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५६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ (वीरकुलिका), वीरवाडा (वीरवाटक), उंदरा (उपनंद), नांदिया (नन्दीवर्द्धन), सानीगांव (षण्मानी गाँव- आबूपर्वत), कनखलाश्रम (स्वर्णखलाश्रम) आदि भगवान् महावीर के जीवनकाल के सन्दर्भो को व्याख्यायित करते हैं। भगवान् महावीर से सम्बन्धित कानों में कीलें ठोकने का उपसर्ग बामणवाडजी से सम्बन्धित माना जाता है। यहाँ पर कर्णकीलन उपसर्ग मन्दिर बना हुआ है। एक जनश्रुति यह भी है कि इन्द्रभूति गौतम का भगवान् महावीर से प्रथम मिलन इस ब्राह्मणवाटक में हुआ था। जहाँ वे यज्ञ में लीन थे। यहीं वे वैशाली के राजकुमार की तपस्या एवं त्याग से प्रभावित हुए थे। बाद में चम्पानगरी (बिहार) में उनका दीक्षा समारोह आयोजित हुआ।
भगवान् महावीर का अर्बुदगिरि की यात्रा के दौरान चण्डकौशिक नाग का उपसर्ग नांदिया में हुआ जहाँ आज भी पर्वत पर ग्रेनाइट की चट्टान पर चण्डकौशिक नाग उत्कीर्ण है। पास में भगवान् का पांव खुदा हुआ है। आबू का आज का पोलोग्राउण्ड राजस्व विभाग के अभिलेखों में सानीगांव है। यहीं पर षण्मानी गांव में प्रभु के पांवों पर खीर पकायी गयी थी। जैन-साहित्य में यह उल्लेख है कि भगवान् महावीर ने छद्मस्थ अवस्था में अज्ञात प्रदेश में विचरण किया था। वैशाली के राजकुमार को मगध देश में तो सब लोग जानते थे पर उन्हें अपनी साधना के लिए अज्ञात प्रदेश में विचरण करना था। मगध से बहुत दूर यही अर्बुदारण्य उस जमाने का आदिवासी बहुल इलाका था! भगवान् महावीर के विचरण-सम्बन्धी पुष्टि के दो शिलालेख अर्बुद मण्डल से प्राप्त हुए हैं। इनमें अर्बुद मण्डल के सीमावर्ती भीनमाल (श्रीमाल) का शिलालेख सं. १३३३ (ई. सन् १२७६) का बहुत महत्त्वपूर्ण है, जो भीनमाल की उत्तर दिशा में आई हुई गजनीखान की कब्र के पास के तालाब के समीप स्थित खण्डित जैन मन्दिर की भीत से प्राप्त हुआ था। लेख इस प्रकार है -
यः पुरात्र महास्थाने श्रीमाले स्वयमागतः। स देवः श्री महावीरो देया (द्वः) सुखसंपदं।।१।। पुनर्भवभवत्रस्ताः संतो यं शरणं गताः। तस्य वीर जिनेन्द्रस्य पूजार्थं शासनं नवं।।२।। थारापद्रमहागच्छे पुण्ये पुण्यैकशालिनाम्।
श्रीपूर्णचन्द्रसूरीणां प्रसादाल्लिख्यते यथा।।३।। मुनि जिनविजय, संपा०संग्रा०- प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखांक ४०२ का प्रारम्भिक अंश।
पूर्व में इस महास्थान श्रीमाल नगर में भगवान् महावीर स्वयं पधारे थे। वे महावीर आपको सुख सम्पत्ति दें। पुन: संसार के दुःखों से त्रस्त लोग उन प्रभु की शरण मेंगये। उन्हीं वीर जिनेन्द्र की पूजा के लिए नया मन्दिर बनाया गया। थारापद्रगच्छ के
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