Book Title: Sramana 2002 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 172
________________ जैन - जगत् : १६७ के रूप में आपने प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन और संशोधन के क्षेत्र में नये कीर्तिमान स्थापित किये। आपके संयोजकत्व व निर्देशन में अहमदाबाद में समय-समय पर प्राकृत भाषा एवं साहित्य पर राष्ट्रीय संगोष्ठियां आयोजित होती रहीं जिनमें देश के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् उपस्थित होकर उन संगोष्ठियों की गरिमा बढ़ाते हुए डॉ० चन्द्रा की विद्वत्ता को स्वीकार करते थे। प्राकृत भाषा और साहित्य पर देश में शोध कार्य करने वाले विद्वानों की संख्या वैसे भी उँगलियों पर गिनने लायक थी, डॉ० चन्द्रा के असामयिक निधन से उसमें तो और भी कमी आ गयी। जैन विद्या की इस महत्त्वपूर्ण विधा के मर्मज्ञ डॉ० चन्द्रा के अवसान से जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति होनी निकट भविष्य में नहीं दिखायी देती है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार अश्रुपूरित नेत्रों से डॉ० चन्द्रा को हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है। पं० अमृतलाल जी शास्त्री स्वर्गस्थ काशी की प्राचीन जैन पाण्डित्य परम्परा की प्रायः अन्तिम कड़ी पं० अमृतलाल जी शास्त्री अब हमारे बीच नहीं रहे। ८ नवम्बर २००२ को ८६ वर्ष की दीर्घ आयु में आपका निधन हुआ। दिगम्बर विद्वानों के उद्गमस्थल बुन्देलखण्ड के ललितपुर जिले में ७ जुलाई १९१७ को जन्मे अमृतलाल जी की प्रारम्भिक शिक्षा ललितपुर और बरुआसागर तथा उच्च शिक्षा स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी में सम्पन्न हुई। अपनी विचक्षण प्रतिभा से अध्ययन पूर्ण होने के पूर्व ही आप वहाँ जैन दर्शनाध्यापक नियुक्त हुए। १९५८ ई० से आपने वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय (वर्तमान सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय) में जैनदर्शन के प्राध्यापक के रूप में अपनी सेवा देनी प्रारम्भ की और वहीं से सेवानिवृत्त हुए। इसके पश्चात् भी आप अध्ययन और शोध के क्षेत्र में लगे रहे। आचार्य तुलसी के आग्रह से आपने ब्राह्मी विद्यापीठ, लाडनूं में अध्यापन प्रारम्भ किया। वहां १७ वर्ष तक अपनी सेवा के देने के पश्चात् आप काशी लौट आये और स्थायी रूप से यहीं रहने लगे। पार्श्वनाथ विद्यापीठ से आपका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। आप यहां के प्रायः सभी कार्यक्रमों में सम्मिलित होते थे। पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने आपके सम्मान में अभी ३ वर्ष पूर्व श्रमण का एक विशेषांक निकाला था जिसमें आपके चुने हुए लेखों का संग्रह था। यद्यपि आज आप पार्थिव रूप से हमारे बीच नहीं है; किन्तु अपने ज्ञानशरीर से सदैव जीवित रहेंगे। विद्यापीठ परिवार पण्डितजी को हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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