्न शहरों में स्थापित की गयी है। सामान्यतः बीमार एवं अनुपयोगी पशु जिनको इनके मालिकों द्वारा छोड़ दिया जाता है तथा वे पशु जिनको बूचड़खाने ले जाने के पूर्व पकड़ा जाता है, उनको यहाँ रखा जाता है। यहाँ उनके इलाज एवं चारे की समुचित व्यवस्था की जाती है। इनके खर्च की सारी व्यवस्था जैन संस्थाओं द्वारा की जाती हैं। इसके लिए जैन समुदाय द्वारा जीवदया जनप्रसारक मण्डल की स्थापना की गयी है। सभी शहरों एवं गांवों में औषधालय एवं अस्पतालों का निर्माण भी जैन संस्थाओं द्वारा किया जाता है। यहाँ सभी जाति, धर्म एवं सम्प्रदायों के लिए निःशुल्क चिकित्सा की व्यवस्था की जाती है। इसके साथ ही मुफ्त या अत्यधिक कम दामों में दवाइयों की व्यवस्था की जाती है। जैन संस्थाएँ सामान्यतः आयुर्वेदिक चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराती हैं। साधन सम्पन्न जैनबन्धु इन संस्थाओं को दान देकर इनकी व्यवस्था में सहायता प्रदान करते हैं। शैक्षणिक संस्थाओं जैसे— स्कूलों, महाविद्यालयों, पुस्तकालयों आदि का निर्माण एवं संचालन भी जैन संस्थाओं द्वारा किया जाता है। ये संस्थाएँ अनुदान की राशि पर आधारित होती हैं। ये अनुदान स्वेच्छा से धनाढ्य लोगों द्वारा प्रदान किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त आपातकालीन परिस्थितियों जैसे बाढ़, दुर्भिक्ष, अकाल एवं किसी दुर्घटना आदि में भी ये संस्थाएँ यथासम्भव आर्थिक सहायता एवं मदद प्रदान करती हैं। इस प्रकार की एक संस्था बम्बई में 'भगवान् महावीर कल्याण केन्द्र' के नाम से स्थापित की गयी है। इसके माध्यम से भारत के विभिन्न स्थानों जैसे राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, कर्नाटक आदि में कई उपयोगी कार्य किये जा रहे हैं । ४ धार्मिक संस्थाएँ कुछ संस्थाएँ पूर्णतः धार्मिक प्रवृत्ति की होती हैं। इनका पूर्ण सामाजिक एवं शैक्षणिक आधार जैनधर्म एवं जैन ग्रन्थों पर आधारित होता है। इन संस्थाओं का प्रथम उद्देश्य धार्मिक पुस्तकों एवं ग्रन्थों का संरक्षण करना होता है। इनको ग्रन्थ भण्डार के नाम से जाना जाता है। सम्पूर्ण भारत में जैनों के बहुत बड़ी संख्या में हस्तलिखित ग्रन्थ हैं जिनके संरक्षण हेतु कई जैन संस्थाएँ वर्षों से कार्यरत हैं। कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र एवं राजस्थान में अनेक जैन-ग्रन्थ भण्डार हैं। इनमें संरक्षित पाण्डुलिपियों के प्रकाशन हेतु ये संस्थाएँ कार्यरत हैं। प्रारम्भ में जैन ग्रन्थों का प्रकाशन धर्म विरुद्ध माना जाता था। पुस्तकों का प्रकाशन एवं प्रकाशित पुस्तकें मन्दिर में ले जाना वर्जित था। जो व्यक्ति पुस्तकों को प्रकाशित करवाता उनको जैन समाज से निष्कासित कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525047
Book TitleSramana 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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