Book Title: Sramana 2002 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 70
________________ खरतरगच्छ-रुद्रपल्लीयशाखा का इतिहास शिवप्रसाद निम्रन्थ-परम्परा के श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में चन्द्रकुल से उद्भूत प्रवर्तमान गच्छों में खरतरगच्छ का विशिष्ट स्थान है। प्राय: सभी मुख्य गच्छों से समय-समय पर विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं के रूप में अनेक गच्छों-उपगच्छों का उद्भव हुआ। खरतरगच्छ भी इसमें अपवाद नहीं है। इस गच्छ से भी कई शाखाएँ अस्तित्त्व में आयीं, इनमें रुद्रपल्लीयशाखा, खरतरगच्छ-लघु शाखा, पिप्पलकशाखा, आद्यपक्षीयशाखा आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। साम्प्रत निबन्ध में रुद्रपल्लीयशाखा के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। जैसा कि इसके अभिधान से स्पष्ट होता है, रुद्रपल्ली नामक स्थान से यह गच्छ अस्तित्व में आया होगा। रुद्रपल्ली को उत्तर प्रदेश में फैजाबाद के निकट स्थित वर्तमान रुदौली नामक स्थान से समीकृत किया जा सकता है। स्व० भंवरलाल जी नाहटा एवं महो० विनयसागर जी का भी यही मत है। चन्द्रकुल के आचार्य अभयदेवसूरि (नवाङ्गीवृत्तिकार) के प्रशिष्य और जिनवल्लभसूरि के शिष्य जिनशेखरसूरि खरतरगच्छ की इस शाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं। खरतरगच्छपट्टावली के अनुसार आचार्य जिनवल्लभसरि ने मुनि जिनशेखर को उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित कर उन्हें कुछ मुनिजनों के साथ रुद्रपल्ली भेजा। इस प्रकार खरतरगच्छ की एक शाखा के रूप में इस गच्छ के अस्तित्व में आने की नींव पड़ गयी और बाद में स्वतन्त्र गच्छ के रूप में वह भली-भाँति अस्तित्व में आ गया। रुद्रपल्लीयशाखा में जिनशेखरसूरि, अभयदेवसूरि (द्वितीय), देवभद्रसूरि, श्रीतिलकसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, विमलचन्द्रसूरि, गुणभद्रसूरि, संघतिलकसूरि, सोमतिलक (अपरनाम विद्यातिलकसूरि), देवेन्द्रसूरि, गुणाकरसूरि, अभयदेवसूरि (तृतीय), पृथ्वीचन्द्रसूरि, वर्धमानसूरि आदि कई प्रसिद्ध ग्रन्थकार और विद्वान् मुनिजन हुए हैं। खरतरगच्छ की इस शाखा के इतिहास के आकलन के लिए सम्बद्ध मुनिजनों की कृतियों की प्रशस्तियां तथा प्रतिमालेख आदि उपलब्ध हुए हैं जो १३वीं शती के प्रारम्भ से लेकर १७वीं शती के प्राय: मध्य तक मिल पाये हैं। इस शाखा की स्वतन्त्र रूप से कोई पट्टावली नहीं मिलती, किन्तु चूंकि यह खरतरगच्छ से ही उद्भूत *. प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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