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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप : ९९ होना, ५. विशील-दोषों से कलुषित नहीं होना, ६. अति रस-लोलुप नहीं होना, ७. क्रोध नहीं करना एवं ८. सत्य में रत रहना।१९
जैन आगमों में शिक्षार्थी के लिए विनय, अनुशासन एवं प्रामाणिक जीवन पर बल दिया गया। इन्हीं गुणों से व्यक्ति का जीवन श्रेष्ठ बनता है। उपदेशमाला में कहा गया
विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे। विणयाओ दिप्पमुक्कक्स, कओ धम्मो कओ तवो? ।।२०
अर्थात् विनय जिन-शासन का मूल है। संजय और तप से विनीत बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप? दशवैकालिकसूत्र में भी कहा गया
विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणियस्स या।
जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छई।।१
अर्थात् अविनीत को विपत्ति और सुविनीत को सम्पत्ति- ये दो बातें जिसने जान ली है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। इसी सूत्र में यह भी कहा गया
एवं धम्मस्स विणओ मूलं, परमो से मोक्खो।
जेण कित्तिं सुयं सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छइ।। २२
अर्थात् इसी तरह धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम लक्ष्य है। विनय द्वारा ही मनुष्य बड़ी जल्दी शास्त्र-ज्ञान एवं कीर्ति का सम्पादन करता है। अन्त में निःश्रेयस् (मोक्ष) भी इसी के द्वारा प्राप्त होता है।
इसी प्रकार ओगम में विवेकसम्मत आचार पर जोर दिया गया। शिक्षार्थी प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक करे। कहा है
"चरदि जंद जदि णिच्चं, कमलं व जले णिरुवलेवो।"२३
अर्थात् यदि साधक (शिक्षार्थी) प्रत्येक कार्य यतना (विवेक) से करता है, तो वह जल में कमल की भांति जगत् में निर्लेप रहता है। आगम में वाणी के विवेक पर भी जोर दिया गया। कहा है
"हिअमिअअफरुसवाई, अणुवीईभासि वाइओ विणओ।"२४
अर्थात् हित-मित, मृदु और विचारपूर्वक बोलना वाणी का विनय है। इसी प्रकार कहा गया
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