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श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२
कि दूसरे के घर से आयी बहू जो कुछ कह रही है, वह उस घर के पारिवारिक वातावरण जहाँ से वह आयी है उस दृष्टिकोण से सही हो सकता है। बहू यह समझ ले कि सास जो कुछ कह रही है वह अपने पति-परिवार के खट्टे-मीठे अनुभव के आधार पर कह रही है। दोनों द्वेष छोड़कर वस्तुनिष्ठ विचार करें, एक-दूसरे के विचार को सम्मान दें तो प्रतिदिन के कलह टाले जा सकते हैं। कलह के अभाव में परस्पर प्रेम और विश्वास बना रहेगा, परिवार एक रहेगा तो अलग होने की स्थिति में बसाये जाने वाले
अनेक सामानों के स्थान पर एक-एक समान से ही काम चलेगा, अर्थ व्यय कम होगा और साधनों का अनावश्यक आकर्षण कम होगा, अर्थ मोह की कमी से अनेक दुष्चक्र रुक जायेंगे। कार्य के ठीक उत्तरदायित्वपूर्ण विभाजन से द्विधा बोझ कम होगा
और परस्पर प्रसन्नता व शान्ति रहेगी। यही शान्ति और समृद्धि परिवार से समुदाय में और समुदाय से समाज तक जायेगी। . राजनीतिक पटल पर भी मत-वादों एवं स्व-सिद्धान्त प्रसार के आग्रह के कारण फैलते झगड़े कम होंगे, एक दूसरे द्वारा कही हुई बात का बुरा मानने के स्थान पर दूसरे को सम्मान देते हुए उसका आदर करते हुए अपनी बात कही जायेगी और दूसरे को भी यदि यह विश्वास होगा कि मेरी उचित बांत हमेशा मानी जायेगी तो सत्ता मोह कम होगा, सत्ता मोह का अभाव पारस्परिक 'आयाराम- गयाराम' की नीति को हतोत्साहित करेगा, शासन में स्थिरता आयेगी। राष्ट्र तथा संस्कृति रक्षण सर्वोपरि आदर्श होंगे। फिर हमें विदेशियों के हाथों कठपुतली नहीं बनना पड़ेगा।
उद्योग एवं कर्मचारीतन्त्र में फैलती परस्पर अविश्वास की खाई, यूनियनों के परस्पर झगड़े एवं कर्मचारी वर्ग पर प्रभुत्व जमाने की राजनीति के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। सरकार अनेक बार यह समझती है कि कर्मचारियों की यह आवश्यकता उचित है, उसे देना भी चाहती है, फिर भी वह चाहती है कि इस सुविधा को दिलाने का श्रेय अमुक संगठन को देना है तो वह स्वयं संकेत करती है, हड़ताल होती हैं, देय सुविधा दी जाती है और अदेय सुविधाओं के न मिलने का दोष दूसरे संगठनों पर डालती है। उसका राजनीतिक लाभ चुनाव में लेती है। यदि सरकार सत्ता मोह से हटकर देय सुविधाएँ बिना परेशान किये दे दे तो अव्यवस्थायें दूर हो सकती हैं। साथ ही कर्मचारी वर्ग भी यह समझें कि सरकार जिस कार्य के लिए पैसा देती है, हमें वह कार्य निष्ठा से करना है और राजस्व की बहती सरिता में से अपने घर की ओर कुल्यायें न निकाले तो शायद सरकार के पास भी आर्थिक तंगी न हो। फिर परस्पर तोड़-फोड़ की नौबत न आये। यह तभी हो सकता है जब राजनेता और जनसामान्य के जीवन का अंग महावीर की अनेकान्त दृष्टि बने।
अन्त में निष्कर्ष के रूप में सिद्धसेन दिवाकर के शब्दों में कहा जा सकता है कि “सिन्धु में जैसे सरिताएँ मिलती हैं वैसे ही अनेकान्त दृष्टि में सारी दृष्टियाँ आकर
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