Book Title: Sramana 2002 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 174
________________ साहित्य-सत्कार : १६९ ३१- 'श्रीपुंडरीकशिखरीस्तोत्र' अपरनाम श्री शत्रुजयमहातीर्थपरिपाटिका'; ३२- श्री सोमप्रभगणि विरचित 'श्रीसेत्तुज चेत्त प्रवाडि'; ३३- लखपतिकृत 'सेत्तुज चेत्तप्रवाडि'; ३४- कवि देपालकृत शत्रुजयगिरिस्थ 'खरतरवसही गीत'। इसी प्रकार द्वितीय खण्ड में कुल २२ आलेख हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं१- ऐरवाडा गामना अल्पज्ञात जिनप्रतिमा लेख विशे; २- गिरनारना एक नवप्रसिद्ध प्रशस्तिलेख पर दृष्टिपात; ३- उज्जयंतगिरिना पूर्व प्रकाशित अभिलेखो विशे; ४उज्जयंतगिरिना केटलाक अप्रकट उत्कीर्ण लेखो; ५- वंथणीना बे नवप्राप्त जैन अभिलेख : समीक्षात्मक लघु अध्ययन; ६- पोरबंदरनी वासुपूज्य जिननी बाघेलाकालीन प्रतिमा अने तेनो अभिलेख; ७- पोरबंदरना शान्तिनाथ जिनालयना बे शिलालेखो; ८भृगुकच्छ-मुनिसुव्रतना ऐतिहासिक उल्लेखो; ९- 'प्रभावकचरित' ना एक विधान पर संविचार; १०- विमलवसहीनी केटलीक समस्याओ; ११- सिद्धराजकारित जिनमंदिरो; १२- 'सिद्धमेरु' अपरनाम ‘जयसिंहमेरुप्रासाद' तथा 'सहस्रलिंगतटाक'ना अभिधाननुं अर्थघटन; १३- कुमारपाल अने कुमारविहारो; १४- तारंगाना अर्हत् अजितनाथना महाप्रासादनो कारापक कोण?; १५- वस्तुपालतेजपालनी कीर्तनात्मक प्रवृत्तिओ; १६- प्रभासपाटनां प्राचीन जिन मन्दिरो; १७- साहित्य अने शिल्प मां 'कल्याणत्रय'; १८- उज्जयंतगिरिना ‘खरतरवसही'; १९- गिरनारस्थ 'कुमारविहार' नी समस्या; २०- गेरसप्पानां जिनमंदिरो; २१- नांदियानी पुरातन जिनप्रतिमा और २२महुवाथी प्राप्त प्राक्-मध्यकालीन जिन प्रतिमा। उपरोक्त सभी आलेख पथिक, फार्नस गुजराती सभा पत्रिका, विद्यापीठ, सामीप्य, स्वाध्याय, सम्बोधि एवं निर्ग्रन्थ जैसे प्रतिष्ठित शोध-पत्रिकाओं एवं जैन विद्या के आयाम, खण्ड २ में प्रकाशित हो चुके हैं। चूंकि उक्त सभी शोधपत्रिकाएँ एवं ग्रन्थ प्राय: सर्वत्र उपलब्ध नहीं थे अत: इन विषयों पर शोध-कार्य करने वाले अध्येताओं को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। श्रेष्ठी कस्तूरभाई लालभाई स्मारक निधि द्वारा निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक लेख-समुच्चय के रूप में प्राध्यापक श्री ढांकी के कतिपय शोध आलेखों के पुन: प्रकाशित हो जाने से इन विषयों पर शोध करने वाले अध्येताओं को एक ही स्थान पर ऐसी सामग्री उपलब्ध हो जा रही है जो उन्हें न केवल शोध के नये आयाम प्रस्तुत करेगी बल्कि उनका उचित मार्गदर्शन भी करेगी। मूल स्रोतों से सामग्री संकलन की उचित पद्धति, उनका सही एवं निष्पक्ष मूल्यांकन, पाद-टिप्पणियों की सम्पूर्णता, सुगठित वाक्य रचना, पुनरुक्ति दोष से रहित सुन्दर वाक्य प्राध्यापक श्री ढांकी के लेखों एवं ग्रन्थों में सर्वत्र देखी जा सकती है। इन सबसे अलग एक अन्य तथ्य भी है, वह है उनके निष्कर्षों की प्रामाणिकता। यही कारण है कि आज प्रो० ढांकी के लेखों के सन्दर्भ सर्वत्र बड़े ही आदर के साथ उद्धृत किये जाते हैं। ऐसे महत्त्वपूर्ण लेखों को संकलित और उन्हें शुद्ध रूप में प्रकाशित कर प्रकाशक संस्था के नियामक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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