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श्रमण / जुलाई-दिसम्बर २००२
जैन आचार्यों ने चारित्र शुद्धि या आचार शुद्धि पर बहुत अधिक जोर दिया। शिक्षा द्वारा मनुष्य के उदात्त भावों की जागृति होनी चाहिए। उसमें प्रेम, करुणा, अनुकम्पा, परदुःखकातरता, क्षमा आदि मूल्यों का जागरण हो, वह मात्र जानकारियों तक सीमित नहीं रहे। आचाराङ्गनिर्युक्ति में कहा गया- "अंगाणं कि सारो ? आयारो। " १११४
अर्थात् अंग साहित्य का सार क्या है? उनका सार आचार है। शीलपाहुड में कहा गया- "सीलेण विणा विसया, णाणं विणासंति । १९५
अर्थात् शील के बिना इन्द्रियों के विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। इसी ग्रन्थ में कहा गया -- "सीलगुणवज्जिदाणं, णिरत्थयं माणुस जम्मं । १६ अर्थात् शील गुण से रहित व्यक्तियों का मनुष्य जन्म पाना निरर्थक ही है। मनुष्य चाहे कितना भी ज्ञान प्राप्त कर ले, बिना चारित्र के ज्ञान का कोई मूल्य नहीं । आवश्यकनियुक्ति में कहा गया
सुबहुपि सुमहीयं, किं काही? चरणविप्पहीणस्स । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडीवि । ।
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अर्थात् शास्त्रों का अत्यधिक अध्ययन भी चरित्रहीन के लिए किस काम का । क्या करोड़ों दीपक जल देने पर भी अन्धे को कोई प्रकाश मिल सकता है ? इस प्रकार जैन आचार्यों ने उस शिक्षा को ग्रहण करने का प्रतिपादन किया जो चारित्र को उन्नत करने वाली हो।
शिक्षाशील कौन ?
आगमशास्त्रों में शिक्षार्थी के गुणों-अवगुणों पर भी विचार किया गया। शिक्षा प्राप्ति की योग्यता किसमें है? इसका वर्णन उत्तर उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है-. वसे गुरुकुले निच्चं जोगवं उवहाणवं ।
पियंकरे पियंवाई से सिक्खं लडु मरिहई । । ८
अर्थात् जो सदा गुरुकुल में वास करता है, योगवान और तपस्वी होता है, मृदुल होता है तथा मधुर बोलता है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
इसी ग्रन्थ में बताया गया कि आठ कारणों या स्थितियों से व्यक्ति शिक्षाशील कहा जाता है
१. हँसी-मजाक नहीं करना, २ . इन्द्रिय और मन पर सदा नियन्त्रण रखना, ३. किसी का मर्म (रहस्य) प्रकट नहीं करना, ४ . शील-रहित (आचार-विहीन) नहीं
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