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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : २५
३. वर्धमानसूरि ने वि० सं० १०५५ में उपदेशपद पर एक टीका लिखी है। इसकी प्रशस्ति पार्श्वलगणि ने रची है। इस समग्र टीका का प्रथमादर्श आर्यदेव ने तैयार किया था। 'वन्दे देवनरेन्द्र'- से शुरु होने वाली इस टीका परिमाण ६४१३ श्लोक है।"
४. उपदेशपद पर एक अज्ञातकर्तृक टीका भी है। १०
हरिभद्रसूरि ने उपदेशपद ग्रन्थ का प्रारम्भ मङ्गलाचरणपूर्वक करते हुए भगवान् महावीर को नमन किया है तथा उनके उपदेश के अनुसार मन्दमति लोगों के प्रबोधन हेतु कुछ उपदेश पदों को कहने की प्रतिज्ञा की है -
नमिऊण महाभागं तिलोगानाहं जिणं महावीरं । लोयालोयमियंक सिद्धं सिद्धोवदेसत्थं । । १ । । वोच्छं उवएसमए कइइ अहं तदुवदेसओ सुहुमे । भावत्थसारजुत्ते मंदमइविबोहणडाए । । २ ॥
इसी तरह ग्रन्थ के अन्त में कहते हुए ग्रन्थ का स्वकर्तृत्व सूचित किया हैसुवएसेणेते उवएसपया इहं समक्खाया।
समयादुद्धरिऊणं मंदमतिविबोहणट्ठाए । । १०३८ ।। जाइणिमयहरियाए रइता एते उ धम्मपुत्तेण । हरिभद्दायरिएणं भवविरहं इच्छमाणेणं । । १०३९ ।।
उपदेशपदवृत्ति के रचयिता मुनिचन्द्रसूरि ने भी मङ्गलाचरणपूर्वक उपदेशपदों का दो प्रकार से अर्थ करते हुए कहा है कि 'सकल पुरुषार्थों में प्रधान मोक्ष ही है, अतः मोक्ष पुरुषार्थ-विषयक उपदेशों के पद अर्थात् मनुष्य जन्म दुर्लभत्व आदि स्वानभूत शिक्षाविशेष पदों का इसमें प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय अर्थ के अनुसार 'उपदेश' और 'पद' दोनों में कर्मधारय समास करने पर उपदेशों को ही पद माना गया है। तदनुसार मनुष्य-जन्म की दुर्लभता आदि अनेक कल्याणजनक विषयों की इस ग्रन्थ में चर्चा की गयी है जो उपदेशात्मक वचन रूप है । ११
हरिभद्रसूरि ने मङ्गलाचरण आदि के बाद सभी उपदेश पदों में प्रधान उपदेश पद का उल्लेख करते हुए कहा है
लहूण माणुसत्तं कहंचि अइदुल्लहं भवसमुद्दे ।
सम्मं निउंजियत्वं कुसलेहिं सयावि धम्मम्मि । । ३ । ।
अर्थात् इस संसार समुद्र में जिस किसी प्रकार से अति दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर आत्महितैषीजनों को सद् सम्यक् धर्म में कुशलतापूर्वक मन, वचन और शरीर को
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