________________
४६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ साथ ही, ग्रन्थ के मध्य में ब्राह्मीलिपि, जैनधर्म, जिनवाणी, जिनशासन व जिनेश्वर की स्तुति की गयी है। यद्यपि ग्रन्थकार का समय निश्चित नहीं है और न ही इसमें आन्तरिक या बाह्य साक्ष्य उपलब्ध हैं। सम्बन्ध में वे विरहाङ्क के समकालीन या उनके पूर्ववर्ती भी हो सकते हैं। यह ग्रन्थ मुख्यतया गाथा छन्द से सम्बद्ध है। इसके ४७ पद्यों में गाथा के विविध भेदों का लक्षण निरूपित है, शेष ४९ पद्यों में उदाहरण हैं।
इसमें मुख्य गाथा छन्द का विवेचन (गाथा २६-३०) है, अपभ्रंश का तिरस्कार, गाथा के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्गों का उल्लेख (३२ से ३७) तथा पूर्वोक्त गाथा भेदों की पुनरावृत्ति (गाथा ३८-३९) वर्णित है। तदनन्तर गाथा में प्रयुक्त लघु गुरु वर्गों की संख्या के अनुसार गाथा के २६ भेदों का कथन (परिसंख्या ४०-४४), लघु गुरु गणना विधि (गाथा ४५-४६), कुल मात्रा संख्या (४७), प्रस्तार संख्या (गाथा ४८-५१), अन्य छन्दों की प्रस्तार संख्या (५२) और गाथा-सम्बन्धी अन्य तथ्यों का विचार (५३-६२) है। गाथा ६३ से ७५ पर्यन्त गाथाओं में अपभ्रंश छन्दों के उदाहरण और लक्षण पर विचार (७६-९६), अपभ्रंश छन्द की रचना-पद्धति (७६-७७), मदनावतार या चन्द्रानन (७८-७९), द्विपदी (८०-८१), वस्तुक या सार्धच्छन्दस् (८२-८३), दोहा उसके भेद, उदाहरण और रूपान्तर (८४-९४) एवं अन्त में श्लोक (९५-९६) का निरूपण है।
भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, खण्ड १४, भाग १-२, पृष्ठसंख्या १ से ३८, पूना सन् १९३३ में एच०डी० वेलणकर द्वारा सम्पादित और प्रकाशित हुई है। इस पर रत्नचन्द्रमुनि ने एक वृत्ति की रचना की है। रत्नचन्द्रमुनि माण्डक्यपुरगच्छ के महाकवि देवानन्दाचार्य के शिष्य थे। महाकवि देवानन्दाचार्य १०८ प्रकरण ग्रन्थों के रचयिता थे। कविदर्पण
ईसा की लगभग १३वीं शताब्दी में प्राकृत में विरचित इस छन्दशास्त्र के ग्रन्थ के कर्ता और टीकाकार का नाम अज्ञात है। इसमें छ: उद्देश हैं। ग्रन्थकार का उद्देश्य सभी प्राकृत छन्दों का विवरण देना न होकर अपने समय में प्रचलित महत्त्वपूर्ण छन्दों का विवरण देना रहा है। कविदर्पण के प्रथम उद्देश में मात्रा, वर्ण और उभय के आधार पर छन्द के तीन वर्ग बताये गये हैं। द्वितीय उद्देश में मात्रा छन्द के ११ प्रकारों का वर्णन है। तृतीय उद्देश में सम, अर्धसम और विषम नाम के वर्ण छन्दों का स्वरूप प्रतिपादित है। चतुर्थ उद्देश में समचतुष्पदी, अर्धसाचतुष्पदी और विषमचतुष्पदी के वर्ण छन्दों का विवेचन है। पञ्चम उद्देश में उभय छन्दों और षष्ठ उद्देश में प्रस्तार और संख्या नाम के प्रत्ययों का प्रतिपादन है।
इस प्रकार छ: उद्देशात्मक इस ग्रन्थ में प्राकृत के २१ सम, १५ अर्धसर्म और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org