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१०२ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ 'पृच्छना' कहलाता है। इससे ज्ञान सम्यक् बनता है। जैन पद्धति में प्रश्नोत्तर को पृच्छना का अंग माना गया है।
३. परावर्तना-- पूर्व पठित ज्ञान के बार-बार स्मरण करना या उसका पुन: पुन: पारायण करना ताकि पाठ भूले नहीं "परावर्तना" कहलाता है। बार-बार याद करने से ज्ञान स्मृति में स्थायी रूप से स्थिर हो जाता है।
४. अनुप्रेक्षा- ज्ञान के बारे में निरन्तर चिन्तन-मनन करना तथा पठित ज्ञान को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझना “अनुप्रेक्षा'' कहलाता है। इससे ज्ञान में व्यापकता आती है। अनुप्रेक्षा द्वारा स्वाध्यायी ज्ञान में गम्भीरता प्राप्त करता है।
५. धर्मकथा-- जब स्वाध्यायी ज्ञान को ग्रहण कर उसे निशंक कर लेता है तब उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने निर्मल ज्ञान के स्रोत से अन्य लोगों को ज्ञान देकर उनके ज्ञान में अभिवृद्धि करे। साधक वार्ता, चर्चा, प्रवचन, अध्यापन, प्रश्नोत्तर इत्यादि द्वारा अपने ज्ञान को भी सुदृढ़ करता है एवं समाज को भी लाभान्वित करता है। जीवन का सर्वाङ्गीण विकास
उपरोक्त विवेचन से यह कदापि न समझना चाहिए कि भारतीय शिक्षा ने जीवन के भौतिक अंगों की उपेक्षा कर दी, ऐसी बात नहीं है। हमारे यहाँ शास्त्रों में जीवन का समग्र अंग लिया गया है अर्थात् मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा की पूर्ण उद्भावना है। चतुर्विध पुरुषार्थ का विकास करना शिक्षा का उद्देश्य है। चतुर्विध पुरुषार्थ में ही मनुष्य-जीवन के सम्पूर्ण विकास की उद्भावना है। इसको स्पष्ट करने के लिए हम एक नदी का उदाहरण लें। अगर नदी के दोनों किनारें, दोनों तटबन्ध मजबूत होते हैं तो उस नदी का पानी पीने के, सिंचाई के, उद्योग-धन्धों आदि के काम आता है, उसमें जीवों का कल्याण होता है। लेकिन जब उसके किनारे कमजोर पड़ जाते हैं तो नदी बाढ़ का रूप धारण कर लेती है और वही अनेक गाँवों को जलमग्न कर देती है, अनेक मनुष्य और पशु उसमें बह जाते हैं, भयंकर त्राहि-त्राहि मच जाती है। इसी प्रकार मनुष्य का जीवन धर्म और मोक्ष के दो किनारों की तरह है। इन दो तटों . की मर्यादा में अर्थ और काम का सेवन किया जाए तो मनुष्य का जीवन स्वयं के लिए एवं अन्यों के लिए भी उपयोगी और कल्याणकारी सिद्ध होता है। हमारे यहाँ पर जगत और जीवन की उपेक्षा नहीं की गयी, लेकिन संयममय, मर्यादानकल जीवन के व्यवहार पर जोर दिया गया। हमारे यहाँ पर पारिवारिक जीवन में इसी धर्म भावना को विकसित करने को कहा गया। शास्त्रों में पत्नी को “धर्मपत्नी” कहा गया जो धर्म-भावना को बढ़ाने वाली होती है। वह वासना की मूर्ति नहीं है। आगम में पत्नी के बारे में बड़ा सुन्दर वर्णन आता है
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